मंगलवार, 8 नवंबर 2011

ठीक से काम न करने का भी पैसा, है न मजेदार बात!

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार



पिछले हफ्ते ट्रेन से गया जा रहा था। हरिद्वार-शालीमार स्पेशल ट्रेन से। ट्रेन के लखनऊ स्टेशन पर समय से पहुंचने की घोषणा हो रही थी। जब ट्रेन के आने का निर्धारित समय हो गया तो घोषणा की जाने लगी कि यात्रीगण कृपया ध्यान दें, ट्रेन संख्या 08044 जो हरिद्वार से चलकर वाया मुरादाबाद, लखनऊ शालीमार जा रही है, कुछ ही समय में प्लेटफार्म संख्या एक पर आ रही है। यह घोषणा पूरे 20 मिनट तक होती रही जबकि इस दौरान ट्रेन के आने व रवाना होने का निर्धारित समय बीत गया। ट्रेन आयी। अंदर पहुंचे। हमने सोचा था कि ट्रेन में श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास बिश्रामपुर का संत पढ़कर खत्म कर देंगे। लेकिन ट्रेन में जो बर्थ हमें मिली, उसकी रीडिंग लाइट ही नहीं जल रही थी। आसपास की बर्थ खाली थीं। लिहाजा हम दूसरे पर शिफ्ट होने के लिए टीटी से बात की। लेकिन यह क्या, उस कूपे में एक भी बर्थ की रीडिंग लाइट नहीं जल रही थी। सफाई का आलम यह कि बर्थ पर स्वागत के लिए काक्रोचों के साथ कीड़े-मकोड़ों की पूरी फौज मौजूद थी। किसी तरह उनको बर्थ से नीचे उतारा और अपना कब्जा जमाने के लिए रेलवे प्रदत्त पैकेट से चादर निकालकर बिछाने का उपक्रम शुरू किया। देखा तो चादर धुली हुई नहीं थी। उपयोग की जा चुकी चादर को फिर से तह करके पैकेट में रख दिया गया था।
मेरे सामने वाली बर्थ पर एक भाई साहब और थे जो किसी कृषि कंपनी में रिसर्च अधिकारी थे। गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विवि, पंतनगर (उत्तराखंड) से पीएचडी करने के बाद वे निजी क्षेत्र में आ गए थे। उनकी चिंता थी कि क्या यह ट्रेन सुबह अपने निर्धारित समय पर गया पहुंच जाएगी। उन्होंने टीटी से पूछा। टीटी का जवाव था, सर ठीक से चलती रहेगी तो पहुंच जाएगी। सामने वाले भाईसाहब झुंझलाए और झुंझलाहट में मुझे गणित जुड़वाने लगे। उन्होंने शुरू किया, भाईसाहब क्या आप जानते हैं कि अपने देश के सरकारी विभाग ऐसी जगहें हैं जहां काम करने वालों को ठीक से काम न करने का अतिरिक्त भुगतान होता है। ट्रेन को टाइम से चलाना रेलवे के कर्मचारियों की मूल जिम्मेदारी है। ट्रेन लेट हो जाने का मतलब है कि रेलवे के कर्मचारियों ने अपनी मूल जिम्मेदारी नहीं निभाई। ट्रेन लेट होने पर इन कर्मचारियों से जवाबतलब होना चाहिए लेकिन होता इसका उलटा है और ट्रेन लेट होने पर कर्मचारियों को ओवर टाइम यानी ओटी मिलता है। देश में रोज लगभग 50 हजार ट्रेनें चलती हैं और इन पर तीन करोड़ लोग यात्रा करते हैं। यदि ट्रेन लेट होने की वजह से इन तीन करोड़ लोगों का रोजाना औसतन एक घंटा खराब हुआ तो रोजाना तीन करोड़ मानव घंटे बेकार गए। यदि हम न्यूनतम मजदूरी दर ही लें तो रोजाना काम के आठ घंटे के हिसाब से हर घंटा न्यूनतम 15 रुपए का बैठा। यानी रोजाना 45 करोड़ का नुकसान और महीने में यह नुकसान हुआ 1350 करोड़ का। साल में यह नुकसान बैठा 16200 करोड़ रुपए। रेलतंत्र यह नुकसान कराने की एवज में अरबों का ओटी जिम्मेदार कर्मचारियों को बांटता होगा। भाईसाहब बोले जा रहे थे, एक हम लोग हैं रिजल्ट नहीं दिया तो वैरिएबल प्रोडक्टिविटी एलाउंस तो गया ही (यानी वेतन कम मिला), नौकरी भी खतरे में पड़ जाती है। मैं सोचने लगा कि यह गणित यदि हर सरकारी विभाग में लगाई जाए तो शायद हम पाएंगे कि हमारे सरकारी विभागों में जवाबदेही के अभाव और उनकी अकर्मण्यता की कीमत हम एक राष्ट्र के तौर पर अरबों-खरबों में रोजाना अदा करते हैं।
और अंत में
वीरेन डंगवाल पिछले दो दशक से हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। 1947 में उत्तराखंड में जन्मे वीरेन डंगवाल में नागार्जुन व त्रिलोचन का लोकतत्व और महाकवि निराला का फक्कड़पन एक साथ मौजूद है। उनकी कविताएं उड़िया, बांग्ला, पंजाबी, मराठी, मलयालम आदि भारतीय भाषाओं के साथ-साथ अंग्रेजी में भी अनूदित हुई हैं। यहां प्रस्तुत है उनकी एक कविता...

इतने भले नहीं बन जाना साथी
जितने भले हुआ करते हैं सरकस के हाथी
गदहा बनने में लगा दी अपनी सारी कुव्वत सारी प्रतिभा
किसी से कुछ लिया नहीं न किसी को कुछ दिया
ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया?

इतने दुर्गम मत बन जाना
सम्भव ही रह जाय न तुम तक कोई राह बनाना
अपने ऊंचे सन्नाटे में सर धुनते रह गए
लेकिन किंचित भी जीवन का मर्म नहीं जाना

इतने चालू मत हो जाना
सुन-सुन कर हरक़ते तुम्हारी पड़े हमें शरमाना
बग़ल दबी हो बोतल मुँह में जनता का अफसाना
ऐसे घाघ नहीं हो जाना

ऐसे कठमुल्ले मत बनना
बात नहीं हो मन की तो बस तन जाना
दुनिया देख चुके हो यारो
एक नज़र थोड़ा-सा अपने जीवन पर भी मारो
पोथी-पतरा-ज्ञान-कपट से बहुत बड़ा है मानव
कठमुल्लापन छोड़ो
उस पर भी तो तनिक विचारो

काफ़ी बुरा समय है साथी
गरज रहे हैं घन घमण्ड के नभ की फटती है छाती
अंधकार की सत्ता चिल-बिल चिल-बिल मानव-जीवन
जिस पर बिजली रह-रह अपना चाबुक चमकाती
संस्कृति के दर्पण में ये जो शक्लें हैं मुस्काती
इनकी असल समझना साथी
अपनी समझ बदलना साथी

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