मंगलवार, 30 अगस्त 2011

विधायिका को वंशबेल की जकड़न से निकालना होगा




राजेंद्र तिवारी
अन्ना हजारे का अनशन खत्म हो गया है। अन्ना का कहना है कि इस सत्याग्रह से आयी जागृति को बनाए रखना, नींद नहीं आने देना। 26 जनवरी 1950 को जब संविधान लागू हुआ तो लोगों को देश का हुकूमत का मालिकाना हक मिला। हमने अपने देश की तिजोरी की रक्षा और उसके बेहतर इस्तेमाल के लिए जनप्रतिनिधियों को अपना ट्रस्टी बनाकर संसद और विधानसभाओं में भेजा। फिर हम निश्चिंत हो गए, हम सो गए। इन ट्रस्टियों ने, हमारे सेवकों ने लोकहित-देशहित को छोड़कर पहले पार्टीहित, फिर निजहित और फिर परिवार हित को तवज्जो देना शुरू कर दिया। मालिक (हमलोग) फिर भी सोया रहा तो हमारी तिजोरी की भी बंदरबांट शुरू हो गई। इसीलिए अन्ना कह रहे हैं कि जागृति को बनाए रखना है। आंदोलन खत्म नहीं, शुरू हुआ है। हम में से कई के दिमाग में सवाल उठ रहा होगा कि 12 दिन के अन्ना के अनशन से क्या होने वाला? क्या अन्ना के तीन बिंदुओं के लोकपाल बिल में शामिल होने से भ्रष्टाचार मिट जाएगा? कई के दिमाग में यह बात भी होगी कि लोगों ने सबक सिखा दिया नेताओं को, सब कुछ सुधरने लगेगा। बड़ा सवाल है यह कि इस आंदोलन से, इस अनशन से क्या सबक हमने व हमारे जनप्रतिनिधियों ने लिये और कैसे ये सबक जनतंत्र को मजबूत करने, जनप्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाने और लोकसभा-विधानसभाओं को आमजन की आकांक्षाओं का आइना बनाने में सहायक होंगे? लेकिन इससे पहले एक बात और...इस आंदोलन ने यह तो स्पष्ट ही कर दिया है कि भारत के लोग दुनिया के फलक पर छा जाने को तैयार हैं, भारत के लोग दुनिया को नेतृत्व देने की क्षमता रखते हैं। इन 12-13 दिनों ने दिखा दिया है कि लोकतंत्र के जिम्मेदार नागरिक कैसे होते हैं, यह दिखा दिया है कि हमारा लोकतंत्र संसद और विधानमंडलों में बैठे नेताओं के तंत्र की बदौलत नहीं बल्कि लोक (हम भारत के लोग) की बदौलत मजबूत और परिपक्व हो रहा है।
तो इस अनशन से क्या सबक हमें लेने चाहिए?
भ्रष्टाचार रोकने के लिए कड़ा कानून बनाने के लिए अन्ना का अनशन हमारे देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण का नतीजा है। इनमें जवाबदेही के खत्म हो जाने का नतीजा है। हमारे देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं कितना जनोन्मुखी हैं, इसका अंदाजा पिछले दिनों संसद के भीतर और बाहर चल रही सियासी गतिविधियों से लगाया जा सकता है। आम आदमी जानना चाहता है कि संविधान की रक्षा में लगी राजनीतिक पार्टियों व जनप्रतिनिधियों को नियम 193, 168 और 178 याद हैं लेकिन जनभावनाओं की चिंता क्यों नहीं? इनकी स्वार्थी-संकुचित दृष्टि। कांग्रेस और केंद्र ने कहा कि अन्ना का आंदोलन भाजपा और संघ प्रायोजित है तो भाजपा को लगा कि इसको हवा दो तो कांग्रेस कमजोर होगी और उनकी मुद्दाविहीन राजनीति को मुद्दा मिल जाएगा। किसी को कांग्रेस का सपोर्ट करने का मौका नजर आया तो किसी को विरोध का। क्या इनमें से किसी को यह भी लगा कि देश का आमजन हर सरकारी दफ्तर में चढ़ावे से परेशान है? आखिर हम इस मुकाम पर कैसे पहुंच गए? क्योंकि आमजन और शीर्ष राजनीतिकों व ब्यूरोक्रैसी के बीच संवादहीनता की स्थिति बन गई। लेकिन देश का पालिटिकल क्लास की चिंता शायद इन सवालों को लेकर नहीं हैं। इसे समझने के लिए संसद में शनिवार की बहस पर गौर करने की जरूरत है। सदनों में किसके भाषणों पर बोल-बोल कर सभी दलों के सांसद सहमति जताते नजर आए? जो पालिश्ड नेता हैं, वे बहुत संजीदगी दिखाते नजर आए लेकिन उनकी बातों में भी विवशता का भाव था न कि देश के जनमानस को स्वीकार करने का। उनके चेहरों पर इस बात की खुशी नहीं दिखायी दे रही थी कि वे जिनके प्रतिनिधि हैं, जिन जनों के तंत्र के कस्टोडिटन हैं, जिस भारत के लोगों के सेवक हैं, उनकी इच्छा को सदन में लाकर लोकतंत्र को और गौरवशाली बना रहे हैं। अलबत्ता, वे भाषण में जरूर कह रहे थे कि भारत की संप्रभु संसद के इतिहास में नया अध्याय जुड़ रहा है। मीडिया में कई जगह यह कहा गया कि इस आंदोलन ने संसद में गंभीर बहस की शुरुआत की लेकिन जरा इस बहस में हिस्सा लेने वाले उन भाषणों पर गौर करें जिन्हें बहुत चाव से सुना गया। जिनमें सांसद वक्ता के वाक्य को उल्लास-उत्साह पूर्वक अपनी तरफ से पूरा कर दे रहे थे। जी हां, मैं बात कर रहा हूं उन दो भाषणों की जिसमें कहा गया कि यहां बैठे लोग टोपी उछालना जानते हैं...यदि संसद इसी तरह झुकती रही तो हम सबके (जनप्रतिनिधियों) लिए बहुत मुश्किलें आएंगी। मतलब यह है कि हमारे देश का पालिटिकल क्लास (सत्ता वर्ग) अपनी सत्ता को बचाने के लिए संसद में एकजुट था कि पहले इस बवाल (भ्रष्टाचार) से निपट लिया जाए। और सबने बखूबी एकजुट होकर अपनी सत्ता बचा ली। इतना ही नहीं, सदन में सदस्यों ने धमकियां तक दी और आगाह किया कि यदि सरकार इस तरह झुकती रही तो जनप्रतिनिधियों को सदन के बाहर बहुत दिक्कत होगी।
पिछले कुछ दशकों के दौरान संसद में सिर्फ अपने भत्ते और वेतन बढ़ाने के प्रस्तावों पर ही इस तरह की एकजुटता नजर आती थी और जब अस्तित्व का संकट गहराने लगा तो शनिवार को फिर पूरा पालिटिकल क्लास एकजुट हो गया। सबने दुहाई दी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनप्रतिनिधि न खड़े होते तो 12 सांसदों की सदस्यता न जाती, इतने नेता भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में न बंद हुए होते। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और चाईंबासा के मौजूदा सांसद मधु कोड़ा का नाम भी लिया गया। यह भी गिनाया गया कि कैसे लालकृष्ण आडवाणी और शरद यादव ने हवाला कांड में नाम आने के बाद तब तक संसद सत्र में हिस्सा नहीं लिया जब तक वे आरोपमुक्त नहीं हो गए। एक ने कहा कि भ्रष्टाचार के जो मामले चल रहे हैं वे अन्ना टीम की वजह से नहीं बल्कि हम जनप्रतिनिधियों की वजह से चल रहे हैं। लेकिन यह कहने वाले क्या भूल गए कि मौजूदा लोकसभा में 162 सदस्य ऐसे हैं जिनपर हत्या, बलात्कार, लूट आदि जैसे आपराधिक मामले चल रहे हैं। क्या उनको सदन में वे लोग भी सीना तानकर बैठे हुए हैं जिनपर निजी हितों के लिए मंत्रिपद के दुरुपयोग का आरोप है। इस तरह अगर देखा जाए तो पालिटिकल क्लास ने यह सबक लिया कि अन्ना का आंदोलन उसके अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी है और आगे से ऐसे किसी आंदोलन को शुरु ही न होने दिया जाए। यह निष्कर्ष मेरा नहीं है बल्कि संसद में तमाम वक्ताओं ने अलग-अलग तरह से यह बात खुद कही है। मुझे बहुत खुशी होगी यदि यह निष्कर्ष गलत साबित हो जाए। पूरे देश के लिए इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा यदि इस आंदोलन से सबक लेकर पालिटिकल क्लास अपनी जिम्मेदारियों को समझने, भ्रष्ट आचरण से परहेज करने, जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करने, जवाबदेह बनने और लोकसेवक के तौर पर काम करने की दिशा में आगे बढ़ने का संकल्प ले रहा हो। लेकिन शनिवार को संसद में सांसदों की भाव-भंगिमा व व्यवहार से ऐसा लगा नहीं। ये कैसे जनप्रतिनिधि हैं जो आमजन की इच्छाओं का आइना बनने में फक्र नहीं महसूस करते बल्कि उनको लगता है कि यह उनकी संप्रभुता को चुनौती है। इन लोगों को जानना चाहिए और नहीं जानते हैं तो संविधान सभा का कार्यवाही को पढ़ना चाहिए कि संप्रभुता कहां से आई है और कहां निहित है। सिर्फ बाबा अंबेदकर और संविधान की दुहाई देने का नाम संप्रभुता नहीं है। इनको पता होना चाहिए कि संविधान में इंडिया दैट इज भारत क्यों लिखा गया और वहां से सीख लेनी चाहिए कि समावेशी लोकतंत्र क्या होता है।
अब बात करते हैं कि हम भारत के लोगों को क्या मिला। इस आंदोलन की सबसे बड़ी देन हम सबके अंदर यह आत्मविश्वास जगना कि संसद को अपनी बात सुनने पर मजबूर किया जा सकता है और वह भी बिना किसी हिंसा के। दरअसल, तमाम लोगों को जो भ्रष्टाचार के मुद्दे को तो अहम मानते हैं लेकिन इस बात को व्यवहारिक नहीं मानते थे कि अनशन या इस तरह के आंदोलन से पालिटिकल क्लास को जनता यानी आम आदमी की बात सुनने पर मजबूर किया जा सकता है। बहुत सारे लोग दिल से तो अन्ना के अनशन के साथ थे लेकिन उनका दिमाग तमाम तर्कों में उलझा हुआ था। लेकिन इस आंदोलन ने यह साफ कर दिया कि अपनी-अपनी जगह से भी आंदोलन किए जा सकते हैं। इसका असर आम जनजीवन पर भी है। सरकारी दफ्तरों में घूंस लेने में लोगों को थोड़ा संकोच का अनुभव हो रहा है और अब शायद ईमानदार कर्मचारियों की खिल्ली बनना भी बंद हो जाए। आमजन भी अपने को थोड़ा तकतवर पा रहा है रोजमर्रा के भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने को लेकर। लेकिन जैसा टीम अन्ना ने कहा, यह एक शुरुआत भर ही है। समावेशी लोकतंत्र की दिशा में भारत के लोगों की ओर से छोटा लेकिन दूरगामी परिणाम देने वाला कदम। अन्ना ने ठीक ही कहा है कि हम सो गए थे अपने लोकतंत्र की जिम्मेदारी कस्टोडियनों यानी पालिटिकल क्लास को देकर और उन्होंने धोखेबाजी की। जिस फेसबुक जमात यानी मौजूदा शहरी युवा की खिल्ली उड़ाई जा रही थी, उस जमात के बूते जब इतना हासिल हो गया तो यदि गांव-गांव तक यह जागरूकता फैल जाए तो अनुमान लगाइए कि क्या नहीं किया जा सकता। अलबत्ता, यह जरूर सुनिश्चित करना होगा कि यह जागृति अब मरने न पाए बल्कि व्यापकता लेती जाए।
इस घटनाक्रम को अनशन को सिर्फ जनलोकपाल विधेयक और उसके आयामों से जोड़कर ही नहीं बल्कि लोकभागीदारी की प्रक्रिया की शुरुआत के तौर पर देखा जाना चाहिए। अन्ना ने कहा भी है कि यह आंदोलन जारी रहेगा और अब अगला कदम होगा चुनाव सुधार। गवर्नेंस में लोकभागीदारी की यह प्रक्रिया वैसे तो हमारी संसद-विधानसभाओं और उसमें बैठे जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी और जवाबदेही है लेकिन वे इसमें विफल रहे हैं। संविधान के तहत बनाई गईं लोकतांत्रिक संस्थाएं लोक नहीं पालिटिकल क्लास की संस्थाएं बन गई हैं और हमारे समाज की सभी समस्याओं की जड़ यहीं पर है। सजग समाज इन स्थितियों में असहाय नहीं बल्कि उन लोगों को बदलने का काम करता है जो इन संस्थाओं को पंगु करने में लगे होते हैं। चुनाव सुधार की दिशा में जनांदोलन को ले जाने से इसकी शुरुआत होगी। जब आम लोगों के चुनाव में जीतने की संभावना बनेगी और बेटा-बेटियों, पत्नी-साला-साढ़ुओं, भाई-भतीजा से सदन मुक्त होंगे तो अपने आप बहुत कुछ सुधर जाएगा। पैट्रिक फ्रेंच की हाल में आई किताब इंडिया (एन इंटीमेट बायोग्राफी आफ 1.2 बिलियन पीपुल) में आंख खोलने वाले आकड़े हैं कि कैसे हमारा लोकतंत्र वंशबेलों में जकड़ गया है। इसके मुताबिक 156 लोकसभा सदस्य ऐसे हैं जो किसी न किसी नेता के बेटा-बेटी-भाई-बहन-पत्नी व परिजन है और सात राजे-महाराजे वाली पृष्ठभूमि के हैं। हम देश में युवा आबादी की बात करते हैं लेकिन लोकसभा में 30 वर्ष से कम उम्र के सभी सदस्य, 31 से 40 वर्ष के बीच के 65 फीसदी सदस्य किसी न किसी नेता की वंशबेल हैं। राज्यसभा की तो बात ही छोड़ दीजिए, वह तो है ही उपकृत करने के लिए। इस वंशबेल को बढ़ने से न सिर्फ रोकना होगा बल्कि इसको कतरना भी होगा।