मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

वह लकड़ी, मिट्टी और अखरोट लेकर आया


यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार



कश्मीर को लेकर एक बार फिर चर्चाएं सतह पर हैं...प्रशांत भूषण, अरुंधति राय से लेकर बाल ठाकरे तक। जम्मू-कश्मीर को लेकर सबके अपने चश्मे हैं और उन चश्मों को उतार कर कश्मीरियों की आंखों से कश्मीर को देखने को कोई तैयार ही नहीं होता। इस राज्य के चप्पे-चप्पे में इतनी मार्मिक कहानियां बिखरी हुई हैं और रोज घटती भी रहती हें। इन कहानियों को एक ही चश्मे से देखने की जरूरत है और वह चश्मा है इंसानी चश्मा। मैं उस समय जम्मू-कश्मीर में रहा हूं जब वहां आतंकवाद अपने चरम पर था और शांति प्रक्रिया भी चरम पर। युद्धोन्माद और लोकतंत्र की जय के नारे भी चरम पर। लेकिन इन सबके साथ वहां के लोगों की जिंदगी को समझे बिना कोई भी धारणा बनाना शायद ठीक नहीं होगा। मैं यहां तीन कहानियां देना चाहता हूं। आज पहली कहानी। यह कहानी मैं पहले एक ब्लाग पर लिख चुका हूं लेकिन मुझे लगता है कि जम्मू-कश्मीर की मानवीय त्रासदी का यह कहानी बेहतरीन प्रतिबिंब है। इसलिए इसे दोबारा देने की धृष्टता कर रहा हूं....
 यह कहानी है एक कश्मीरी पंडित बच्चे की जो कश्मीर से विस्थापित माता-पिता के साथ जम्मू में रहता था। उसके मां-बाप 1990-91 में कश्मीर से भागकर जम्मू आए थे। यह बच्चा उस समय मां की गोद में था। पिता उसे अनंतनाग स्थिति अपने मकान और खेतों के बारे में लगातार बताते रहते थे। बच्चा धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। अपने पिता के बचपन, दक्षिणी कश्मीर खासतौर पर अनंतनाग जिले का विवरण उसे आकर्षित करता था। जब वह 10 साल का हुआ तबसे उसने अनंतनाग जिले के अपने मकान को देखने की जिद शुरू की। पिता उसे किसी न किसी बहाने टालते रहते थे। वह बच्चा अपने मां-पिता और रिश्तेदारों से अपने मूल स्थान (दक्षिणी कश्मीर) से जुड़े किस्से सुनते-सुनते 7वीं कक्षा में गया। वह अपनी जमीन छूना चाहता था, अपने मकान को देखना चाहता था, वहां के चश्मों के पानी से खेलना चाहता था। कच्चे अखरोट से अपने हाथों पर कलाकारी करना चाहता था (कच्चा अखरोट घिसने पर लाल रंग छोड़ता है और यदि आप उसे हाथ पर घिसें तो लगता है जैसे मेंहदी लगा ली हो)। धीरे-धीरे उसका धैर्य जवाब देने लगा या यह कहें कि जन्मभूमि का आकर्षण धैर्य पर भारी पड़ना शुरू हो गया। एक दिन वह रोजाना की तरह घर से स्कूल के लिए निकला। जेब में अपनी बचत के सारे पैसे (करीब 250 रु.) लेकर। उसने तय कर लिया था कि आज वह अपने पुश्तैनी घर जाएगा जरूर। काफी देर तक वह जम्मू के बसअड्डे पर बैठा रहा। करीब 11 बजे उसने अपना इरादा और हिम्मत और पक्की की, बैठ गया अनंतनाग जाने वाली बस में। बस्ता साथ में था और उसमें लंच बाक्स। उसने पता कर लिया था कि अनंतनाग से कहां की बस पकड़नी होगी। शाम को बस अनंतनाग पहुंची। वहां से उसने अपने गांव जाने वाली बस पकड़ ली। आखिरी बस थी सो 15-20 यात्री ही उसमें थे। उधर, जम्मू में जब बच्चा शाम को घर नहीं पहुंचा तो माता-पिता चिंतित हुए। स्कूल से पता किया तो पता चला कि वह बच्चा तो आज स्कूल ही नहीं गया। पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। फिर मां-बाप ने सोचा, अखबारों में इश्तहार भी दें दें। तो वे हमारे अखबार के दफ्तर भी आए। वहां गांव वाली बस में एक व्यक्ति ने उस अकेले बच्चे को देखा तो उत्सुकतावश पूछ लिया कहां जाना है। बच्चे ने गांव का नाम बताया। उस व्यक्ति को बच्चे की शक्ल अपने उस पड़ोसी से मिलती-जुलती लगी जो 1991 में गांव छोड़कर चले गए थे। व्यक्ति ने बच्चे से पिता का नाम पूछा तो कनफर्म हो गया कि उन्हीं का बच्चा है। उस व्यक्ति ने पूछा बेटा अकेले क्यों आए। तो बच्चे ने वजह बता दी। वह व्यक्ति बच्चे को अपने साथ ले गया अपने घर। सुबह उसने जम्मू फोन करके बताया कि बच्चा उनके पास घर में है, वे चिंता न करें और यहां आकर बच्चे को ले जाएं। बच्चा जब लौटकर जम्मू आया तो अपने साथ लाया था अपने जले घर में बच गई लकड़ी के टुकड़े, थोड़ी सी मिट्टी और कुछ अखरोट !


और अंत में...
धूमिल की एक कविता...
मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?

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