रविवार, 4 दिसंबर 2011

जन-गण-मन के देवता, अब तो आंखे खोल

यदृच्छया/प्रभात ख़बर



पिछले रविवार मैंने एक गीत का ज़िक्र किया था। यह गीत था १९५७ में लाहौर में बनी उर्दू फ़िल्म बेदारी का। आओ बच्चों सैर करायें तुमको पाकिस्तान की, जिसकी खातिर हमने दी कुर्बानी लाखों जान की और यूँ दी हमें आजादी कि दुनिया हुई हैरान, ऐ कायद-ए-आजम तेरा अहसान है अहसान गीत भी इसी फ़िल्म के हैं। यह फ़िल्म पाकिस्तान की सर्वकालिक बेहतरीन फ़िल्मों में मानी जाती है। १९५४ में अपने यहां एक फिल्म बनी थी जागृति। इसके गीत याद करिए....आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झाँकी हिंदुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो यह मिट्टी है बलिदान है, हम लाये हैं तूफान से किस्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के और दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। ये गीत लिखे थे कवि प्रदीप ने। इस फिल्म में केंद्रीय किरदार मास्टर रतन (नजीर रिजवी) का था। पाक फिल्म बेदारी में केंद्रीय किरदार मास्टर रतन का ही था। ये वही मास्टर रतन हैं जिन्होंने बूट पालिश फिल्म में केंद्रीय भूमिका निभाई थी। मास्टर रतन अजमेर के रहने वाले थे और 1956 में इनका परिवार पाकिस्तान चला गया। जाहिर है कि मास्टर रतन भी पाकिस्तान चले गए। वहां जागृति की तर्ज पर रफीक रिजवी (लोग प्यार से उन्हें बापू भी कहते थे) ने फिल्म बनाने का प्रस्ताव रखा जिसे मास्टर रतन ने मान लिया। यह फिल्म जागृति का कार्बन कापी थी। महात्मा गांधी का स्थान ले लिया कायद-ए-आजम जिन्ना ने और हिंदुस्तान की जगह पाकिस्तान कर दिया गया। यही नहीं इसका नाम भी वही रहा (जागृति का उर्दू पर्यायवाची है बेदारी)। उस समय के उभरते हुए पाकिस्तानी गायक सलीम रजा ने कवि प्रदीप के लिखे हुए गीतों को पाकिस्तान के हिसाब से कस्टमाइज कर दिया। सलीम रजा ने इस फिल्म के गीत गाये भी। इनका संगीत बिलकुल जागृति के गीतों वाला ही है। आप यदि लफ्जों पर न ध्यान दें तो लगेगा जैसे जागृति के गीत ही सुन रहे हैं। लेकिन वहां संगीत का क्रेडिट दिया गया उस समय के मशहूर संगीतकार फतेह अली खान को। यह फिल्म 6 दिसंबर 1957 को पाकिस्तान में रिलीज हुई। इस फिल्म को और इसके गीतों को यूट्यूब पर देखा-सुना जा सकता है।

लेकिन इसका जिक्र मैं इसलिए यहां नहीं कर रहा हूं कि यह जागृति की कार्बन कापी है, बल्कि इसलिए कर रहा हूं कि हम यह समझ सकें कि पाकिस्तान आज जहां है, वह मंजिल बरसों पहले ही वहां के जनमानस में भर दी गई थी। दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल की तर्ज पर बने गीत यूं दी हमें आजादी.... की कुछ लाइनें देखिए। इनसे ऐतिहासिक तथ्यों और पाकिस्तान के कुलीन वर्ग के बीच की खाईं का अंदाजा लगाया जा सकता है-

हर सिम्त मुसलमानों पर छाई थी तबाही

मुल्क अपना था और गैरों के हाथों में थी शाही

ऐसे में उठा दीन-ए-मुह्म्मद का सिपाही

और नारा-ए-तकबीर से दी तूने गवाही

इसलाम का झंडा लिये आया सरे मैदान

ऐ कायद-ए-आजम तेरा अहसान है अहसान....

नक्शा बदल के रख दिया इस मुल्क (पाकिस्तान) का तूने

साया था मुहम्मद का, अली का तेरे सिर पे

दुनिया से कहा तूने, कोई हमसे न उलझे

लिक्खा है इस जमीं पे शहीदों ने लहू से

आजाद हैं, आजाद रहेंगे ये मुसलमान

ऐ कायद-ए-आजम तेरा अहसान है अहसान....




रिटेल का खेल

रिटेल में एफडीआई को लेकर खूब हल्ला मच रहा है। 1 दिसंबर को भारत बंद भी रखा गया। विरोध और समर्थन, दोनों तरफ के लोग अफलातूनी बयान दे रहे हैं। मैं दो बातें यहां रखना चाहता हूं जिन पर गौर करने की जरूरत है। पहली बात यह कि किराना दुकानदारों की संख्या अपने देश में एक करोड़ बताई जा रही है। सवाल यह है कि यह संख्या कहां से आयी? इस लिहाज से देखा जाए तो 130 करोड़ की आबादी वाले अपने देश के हर 130 लोगों (इसमें करीब 25 फीसदी बच्चे भी शामिल हैं) पर एक किराने की दुकान है। जरा अपने गांव या मोहल्ले पर नजर डालिए और जांचिए इस आकड़े की सच्चाई को। दूसरी बात, 1 दिसंबर को पंजाब में बंद नहीं रहा जबकि वहां विपक्षी दलों की सरकार है। इस पर भी गौर करना चाहिए कि ऐसा क्यों है और पंजाब वाले बाकी देश से अलग क्यों सोचते हैं? मेरा कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि रिटेल में एफडीआई को लेकर घोषित केंद्र की मौजूदा नीति का समर्थन किया जाए लेकिन इतना जरूर है कि विरोध व समर्थन करने वाले लोगों को तर्कसंगत बातें करनी चाहिए। अन्यथा, वही होगा जो नब्बे के दशक में डंकेल ड्राफ्ट के विरोध का हुआ। उस समय ये लोग कह रहे थे कि डंकेल आएगा और हमारी फसल काट ले जाएगा। आडवाणी जी से लेकर लालू जी तक। बाद में जब इनकी सरकारें आईं तो वित्तमंत्री उन्हीं लोगों को बनाया गया जो डंकेल प्रस्तावों को लागू कर सकें। अगर उस समय विरोधी दल गंभीरता से मुद्दा उठाते और कोई समझदारी भरी बहस चलाते तो शायद हम उस बहस से निकले रास्ते पर चल रहे होते। तब भी शायद मकसद सिर्फ सत्तापक्ष के खिलाफ माहौल बनाना था (न कि विचार के स्तर पर कोई रास्ता बनाने का)। आज भी जो हो रहा है, वह उन्हीं डंकेल प्रस्तावों का हिस्सा है। विरोध करने वाले राजनीतिक दल इस बार भी क्या सिर्फ सत्तापक्ष के खिलाफ माहौल बनाने का काम नहीं कर रहे?





और अंत में...

फेसबुक पर एक कविता पढ़ी, मजा आया। आप भी पढ़िए...

जन-गण-मन के देवता

अब तो आंखें खोल

मंहगाई से हो गया जीवन डांवाडोल

जीवन डांवाडोल, ख़बर लो शीघ्र कृपालु

कलाकंद के भाव बिक रहा बैगन-आलू।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

यह प्रवृत्ति हमें कहां ले जाएगी

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार



बीते हफ्ते दिल्ली में हरविंदर सिंह नाम के एक युवक ने कृषि मंत्री शरद पवार को चांटा मार दिया। इसको लेकर तमाम तरह की बातें हो रही हैं। जो गांधी कहते थे कि कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तुम अपना दूसरा गाल आगे कर दो, वहीं इस समय देश में उम्मीद की निगाहों से देखे जाने वाले बुजुर्ग गांधीवादी नेता की पवार प्रकरण पर त्वरित प्रतिक्रिया थी- बस एक ही मारा! प्रमुख विपक्षी दल के एक प्रमुख नेता ने कहा कि मंहगाई से परेशान लोग हिंसक हो उठेंगे। फेसबुक पर देखें तो कई पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी माने जाने वाले लोग लिख रहे हैं कि बहुत कोशिश की पवार को चांटा मारे जाने का विरोध करूं लेकिन कर नहीं पा रहा हूं। यह पहली घटना नहीं है, इससे पहले भी इस तरह की घटनाएं हुई हैं। हरविंदर जैसे सामान्य व्यक्ति ही नहीं, जितिन प्रसाद जैसे सांसद, जिन्हें हम युवा पीढ़ी का राजनीतिक मानते हैं, भी हाथ छोड़ने में पीछे नहीं हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का अभिमान करने वाले हमारे समाज को क्या होता जा रहा है और क्यों होता जा रहा है? कहां गड़बड़ हो रही है? यह राजनीतिकों को ही नहीं, हम-आप को भी सोचना पड़ेगा। इस सवाल के मूल में जाना पड़ेगा और इसका समाधान खोजना होगा। मुझे कुछ वाकये याद हैं, जो बचपन में मैंने अपने गांव में दादा जी से और अपने गांव वाले स्कूल सुने-देखे थे। कुछ वाकये बड़े होने पर राजनीतिकों से सुने। उनमें कुछ शेयर करना चाहूंगा-
बचपन में मेरे दादा जी ने यह वाकया सुनाया था। बात 50 के दशक की है, खटीमा में नेहरू जी की सभा थी। खटीमा उत्तर प्रदेश के तराई इलाके में पड़ता था, जहां पाकिस्तानी पंजाब से आए सिखों को बसाया गया था। अब यह उत्तराखंड का हिस्सा है। बीच में चौकी डालकर माइक लगा दिया गया था। लोग उस चौकी के सामने बड़ी संख्या में एकत्र थे। लोग 100-100 किलोमीटर से खुद चलकर नेहरू को सुनने आए थे। नेहरू बोल रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि एक तरफ कुछ सिख युवक उनको काला झंडा दिखा रहे थे। नेहरू ने भाषण रोका, चौकी से नीचे उतरे और भीड़ को चीरते हुए उन युवकों के पास पहुंच गए। उनके हाथ से काला झंडा लिया और उसे फाड़कर फेंक दिया। युवकों को कुछ समझाया और फिर लौटकर भाषण शुरू किया।
दूसरी घटना मेरे गांव के पास के उस स्कूल की है, जहां से मैंने स्कूली पढ़ाई पूरी की। इमरजेंसी खत्म हो गई थी। चुनाव प्रचार चल रहा था। मेरा स्कूल संघ के प्रभाव वाला था और उसके कई शिक्षक संघ की शाखाएं लगाने का काम करते थे। वहां पहले जेपी की सभा हुई। पांच बच्चों को जेपी के लिए स्वागत गान गाने के लिए चुना गया। मैं भी उनमें से था। बाद में इंदिरा गांधी की सभा भी उसी स्कूल में हुई और वही हम पांच बच्चे उनके स्वागत में भी वही गान गाने के लिए चुने गए।
तीसरी घटना जो मैने लखनऊ के समाजवादी नेता चंद्रदत्त तिवारी जी से सुनी थी। 1966 में प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी अपने गृहनगर इलाहाबाद आने वाली थीं। 1965 के युद्ध की वजह से महंगाई चरम पर थी। इलाहाबाद में जहां कांग्रेसी लोगों ने उनके स्वागत की तैयारी की, वहीं कुछ अन्य लोगों ने महंगाई के विरोध में उन्हें काला झंडा दिखाने की घोषणा की। इंदिरा गांधी आईं तो सड़क के एक तरफ के लोग कांग्रेसी तिरंगे को लहरा कर उनका स्वागत कर रहे थे तो सड़क के दूसरी तरफ काला झंडा दिखाकर उनके सामने विरोध जता रहे थे। उस समय जतिन प्रसाद की तरह कांग्रेस के नेताओं ने काले झेंडे वालों पर लात घूंसे बरसाने नहीं शुरू कर दिए थे।
एक घटना अभी टीवी पर सुनी मोहन सिंह से। वह बता रहे थे कि फिरोज गांधी इलाहाबाद से चुनाव लड़ रहे थे। उनके विरोधी सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार नंदलाल के पास कार नहीं थी। फिरोज गांधी दोपहर 12 बजे से शाम चार बजे तक आराम करते थे। इस दौरान वे अपनी कार नंदलाल को दे देते कि लो तब तक आप इस कार से अपना प्रचार कर लीजिए।
हम कहां से कहां आ गए हैं। हमारा देश भले आज समृद्धि की राह पर बढ़ने का दावा कर रहा हो लेकिन हमारे समाज में जो प्रवृत्तियां पनप रही हैं, वे कतई विकसित समाज की ओर ले जाने वाली नहीं हैं।
और अंत में...
हम सब ने एक गीत जरूर सुना होगा हम लाये हैं तूफान से किस्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के। जागृति फिल्म का यह गीत प्रदीप ने लिखा था और अभि भट्टाचार्या पर फिल्माया गया था। इसी तरह का एक गीत और पढ़िए यहां। इसके बारे बात अगले रविवार को करेंगे-
बरसों के बाद फिर उड़े परचम हिलाल के
हम लाये हैं तूफान से किश्ती निकाल के
इस मुल्क को रखना मेरे बच्चों संभाल के
देखो कहीं उजड़े न हमारा ये बगीचा
इसको लहू से अपने शहीदों ने है सींचा
इसको बचाना जान मुसीबत में डाल के
हम लाये हैं...
दुनिया के सियासत के अजब रंग हैं न्यारे
चलना है तुमको तो मगर कुरान के सहारे
हर एक कदम उठाना जरा देखभाल के
इस मुल्क को रखना मेरे...
तुम राहत-ओ-आराम के झूले में न झूलो
काटों पे है चलना मेरे हंसते हुए फूलों
लेना अभी कश्मीर है, ये बात भूलो
कश्मीर में लहराएंगे झंडा उछाल के
इस मुल्क को रखना मेरे बच्चों संभाल के।

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

पाकिस्तान में जड़ों से जुड़ने की अकुलाहट!

पाकिस्तान में झूठा और तोड़-मरोड़ा हुआ इतिहास स्कूलों में पढ़ाए जाने के खिलाफ एक बार फिर आवाज उठने लगी है। पिछले चार माह से वहां के अखबार एक्सप्रेस ट्रिब्यून में लगातार इस विषय पर लिखा जा रहा है। यहां तक कि पाकिस्तान के एक सांसद रजा रब्बानी ने मांग तक कर दी कि बच्चों को इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह और सरदार भगत सिंह की भूमिकाओं को पढ़ाया जाए। करीब आठ-नौ साल पहले मैंने पाकिस्तान के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की कुछ पुस्तकें कश्मीर में देखीं थीं। उर्दू जानने वाले अपने मित्रों की मदद से मैंने जो कुछ समझा उसके मुताबिक वहां जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलिम शासकों की जानकारी देता है और वह इस प्रकार जैसे वे सब सच्चाई के पुजारी रहे हों और उनका एक मात्र मकसद इसलाम का विस्तार करना था। ट्रिब्यून के कालमनिस्ट फरहान अहमद शाह भी यही बात कहते हैं और अपने कालम में यह लिखने का साहस कर रहे हैं कि अधिकतर मुसलिम शासक या तो लुटेरे थे या फिर आक्रमणकारी। गैर मुसलिम शासकों का नाम तक पाकिस्तान के इतिहास में नहीं लिया जाता। इसकी वजह से पाकिस्तान के इतिहास में गजनवी, गौरी, तुगलक, मुगल आदि ही छाए हैं जैसे चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त, अशोक, शेरशाह सूरी आदि कभी हुए ही न हो। अकबर को इसलाम विरोधी के तौर पर इतिहास में चित्रित किया जाता है और औरंगजेब को नायक के तौर पर। पिछले 10 साल में पाकिस्तान जिस तरह तालिबान की गिरफ्त में आ गया है और वहां की सिविल सोसाइटी (कुलीन वर्ग) इनके आगे शायद असहाय महसूस करने लगी है। क्योंकि आजादी के बाद से वहां के स्कूलों, इतिहास की किताबों और कश्मीर के जरिए बच्चों के दिमाग को जिस तरह से कंडीशन किया गया, उसके परिणाम अब वहां की सिविल सोसाइटी को दबाव में ला रहे हैं। वे बच्चे अब बड़े हो चुके हैं और उनके बच्चे उन्हीं की सरपरस्ती में बड़े हुए हैं। लिहाजा, अब वे सिविल सोसाइटी की चाबुक सहने को तैयार नहीं हैं। वे तो अब खुद अपनी चाबुक से सिविल सोसाइटी को हांकना चाहते हैं। अब उन कुलीनों की समझ में आ रहा है कि गड़बड़ कहां हुई। और, वे अब इस गड़बड़ को सुधारना चाहते हैं और मुखर होकर पूछ रहे हैं कि यदि महमूद गजनवी इसलाम का प्रचारक था तो उसने मुलतान के तत्कालीन मुसलिम शासक की हत्या क्यों की? उसने गद्दी पाने के लिए अपने भाई की हत्या क्यों की? उसने भारतीय उपमहाद्वीप पर 17 बार आक्रमण इसलाम के प्रचार के लिए किया या यहां की धन-दौलत को लूटने के लिए? ऐसे ही सवाल सिविल सोसाइटी मुह्म्मद गौरी को लेकर पूछ रही है – कि हमारी (पाकिस्तान की) इतिहास की किताबें यह क्यों नहीं बतातीं कि यदि मुहम्मद गौरी का एजेंडा इसलाम का प्रसार ही था तो उसने गजनवी वंश के आखिरी राजा मलिक खुसरो पर हमला क्यों किया? वे अपनी जमीन के नायकों को लेकर भी सवाल पूछ रहे हैं। वे सरकार से पूछ रहे हैं कि हम यह क्यों नहीं पढ़ाते कि हमारी जमीन हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख जैसे धर्मों की जननी रही? हमारी जमीन तक्षशिला जैसे ज्ञानकेंद्र की जमीन रही है? हमारी जमीन मोहन जोदाड़ो सभ्यता की जमीन रही है? ये सवाल सब जगह उठ रहे हैं और पाकिस्तान में दबाव बन रहा है। सिंध की प्रांतीय सरकार ने अपने यहां के स्कूली पाठ्यक्रम में संशोधन के लिए एक कमेटी बनाई है। यह कमेटी अन्य बातों को साथ-साथ ऐतिहासिक तथ्यों को सही रूप में इतिहास की किताबों में रखने पर भी विचार कर रही है। हो सकता है कि बदलाव की शुरुआत सिंध से ही हो जाए और वहां के बच्चे दाहिर को आतताई और मोहम्मद बिन कासिम को दयालु और इसलाम के प्रचारक के तौर पर पढ़ने के अभिशाप से मुक्ति पा जाएं। और अंत में... पाकिस्तान के तरक्कीपसंद शायर हबीब जलाली (1928-1993) के बारे में कहा जाता है कि उनकी आधी जिंदगी जेल में गुजरी और आधी सड़क पर। हबीब का जन्म पंजाब के होशियारपुर जिले में हुआ था। आजादी के वक्त वे मैट्रिक की पढ़ाई कर रहे थे। उनके वालिद ने उस दौरान पाकिस्तान जाने का फैसला किया और हबीब पाकिस्तान चले गए। अयूब खान द्वारा मार्शल ला लगाए जाने के विरोध करने पर उन्हें पहली बार जेल में डाला गया और उसके बाद यह सिलसिला उनकी मौत तक जारी रहा। पढ़िए इस तरक्कीपसंद शायर की ये लाइनें.... इक पटरी पर सर्दी में अपनी तक़दीर को रोए दूजा जुल्फ़ों की छाया में सुख की सेज पे सोए राज सिंहासन पर इक बैठा और इक उसका दास भए कबीर उदास   ऊंचे ऊंचे ऐवानों में मूरख हुकम चलाएं क़दम क़दम पर इस नगरी में पंडित धक्के खाएं धरती पर भगवान बने हैं धन है जिनके पास भए कबीर उदास   कल तक जो था हाल हमारा हाल वही है आज ‘जालिब’ अपने देस में सुख का काल वही है आज फिर भी मोची गेट पे लीडर रोज़ करे बकवास भए कबीर उदास

रविवार, 13 नवंबर 2011

यहां से कोई न्यूटन नहीं बन जाने वाला

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार


बीते शुक्रवार शिक्षा दिवस था यानी आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद की जन्मतिथि। इसी दिन एक अखबार में खबर छपी कि झारखंड में लेक्चरर पात्रता परीक्षा (जेट) में अंकों में फेरबदल करके 100 ऐसे लोगों को नियुक्ति दे दी गई जो इसके पात्र ही नहीं थे। बाकी नियुक्तियों में भी घपलेबाजी हुई। यह मामला सिर्फ झारखंड तक सीमित नहीं है। देश में हर जगह, लगभग हर विश्वविद्यालय और महाविद्यालय में यही हो रहा है। और इसका नतीजा भी सामने है। ह्यूमन रिसोर्स एंड स्टाफिंग एजंसी टीमलीज सविर्सेज की रिपोर्ट में कहा गया है कि 90 फीसदी भारतीय युवा रोजगार के लायक नहीं हैं। इसकी इंडिया लेर रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 90 फीसदी जाब्स स्किल बेस्ड हैं जो खेती, मत्स्य पालन, निर्माण आदि क्षेत्रों में निकलते हैं। ग्रेजुएट होने वाले 90 फीसदी युवाओं की जानकारी सिर्फ किताबी होती है और इसीलिए उनमें रोजगारयोग्यता नहीं होती। नतीजा यह होता है कि या तो इन लोगों जाब ही नहीं मिलती और मिलती भी है तो बहुत कम सेलरी पर। भारत में सामान्य ग्रेजुएट की सालाना औसत सेलरी 75000 रुपए है। यानी सवा छह हजार रुपए मासिक। रिपोर्ट में कहा गया कि यदि भारत में शिक्षा का यही हाल रहा तो भले ही जीडीपी के आंकड़े कुलांचे भरते रहें लेकिन भारत विकसित देशों की कतार में नहीं खड़ा हो पाएगा। मुझे पिछले साल का एक वाकया याद आ रहा है। आप भी सुनिए...
मेरे एक मित्र एक प्रतिष्टित विश्विद्यालय में फिजिक्स पढ़ाते हैं। अगस्त का महीना था और मैं उनसे मिलने उनके विभाग गया। 11 बजे से बीएससी प्रथम वर्ष के छात्रों का प्रैक्टिकल क्लास था जो उनके जिम्मे था। उनके साथ एक और लेक्चरर थे। करीब 40 बच्चे और दो शिक्षक। उन्होंने मुझसे कहा कि क्लास में चलते हैं, वहीं बीच में चाय पी लेंगे। मुझे भी उत्सुकता हुई कि देखें, 25 साल पहले जब हम बीएसएसी प्रथम वर्ष में थे, तबके छात्रों और आज के छात्रों में क्या अंतर है। मैं खुशी-खुशी उनके साथ हो लिया। प्रैक्टिकल क्लास लगभग 20-22 छात्र ही थे। मेरे मित्र ने उन सबकी अटेंडेंस भरी और साथ-साथ परिचय भी लिया। कोई भी छात्र 80 फीसदी से कम अंक वाला नहीं था। हमारे समय में यह सीमा 60 फीसदी होती थी। फिर उन्होंने बातचीत शुरू की और पूछा वर्नियर कैलीपर्स और स्क्रूगेज से रीडिंग लेना किस-किस को आता है। मुझे लगा कि सबको आता ही होगा क्योंकि मेरे समय में शिक्षक यह मानकर चलते थे कि प्रथम श्रेणी में 12वीं पास करने वाले छात्रों को यह तो आता ही होगा और अधिकतर को आता ही होता था। लेकिन यह क्या? एक भी छात्र या छात्रा ने हाथ नहीं उठाया। मेरे लिए यह चौंकाने वाली बात थी लेकिन मेरे मित्र ने शांत भाव से अगला सवाल पूछा, किस-किस ने वर्नियर कैलीपर्स देखा है? यह क्या सिर्फ चार ने हाथ उठाया। यह और ज्यादा चौंकाने वाली बात थी। मैं चुपचाप देख-सुन रहा था और सोच रहा था कि फिर इन बच्चों ने 80 फीसदी अंकों के साथ 12वीं पास कैसे किया होगा। इसी बीच, जिन लेक्चरर साहब की ड्यूटी थी, वे उठे और मुझसे कहने लगे कि चलिये स्टोर में बैठते हैं, वहीं चाय मंगाई है। मेरे मित्र ने कहा कि तुम लोग चलो, मैं इन सबको कुछ असाइनमेंट देकर आता हूं। वे वर्नियर कैलीपर्स और स्क्रूगेज से रीडिंग लेना सिखा रहे थे। हम स्टोर में जाकर बैठे। करीब 15 मिनट बाद चाय भी आ गई। लेक्चरर साहब ने लैब असिस्टेंट से कहा कि जाकर डाक्टर साहब (मेरे मित्र) को बता दो कि चाय ठंडी हो रही है। असिस्टेंट गया और बता कर आ गया। लेकिन डाक्टर साहब नहीं आए। वे छात्रों के साथ व्यस्त थे। लेक्चरर साहब थोड़ी देर बाद खीझ कर बोले, हम लोग तो अपनी चाय ठंडी न करें। डाक्टर साहब तो आज ही सबकुछ पढ़ा देंगे। अरे भाई, जब छात्र पढ़ना नहीं चाहते तो बेकार में उनके साथ मगजमारी करने से क्या फायदा। डाक्टर साहब बहुत झक्की हैं। आप तो इनके मित्र हैं, इनको समझाइए कि ये इतनी मेहनत कर देंगे तो भी यहां से कोई न्यूटन या आइंसटीन नहीं बन जाने वाला। इतना क्या कम है कि हम अपना सिलेबस पूरा कर दें। अब समझना छात्रों की जिम्मेदारी है, वे चाहें तो समझें और चाहें तो न समझें। चाय खत्म हो गई। हमने उनसे विदा ली और अपने मित्र डाक्टर साहब से भी। मेरी समझ में आने लगा था कि क्या अंतर आया है तब में और अब में।

औऱ अंत में...

लोक कवि त्रिलोचन शास्त्री (1917-2007) हिंदी कविता में सानेट के जनक माने जाते थे। उन्होंने सानेट में जितने प्रयोग किए उतने शायद स्पेंसर, मिल्टन और वर्ड्सवर्थ जैसे कवियों ने भी नहीं किए थे। उनका एक सानेट पढ़िए-

सह जाओ आघात प्राण, नीरव सह जाओ
इसी तरह पाषाण अद्रि से गिरा करेंगे
कोमल-कोमल जीव सर्वदा घिरा करेंगे
कुचल जाएंगे और जाएंगे। मत रह जाओ
आश्रय सुख में लीन। उठो। उठ कर कह जाओ
प्राणों के संदेश, नहीं तो फिरा करेंगे
अन्य प्राण उद्विग्न, विपज्जल तिरा करेंगे
एकाकी। असहाय अश्रु में मत बह जाओ।

यह अनंत आकाश तुम्हे यदि कण जानेगा
तो अपना आसन्य तुम्हे कितने दिन देगा
यह वसुधा भी खिन्न दिखेगी, क्षण जानेगा
कोई नि:स्वक प्राण, तेज के कण गिन देगा
गणकों का संदोह, देह व्रण जानेगा
और शून्य प्रासाद बनाएगा चिन देगा

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

ठीक से काम न करने का भी पैसा, है न मजेदार बात!

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार



पिछले हफ्ते ट्रेन से गया जा रहा था। हरिद्वार-शालीमार स्पेशल ट्रेन से। ट्रेन के लखनऊ स्टेशन पर समय से पहुंचने की घोषणा हो रही थी। जब ट्रेन के आने का निर्धारित समय हो गया तो घोषणा की जाने लगी कि यात्रीगण कृपया ध्यान दें, ट्रेन संख्या 08044 जो हरिद्वार से चलकर वाया मुरादाबाद, लखनऊ शालीमार जा रही है, कुछ ही समय में प्लेटफार्म संख्या एक पर आ रही है। यह घोषणा पूरे 20 मिनट तक होती रही जबकि इस दौरान ट्रेन के आने व रवाना होने का निर्धारित समय बीत गया। ट्रेन आयी। अंदर पहुंचे। हमने सोचा था कि ट्रेन में श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास बिश्रामपुर का संत पढ़कर खत्म कर देंगे। लेकिन ट्रेन में जो बर्थ हमें मिली, उसकी रीडिंग लाइट ही नहीं जल रही थी। आसपास की बर्थ खाली थीं। लिहाजा हम दूसरे पर शिफ्ट होने के लिए टीटी से बात की। लेकिन यह क्या, उस कूपे में एक भी बर्थ की रीडिंग लाइट नहीं जल रही थी। सफाई का आलम यह कि बर्थ पर स्वागत के लिए काक्रोचों के साथ कीड़े-मकोड़ों की पूरी फौज मौजूद थी। किसी तरह उनको बर्थ से नीचे उतारा और अपना कब्जा जमाने के लिए रेलवे प्रदत्त पैकेट से चादर निकालकर बिछाने का उपक्रम शुरू किया। देखा तो चादर धुली हुई नहीं थी। उपयोग की जा चुकी चादर को फिर से तह करके पैकेट में रख दिया गया था।
मेरे सामने वाली बर्थ पर एक भाई साहब और थे जो किसी कृषि कंपनी में रिसर्च अधिकारी थे। गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि, पंतनगर (उत्तराखंड) से पीएचडी करने के बाद वे निजी क्षेत्र में आ गए थे। उनकी चिंता थी कि क्या यह ट्रेन सुबह अपने निर्धारित समय पर गया पहुंच जाएगी। उन्होंने टीटी से पूछा। टीटी का जवाव था, सर ठीक से चलती रहेगी तो पहुंच जाएगी। सामने वाले भाईसाहब झुंझलाए और झुंझलाहट में मुझे गणित जुड़वाने लगे। उन्होंने शुरू किया, भाईसाहब क्या आप जानते हैं कि अपने देश के सरकारी विभाग ऐसी जगहें हैं जहां काम करने वालों को ठीक से काम न करने का अतिरिक्त भुगतान होता है। ट्रेन को टाइम से चलाना रेलवे के कर्मचारियों की मूल जिम्मेदारी है। ट्रेन लेट हो जाने का मतलब है कि रेलवे के कर्मचारियों ने अपनी मूल जिम्मेदारी नहीं निभाई। ट्रेन लेट होने पर इन कर्मचारियों से जवाबतलब होना चाहिए लेकिन होता इसका उलटा है और ट्रेन लेट होने पर कर्मचारियों को ओवर टाइम यानी ओटी मिलता है। देश में रोज लगभग 50 हजार ट्रेनें चलती हैं और इन पर तीन करोड़ लोग यात्रा करते हैं। यदि ट्रेन लेट होने की वजह से इन तीन करोड़ लोगों का रोजाना औसतन एक घंटा खराब हुआ तो रोजाना तीन करोड़ मानव घंटे बेकार गए। यदि हम न्यूनतम मजदूरी दर ही लें तो रोजाना काम के आठ घंटे के हिसाब से हर घंटा न्यूनतम 15 रुपए का बैठा। यानी रोजाना 45 करोड़ का नुकसान और महीने में यह नुकसान हुआ 1350 करोड़ का। साल में यह नुकसान बैठा 16200 करोड़ रुपए। रेलतंत्र यह नुकसान कराने की एवज में अरबों का ओटी जिम्मेदार कर्मचारियों को बांटता होगा। भाईसाहब बोले जा रहे थे, एक हम लोग हैं रिजल्ट नहीं दिया तो वैरिएबल प्रोडक्टिविटी एलाउंस तो गया ही (यानी वेतन कम मिला), नौकरी भी खतरे में पड़ जाती है। मैं सोचने लगा कि यह गणित यदि हर सरकारी विभाग में लगाई जाए तो शायद हम पाएंगे कि हमारे सरकारी विभागों में जवाबदेही के अभाव और उनकी अकर्मण्यता की कीमत हम एक राष्ट्र के तौर पर अरबों-खरबों में रोजाना अदा करते हैं।
और अंत में
वीरेन डंगवाल पिछले दो दशक से हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। 1947 में उत्तराखंड में जन्मे वीरेन डंगवाल में नागार्जुन व त्रिलोचन का लोकतत्व और महाकवि निराला का फक्कड़पन एक साथ मौजूद है। उनकी कविताएं उड़िया, बांग्ला, पंजाबी, मराठी, मलयालम आदि भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी में भी अनूदित हुई हैं। यहां प्रस्तुत है उनकी एक कविता...

इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना

इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना

ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो

काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी

रविवार, 30 अक्तूबर 2011

बर्फ की सफेद चादर मोटी होती जा रही थी

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार


पिछले दो रविवार आपने कश्मीर को लेकर दो सच्ची कहानियां पढ़ीं और आज जो वाकया मैं आपसे साझा करने जा रहा हूं, वह और ज्यादा संवेदनशील है। हो सकता है कुछ लोगों को यह वाकया अच्छा न लगे। लेकिन सिर्फ अच्छी लगनी वाली चीजों से कश्मीर समझना संभव नहीं है, कड़वी चीजों को भी समझना पड़ेगा और उनसे निबटना पड़ेगा। इनको दबाकर रखेंगे तो नासूर बढ़ता ही जाएगा।
2002 की बात है। दीवाली निकल चुकी थी। नवंबर के आखिरी दिन चल रहे थे। हम लोग (मैं और मेरे दो साथी गुप्ता व शर्मा और ड्राइवर सोनू) सुबह करीब 10 बजे श्रीनगर से कंगन नाम के कस्बे को जाने के लिए निकले। कंगन पहुंचने के बाद हमने सोचा कि क्यों न सोनमर्ग तक हो आया जाए। लिहाजा आगे चल पड़े। आसमान पर धुंध थी, बादल थे। हम लोगों को भूख लग रही थी। सड़क किनारे तीन-चार दुकानें और नीचे की तरफ एक गांव दिखाई दिया। हम रुक गए कि शायद यहां खाने को कुछ मिल जाए। शाम के 3 बज रहे थे। उन दुकानों पर तो कुछ मिला नहीं लेकिन एक दुकानवाले ने बताया कि नीचे गांव में आपको पकौड़े और आमलेट मिल जाएगा। गांव से खाने का सामान लाने शर्माजी ड्राइवर को लेकर सड़क से नीचे उतर गए। मौसम थोड़ा खराब हो चला था। बादल धीरे-धीरे बर्फ के फाहे गिराने लगा था। थोड़ी दूर पर सड़क किनारे एक शेड था जिसमें बनीं दुकानें बंद थीं। वहां दो फौजी मुस्तैदी से खड़े थे। चलो इन फौजियों से बात की जाए, यह सोचकर हम शेड के नीचे पहुंच गए। फौजी हमसे मिलकर खुश हुए। उनमें से एक हरियाणा का रहने वाला था और दूसरा उत्तर प्रदेश का। हम लोग भी मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जो थे। हरियाणवी जवान हमारे परिवारों के बारे में बात करने लगा तो गुप्ता जी बताया कि उनकी शादी अभी नहीं हुई है। हम कश्मीर के बारे में उसकी समझ जानने के लिए सवाल करने लगे। तभी शाम की चाय बांटता फौजी ट्रक शक्तिमान वहां से गुजरा। उन जवानों ने अपने गिलास निकाले और चाय लेकर हमें दे दी कि पीजिए साहब, इस बर्फबारी में आगे दूर तक चाय न मिलेगी न इस तरफ न उस तरफ। शक्तिमान चला गया। तभी दूर से 12-13 साल की एक बच्ची सिर पर लकड़ियों का गट्ठर उठाए हुए आती दिखाई दी। उसके साथ 8-9 साल का एक बच्चा भी था। फौजियों ने भी उनको देखा फिर गुप्ताजी से पूछा आपने शादी क्यों नहीं की अब तक? गुप्ताजी कोई जवाब देते, उससे पहले ही हरियाणवी जवान ने कहा कि लड़की पसंद कर लीजिए और ठीक लगे तो शादी कर लीजिए। इस पर गुप्ताजी ने चुहुल की कि लड़की मिलती ही कहां है जो पसंद करूं और शादी करूं। गुप्ताजी का यह कहना था और जवान का जवाब आया कि अभी लड़की दिला देते हैं। तब तक लकड़ी का गट्ठर लिए वह बच्ची और पास आ चुकी थी। बच्ची का चेहरा भावविहीन था। वह बहुत तेजी से चल रही थी दूसरी तरफ देखते हुए। जैसे वह जल्दी से उस जगह को पार कर लेना चाह रही हो। जवान आगे बढ़ा और बच्ची का हाथ पकड़ लिया। फिर कहा, सर इसे ले जाइए उधर और पसंद कर लीजिए। बच्ची कांप रही थी और उसके साथ का बालक डरी नजरों से कभी हमें देखता, कभी उस बच्ची को जो शायद उसकी बड़ी बहन थी। हमने जवान को डांटा कि ये क्या बदतमीजी है और बच्ची का हाथ छोड़ने को कहा। जवान ने हाथ तो छोड़ दिया लेकिन हमें समझाने लगा कि डरते क्यों हैं सर, यहां कोई कुछ बोल नहीं सकता।...बर्फबारी तेज हो चुकी थी और आसपास के पेड़ों व सड़क पर बर्फ की सफेद चादर मोटी होती जा रही थी।
वापस श्रीनगर आते हुए मैं सोचता रहा कि उस बच्ची और नन्हें बालक के दिल-दिमाग में क्या चल रहा होगा। आप भी सोचिए उन बच्चियों और बालकों के दिल बनकर। इसकी भी जरूरत है कश्मीर को क्योंकि कश्मीर सिर्फ धरती का टुकड़ा नहीं, बल्कि हमारे-आप जैसे चलते-फिरते लोगों से है जिनके पास हमारी-आपकी तरह दिल भी है और दिमाग भी।

और अंत में....

कश्मीर में 16वीं सदी में छोटे से गांव चंद्रहार के एक साधारण परिवार में एक बच्ची पैदा हुई जो चांद की तरह खूबसूरत थी, लिहाजा उसके अब्बा ने उसका नाम रखा जून। जून का अर्थ होता है चांद। जून को गीत अच्छे लगते थे और उसने बहुत कम उम्र में गीत बनाने शुरू कर दिए। वह उन्हें लिखना भी चाहती थी लिहाजा गांव के मौलवी से कश्मीरी लिखना सीखा। जब वह बड़ी हुई तो उसके अब्बा ने अपने जैसे ही एक परिवार में उसका विवाह कर दिया। शौहर अनपढ़ था, उसे जून की शायरी समझ में न आती। जून उदास रहती और उदासी के प्रेमगीत रचती। एक दिन वह उदासी का ही कोई गीत गुनगुना रही थी कि उधर से एक घुड़सवार नौजवान गुजरा। उसके कानों में जून की आवाज पड़ी। उसने जून को अपने पास बुलाया। एक ही नजर में मोहब्बत हो गई। उसने जून की दास्तां सुनने के बाद सबकी रजांमंदी से जून का तलाक करवाया और खुद जून से निकाह कर लिया। यह नौजवान युसुफ शाह चक बाद में कश्मीर का राजा बना और हब्बा खातून की शायरी के चर्चे दूर-दूर तक फैलने लगे, पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। सन् 1579 में मुगल बादशाह अकबर ने युसुफ शाह को दिल्ली बुलवाया। युसुफ दोबारा हब्बा के पास वापस कभी नहीं लौटा। उसे बादशाह ने जबरदस्ती बिहार में एकांतवास में डाल दिया। हब्बा विरह की शायरी में डूब गई। वह झेलम के किनारे विरह के गीत गाते हुए भटकती। कुछ दिन बाद उसकी मौत हो गई। आज भी श्रीनगर के पास अथावजान में हब्बा खातून की मजार है। कश्मीर में आज भी हब्बा खातून के गीत आपको सुनने को मिल जाएंगे। फिलहाल तो पढ़िए मूल कश्मीरी भाषा से अनूदित हब्बा खातून का एक उदास गीत-


मैं पिघल रही हूं ऐसे
कि जैसे बर्फ पिघलती है सूरज की तपिश पर
पूरे शबाब पर है मेरा यौवन
फिर तुम दूर क्यों हो मुझसे...
मैंने तुम्हें पहाड़ों पर ढूंढ़ा
और ढूंढ़ा पहाड़ की चोटियों पर
मैंने तुम्हें झरनों में ढूंढ़ा
और ढूंढ़ा नदियों की लहरों में
सजाए दस्तरख्वान भी तुम्हारे लिए
फिर तुम दूर क्यों हो मुझसे..
मैं आधी रात तक दरवाजे खुले रखती हूं
आओ बस एक बार आओ मेरे सरताज
क्या भूल गए हो राह मेरे दर की
तुम दूर क्यों हो मुझसे..

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

हम यहीं अच्छे हैं सर?

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार



आज दूसरी कहानी....2002 की बात है. जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने वाले थे. मैं अकसर जम्मू से श्रीनगर जाता रहता था. आतंकवाद चरम पर होने की वजह से अच्छे होटल अति महंगे थे और सामान्य होटलों में डर लगता था. हमें तलाश थी सस्ती और सुरक्षित रिहाइश की. इसी दौरान हमें पता चला कि हमारी टीम में घर-घर जाकर अखबार बुक करने के लिए जो लड़के रखे गये हैं, उनमें से एक हाउसबोट वाला है. हाउसबोट में उस समय कोई नहीं ठहरता था. क्यों? क्योंकि बाहर के लोगों का कहना था कि ये हाउसबोट वाले आतंकवादियों को पनाह देते हैं. इसलिए इनमें ठहरना खतरे से खाली नहीं है. नब्बे के दशक में कुछ वारदातें-मुठभेड़ें भी डल झील में हुई थीं. लोग उनके उदाहरण पेश कर देते थे. 12-13 साल के आतंकवाद से हाउसबोट वालों की माली हालत खस्ता हो चली थी. हमने उस लड़के से बात की. 20-21 साल का तीखे नाक-नक्श का गोरा-चिट्टा नौजवान. उसे देख कर जब जब फूल खिले फिल्म के हीरो शशि कपूर की याद आ जाये, तो किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए। उसका नाम था करना. करना ने बताया कि उसके पापा की तीन कमरों वाली एक हाउसबोट है. कश्मीर में सालों से मेहमान नहीं आ रहे हैं, लिहाजा इनकम बंद है. बचत का पैसा खत्म हो गया है. उसके सामने कोई भी छोटी-मोटी नौकरी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. हमने उससे पूछा कि हाउसबोट में कोई खतरा तो नहीं है. उसने कहा, खतरा किस बात का, हम तो वहीं रहते हैं. हमने कमरों का किराया पूछा तो उसने कहा, साहब कोई आता ही नहीं है, इसलिए रेट मुझे भी नहीं पता. पापा से पूछ कर बताऊंगा। अगले दिन उसने रेट बताया और हम उसकी हाउसबोट के नियमित ग्राहक हो गये. जब रात में वह अंगीठी लगाने हमारे कमरे में आता था, हम उससे बात करके यह समझने की कोशिश करते कि उसकी पीढ़ी कश्मीर मसले और वहां चल रहे आतंकवाद को कैसे देखती है. करना बताता कि कैसे उसका बचपन बहुत सुख-सुविधाओं से लैस था, उसके पापा अमीर हाउसबोट वालों में गिने जाते थे. वह शहर के नामी कान्वेंट में पढ़ता था, तभी एक दिन न जाने क्या हुआ कि स्कूल के गेट बंद कर दिए गये. आगे की कहानी उसी के शब्दों में....
बच्चों को कहा गया कि बाहर हड़ताल हो गयी है. सबके मां-बाप आकर ही बच्चों को ले जायेंगे. करना भी वहीं था. 10 साल का करना. दुनियादारी और सियासत से बेखबर. कुछ दिन बाद स्कूल में बेमियादी बंदी हो गयी. जब-तब श्रीनगर की सड़कों पर, बोलिवार्ड (डल झील के किनारे की सड़क) पर बड़े-बड़े जुलूस निकलते जिनकी अगुवाई एक नौजवान (यासीन मलिक) करता था. किशोर, युवा और बच्चे भी जुलूस देख कर रोमांचित होते थे. वे भी इसमें शामिल होते, नारे लगाते और अपने जोश के सहारे जुलूस के आगे-आगे चलने की कोशिश करते. धीरे-धीरे यह जोश उस युवक (यासीन मलिक) की ताकत में तब्दील हो गया. तमाम तरह की बातें फिजां में थीं कि कश्मीर आजाद हो जायेगा, हमारा अपना वतन होगा, पाकिस्तान के रास्ते खुल जायेंगे, उस तरफ के कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर) में भी हम जा सकेंगे. इस बीच उग्रवादी घटनाएं बढ़ने लगीं। फौज और बीएसएफ के ट्रक के ट्रक श्रीनगर में दिखाई देने लगे. पापा हमें बाहर जाने से रोकते. बाहर से जो मेहमान आते थे वे आना बंद हो गये और अब उनकी जगह फौजी वर्दी ने ले चुकी थी. आतंकवादी गुटों में स्थानीय लोग शामिल होने लगे थे. हाऊसबोट का धंधा बंद हो चुका था, लिहाजा हाउसबोट वालों के यहां के नौजवान खाली थे. उनमें से कुछ लड़के आतंकी गुटों के संपर्क में आये और गन लेकर आते थे और उन्हें डल के पानी में डाल देते थे. मेरे पापा और दूसरे लोग उनको समझाने की कोशिश करते तो वे कहते चुप रहो, आजादी आने वाली है. ये लड़के रात को कई हथियारबंद लोगों को लेकर आते और उनको हाउसबोटों में छिपाते, उनके हथियार पानी में छिपा देते. अधिकतर हाउसबोट वालों के आसपास हथियार पानी में छिपाये हुए थे. हम लोग न तो आर्मी या बीएसएफ को बता सकते थे और न आतंकियों को मना कर सकते थे. एक बार मेरे पापा ने मना किया था, मैं भी था वहां. कैसी-कैसी धमकियां और गालियां उन लोगों ने मेरे पापा को सुनायीं. एक बार तो बीएसएफ को पता चल गया कि एक हाउसबोट में एक पाकिस्तानी आतंकी छिपा हुआ है. सर्दियों के दिन थे. रात में डल के पानी पर बर्फ की पपड़ी जम जाती थी. बीएसएफ ने शाम ढलते ही डल की घेराबंदी शुरू कर दी. अंधेरा छा चुका था, बिजली होती नहीं थी. शिकारों पर बैठ कर बीएसएफ ने उस हाउसबोट की ओर बढ़ना शुरू किया जिसमें पाकिस्तानी छिपा था. हम लोग सहमे हुए अपनी हाउसबोट में थे कि आज की रात न जाने क्या होगा. तभी फायरिंग शुरू हो गयी. 10 मिनट बाद एक घायल आदमी हाथ में एक एके राइफल और एक बड़ा झोला लिए हुए हमारी हाउस बोट में आया. अंधेरा था, बिजली थी नहीं. हमारी हाउसबोट और उस हाउसबोट के बीच 9-10 हाउसबोट थीं. हम लोग डर गये. उसने कहा कि उसको छिपने की जगह चाहिए. हम लोग कांप गये. हमें लगा कि यदि यह आदमी यहां रुका तो बीएसएफ वाले हमारी हाउसबोट जला देंगे. हम उस आदमी को मना भी नहीं कर सकते थे क्योंकि फिर वह हमें भून देता. पापा ने उससे कहा कि यहां छिपने से अच्छा है कि पीछे के रास्ते से डल से निकल जाये. यहां तो बीएसएफ वाले आ ही जायेंगे. उसकी कुछ समझ में आया और वह अपने हाथ के झोले को डल में फेंक कर बोला, ये झोला बाद में ले जायेंगे. मुझे रास्ता दिखाओ. बाद में जब उसे छोड़ कर पापा लौटे तो किरोसिन लैंप के उजाले में हमने देखा कि हमारी हाउसबोट तक खून की बूंदें थीं और फिर जाने वाले रास्ते की तरफ भी. उस ठंड में हम सबने बर्फानी पानी से खून की बूंदें धोयीं. मैंने करना से पूछा कि आज वह क्या महसूस करता है. उसने कहा, हम तो कंगाल हो गये. अमन आये तो सैलानी आयें और हमारी जिंदगी पटरी पर आयें. हमने पूछा, आजादी? उसने कहा कि हम यहीं अच्छे हैं  सर. इस किस्से से शायद हम सबको कश्मीर समझने में कुछ मदद मिले. अगली कहानी, अगले रविवार....


और अंत में.
..
कश्मीर के विस्थापित कवि, अग्निशेखर दूर रहते हुए भी कश्मीर को अपने दिल से कभी जुदा ना कर सके. आतंक और आक्रमण के साये में अपनी धरती-अपने लोगों से प्यार और दर्द को अपनी धड़कनों से कविता में उतारने वाले अग्निशेखर की एक कविता...

हिजरत

जब मेरी उपस्थिति
मेरे न होने से बेहतर
लगने लगे
जब मैं एक भी शब्द कहने से पहले
दस बार सोचूं
जब बच्चे की सहज किलकारी तक से
पड़ता हो किसी की नींद में खलल
और जब दोस्तों के अभाव में
करना पड़े एकांत में
किसी पत्थर के साथ सलाह-मशवरा
तब मैं पड़ता हूं संघर्ष में अकेला
और सघन अंधेरे में दबे पांव
करता हूं शहर से हिजरत
(हिजरत का अर्थ होता है अपना वतन छोड़ कर दूसरे वतन में जा बसना)

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

वह लकड़ी, मिट्टी और अखरोट लेकर आया


यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार



कश्मीर को लेकर एक बार फिर चर्चाएं सतह पर हैं...प्रशांत भूषण, अरुंधति राय से लेकर बाल ठाकरे तक। जम्मू-कश्मीर को लेकर सबके अपने चश्मे हैं और उन चश्मों को उतार कर कश्मीरियों की आंखों से कश्मीर को देखने को कोई तैयार ही नहीं होता। इस राज्य के चप्पे-चप्पे में इतनी मार्मिक कहानियां बिखरी हुई हैं और रोज घटती भी रहती हें। इन कहानियों को एक ही चश्मे से देखने की जरूरत है और वह चश्मा है इंसानी चश्मा। मैं उस समय जम्मू-कश्मीर में रहा हूं जब वहां आतंकवाद अपने चरम पर था और शांति प्रक्रिया भी चरम पर। युद्धोन्माद और लोकतंत्र की जय के नारे भी चरम पर। लेकिन इन सबके साथ वहां के लोगों की जिंदगी को समझे बिना कोई भी धारणा बनाना शायद ठीक नहीं होगा। मैं यहां तीन कहानियां देना चाहता हूं। आज पहली कहानी। यह कहानी मैं पहले एक ब्लाग पर लिख चुका हूं लेकिन मुझे लगता है कि जम्मू-कश्मीर की मानवीय त्रासदी का यह कहानी बेहतरीन प्रतिबिंब है। इसलिए इसे दोबारा देने की धृष्टता कर रहा हूं....
 यह कहानी है एक कश्मीरी पंडित बच्चे की जो कश्मीर से विस्थापित माता-पिता के साथ जम्मू में रहता था। उसके मां-बाप 1990-91 में कश्मीर से भागकर जम्मू आए थे। यह बच्चा उस समय मां की गोद में था। पिता उसे अनंतनाग स्थिति अपने मकान और खेतों के बारे में लगातार बताते रहते थे। बच्चा धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। अपने पिता के बचपन, दक्षिणी कश्मीर खासतौर पर अनंतनाग जिले का विवरण उसे आकर्षित करता था। जब वह 10 साल का हुआ तबसे उसने अनंतनाग जिले के अपने मकान को देखने की जिद शुरू की। पिता उसे किसी न किसी बहाने टालते रहते थे। वह बच्चा अपने मां-पिता और रिश्तेदारों से अपने मूल स्थान (दक्षिणी कश्मीर) से जुड़े किस्से सुनते-सुनते 7वीं कक्षा में गया। वह अपनी जमीन छूना चाहता था, अपने मकान को देखना चाहता था, वहां के चश्मों के पानी से खेलना चाहता था। कच्चे अखरोट से अपने हाथों पर कलाकारी करना चाहता था (कच्चा अखरोट घिसने पर लाल रंग छोड़ता है और यदि आप उसे हाथ पर घिसें तो लगता है जैसे मेंहदी लगा ली हो)। धीरे-धीरे उसका धैर्य जवाब देने लगा या यह कहें कि जन्मभूमि का आकर्षण धैर्य पर भारी पड़ना शुरू हो गया। एक दिन वह रोजाना की तरह घर से स्कूल के लिए निकला। जेब में अपनी बचत के सारे पैसे (करीब 250 रु.) लेकर। उसने तय कर लिया था कि आज वह अपने पुश्तैनी घर जाएगा जरूर। काफी देर तक वह जम्मू के बसअड्डे पर बैठा रहा। करीब 11 बजे उसने अपना इरादा और हिम्मत और पक्की की, बैठ गया अनंतनाग जाने वाली बस में। बस्ता साथ में था और उसमें लंच बाक्स। उसने पता कर लिया था कि अनंतनाग से कहां की बस पकड़नी होगी। शाम को बस अनंतनाग पहुंची। वहां से उसने अपने गांव जाने वाली बस पकड़ ली। आखिरी बस थी सो 15-20 यात्री ही उसमें थे। उधर, जम्मू में जब बच्चा शाम को घर नहीं पहुंचा तो माता-पिता चिंतित हुए। स्कूल से पता किया तो पता चला कि वह बच्चा तो आज स्कूल ही नहीं गया। पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। फिर मां-बाप ने सोचा, अखबारों में इश्तहार भी दें दें। तो वे हमारे अखबार के दफ्तर भी आए। वहां गांव वाली बस में एक व्यक्ति ने उस अकेले बच्चे को देखा तो उत्सुकतावश पूछ लिया कहां जाना है। बच्चे ने गांव का नाम बताया। उस व्यक्ति को बच्चे की शक्ल अपने उस पड़ोसी से मिलती-जुलती लगी जो 1991 में गांव छोड़कर चले गए थे। व्यक्ति ने बच्चे से पिता का नाम पूछा तो कनफर्म हो गया कि उन्हीं का बच्चा है। उस व्यक्ति ने पूछा बेटा अकेले क्यों आए। तो बच्चे ने वजह बता दी। वह व्यक्ति बच्चे को अपने साथ ले गया अपने घर। सुबह उसने जम्मू फोन करके बताया कि बच्चा उनके पास घर में है, वे चिंता न करें और यहां आकर बच्चे को ले जाएं। बच्चा जब लौटकर जम्मू आया तो अपने साथ लाया था अपने जले घर में बच गई लकड़ी के टुकड़े, थोड़ी सी मिट्टी और कुछ अखरोट !


और अंत में...
धूमिल की एक कविता...
मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?