रविवार, 29 जनवरी 2012

गौण है गण यहाँ, तंत्र की तकरार है

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर से साभार) 

देश के पढे-लिखे लोग देश को लेकर क्या सोचते हैं, भारतीय गणतंत्र को लेकर क्या सोचते हैं, इस गणतंत्र को चला रहे नेताओं के बारे में क्या सोचते हैं और अपने बारे में क्या सोचते हैं, यह समझना रोचक होगा। हालांकि मैं यहाँ जो सैंपल ले रहा हूं, वह बहुत छोटा है और संकीर्ण भी फिर भी उम्मीद है कि इससे भारतीय मानस को समझने में कुछ मदद ज़रूर मिलेगी। जी हाँ, मैं यहाँ ज़िक्र करने जा रहा हूं फेसबुक व ट्विटर पर गणतंत्र दिवस के मौके पर पोस्ट किये गए संदेशों का। ये संदेश एक वर्ग विशेष के ही हैं लेकिन यही वह वर्ग विशेष है जिसे विकास के फल खाने को मिले हैं। आइए जाने कि हमारे मुल्क के साधन-संपन्न आम आदमी का नज़रिया किस तरह इंटरनेट पर व्य्क्त हुआ। भोपाल से एक पत्रकार का फेसबुक पर मेसेज - मुट्ठी भर लोगों का, मुट्ठी भर लोगों के लिए, मुट्ठी भर लोगों के द्वारा...गणतंत्र मुबारक। एक वेबसाइट ने पोस्ट किया - किसी भी समाज के लिए ६२ वर्ष कम नहीं होते। लेकिन क़ानून के राज की बात करने वाले ही क़ानून को अपनी खूंटी पर टांगे हुए हैं। एक बड़े मीडिया हाउस के ब्रांड कम्युनिकेशन हेड ने फेसबुक पर लिखा कि कम से कम एक बार परेड के साथ, दोस्तों के साथ या परिवार के साथ राष्ट्रीय गान गंभीर होकर गाइये। यह सुनिश्चित कर लें कि राष्ट्रीय गान की लाइनें आपको सही-सही याद हैं। और बेहतर राष्ट्र बनाने के लिए हर चुनाव में वोट देने का फैसला करें। बालीवुड की एक सिंगर ने ट्विट किया कि जिस भावना से संविधान बनाया गया था, हमें कम से कम उसी भावना के साथ जीने की कोशिश करनी चाहिए। दिल्ली की परेड टीवी पर देखने के बाद एक बड़े टीवी पत्रकार ने लिखा कि दूरदर्शन की कमेंट्री में कोई बदलाव नहीं आया है, सुनकर लगता है कि देश नहीं बदला है...कोई तो है जो निरंतरता का प्रतीक है। कश्मीर से एक पोस्ट - मोबाइल जाम कर दिये गये हैं...गणतंत्र दिवस मुबारक। कश्मीर से ही एक और पोस्ट कि गणतंत्र दिवस मनाने में कोई हर्ज नहीं लेकिन भारतीय गणतंत्र तब तक अधूरा है जब तक आम कश्मीरियों के मौलिक अधिकारों का सम्मान नहीं है।
शायर राहत इंदौरी ने ये लाइनें पोस्ट कीं - बन के एक हादसा बाज़ार में आ जाएगा / जो नहीं होगा वो अखबार में आ जाएगा / चोर उचक्कों की करो कद्र कि मालूम नहीं / कौन, कब, कौन सी सरकार में आ जाएगा।
एक और पोस्ट है - गौण हैं गण यहां, तंत्र की तकरार है / ऐ मेरे गणतंत्र तेरी फिर भी जय जयकार है। एक और कवित्त मिला कि रहिमन जूता राखिये कांखन बगल दबाय / न जाने किस मोड़ पर भ्रष्ट नेता मिल जाय। एक पोस्ट में नागार्जुन की कविता है - पटना है, दिल्ली है / वहीं सब जुगाड़ है / फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है / पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है / मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है / सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है (मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है) / उसी की जनवरी, उसी का अगस्त है।
फेसबुक और ट्विटर पर इस तरह की लाखों पोस्ट गणतंत्र दिवस पर आईं होंगी। यह एक दिन का कमाल नहीं है, बरसों से पैदा हो रहा दर्द है जो पहले तमाम आंदोलनों में व्यक्त होता था। तब सत्तावर्ग इसे विरोधियों का हथकंडा बताकर खारिज करता रहता था और आज भी कर रहा है। लेकिन सोशल नेटवर्किंग साइट्स तो किसी राजनीतिक संगठन की नहीं हैं और आज उनपर भी दर्द व्यक्त किया जा रहा है। लेकिन सत्तावर्ग इस दर्द को समझने की जगह इनको बैन करने की बात कर रहा है। पारंपरिक मीडिया पर अंकुश के भी बड़े प्रभावी और लोकतांत्रिक तरीके यह वर्ग पहले ही ईजाद कर चुका है। हमारी राजनीति कहाँ आ गई है - मुझे याद है कि हम बचपन में गाँव में २६ जनवरी, १५ अगस्त को प्रभातफेरी निकालते थे और नारे लगाते थे कि तिलक जी अमर रहें, महात्मा गांधी अमर रहें, सरदार भगत सिंह अमर रहें, डा राजेंद्र प्रसाद अमर रहें, पंडित जवाहरलाल नेहरू अमर रहें, लालबहादुर शास्त्री अमर रहें, मौलाना आजाद अमर रहें, डा राधाकृष्णन अमर रहें और साथ में जीवित पूर्व राष्ट्रपतियों व प्रधानमंत्रियों व मौजूदा के नाम पर जिंदाबाद कहा जाता था। यह बात १९७९ के जनता शासन तक थी। दो साल पहले मैंने उत्तराखंड के एक गाँव में १५ अगस्त की प्रभातफेरी देखी। मैंने देखा, नारों से पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों व राष्ट्रपतियों का नाम तो छोड़िये मौजूदा के नाम पर भी जिंदाबाद नहीं था। चिंता की बात यह नहीं है कि वे नारे गायब हो गए, चिंता की बात वे कारण हैं जो शायद इन नारों के गायब होने के पीछे हैं। सोचिए क्या पिछले २०-२५ सालों में कोई ऐसा प्रधानमंत्री रहा जिसके लिए हम सब एक राष्ट्र के तौर पर अमर रहें या जिंदाबाद कह सकें। यही दर्द है जो सब जगह व्यक्त हो रहा है अलग-अलग तरीके से।

और अंत में...
इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू नेशनल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी के एक प्राध्यापक की पोस्ट अंत में-
एक शायर ने कहा है कि आदमी अगर जिंदा है तो जिंदा दीखना भी चाहिए। आप सबके लिए २६ जनवरी, १९५० को रचित राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कालजयी कृति जनतंत्र का जन्म के अंश....

सदियों की ठंडी-बुझी आग सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ?
वह जिधर चाहती काल उधर ही मुड़ता है

आरती लिये तू किसे ढूढ़ता है मूरख
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में

फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं
धूसरता सोने से श्रंगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है

रविवार, 22 जनवरी 2012

बंद दिमागों से चल रहा है हमारा समाज

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर से साभार) 




सलमान रुश्दी को लेकर हाय-तौबा मचा हुआ है। कई वर्ग हैं। एक वर्ग है जो कह रहा है कि सलमान रुश्दी को आने देना एक समुदाय की भावनाओं को आहत करना है। दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा है जो सलमान की जान की कीमत लगा रहा है। एक वर्ग है जो इस विवाद के साये में वोटों की गिनती कर रहा है। एक और वर्ग है और जो सबसे बड़ा वर्ग है पर चुप्पी साधे है। लेकिन यह चुप्पी खुद इस सबसे बड़े वर्ग के लिए खतरनाक है। एक तमाशा हो रहा है जयपुर लिटरेरी फेस्ट में। ध्यान रहे यह लिटरेरी फेस्ट है। इसमें पहले तो कुछ मझोले कद के अंग्रेजी लेखकों ने रुश्दी की प्रतिबंधित किताब का पाठ शुरू कर दिया जैसे यह किताब न होकर कोई मंत्र है जिसको जपे बिना ये लेखक धर्मच्युत हो जाएंगे। ऊपर से गजब किया आयोजकों ने यह बयान देकर कि तय कार्यक्रम में इस किताब का पाठ शामिल नहीं है और इसलिए पाठ रुकवा दिया। यह नाटकबाजी क्यों? जिन लेखकों को लग रहा है कि रुश्दी के बिना यह फेस्ट नहीं होना चाहिए, उन्हें पब्लिसिटी का लालच छोड़कर इस फेस्ट में नहीं आना चाहिए था। और जो फेस्ट करा रहे हैं, उनको भी साहित्य का मतलब समझना चाहिए। वे ऐसा बयान देकर इस फेस्ट की गरिमा ही नहीं गिरा रहे बल्कि भाट-चारण की भूमिका में आ गए हैं।

 ये सवाल तो अपनी जगह हैं ही लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ये प्रवृत्तियां हमारे समाज को किस तरफ ले जा रही हैं। हम अमेरिका से आगे निकलने के सपने पाले हुए हैं और समाज के स्तर पर हमारी प्रवृत्तियां ठीक उलटा है। ताज्जुब तो इस बात से है कि इन प्रवृत्तियों का वाहक वर्ग बहुत छोटा है फिर भी उस बड़े वर्ग पर हावी है जो उदारमना है। यह सब पिछले 20-25 सालों में ज्यादा हुआ है। पता नहीं यह संयोगमात्र है या फलस्वरूप लेकिन जबसे हम मुक्त बाजार की अवधारणा पर चलने लगे हैं, हमारा समाज स्वार्थ बंद दिमागों से चलना शुरू हो गया है।





मुझे याद है जब 1988 में सलमान रुश्दी की सैटेनिक वर्सेस पर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने प्रतिबंध लगाया था, तब किस तरह पूरे देश में इसका विरोध शुरू हुआ था। विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन हुए थे। हर जगह परचे बांटे गए इस प्रतिबंध के खिलाफ। अयातुल्लाह खोमैनी की घोषणा पर हमारे यहां का नौजवान बौखलाया हुआ दिखाई दे रहा था कि खुद को खुदा समझने वाला एक अयातुल्लाह खोमैनी इतिहास चक्र को उल्टा मोड़ना चाहता है। मुझे याद है लखनऊ में किस तरह अमृतलाल नागर जैसे साहित्यकार खड़े हो गए थे। ये सब सैटेनिक वर्सेस के समर्थन में नहीं थे बल्कि इतिहास चक्र को उल्टा मोड़ने वाली प्रवृत्ति के खिलाफ थे। लेकिन आज क्या हो रहा है? देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय में एके रामानुजन के निबंध थ्री हंड्रेड रामायन्स : फाइव एक्जाम्पल्स एंड थ्री थाट्स आन ट्रांसलेशंस को अपने पाठ्यक्रम से इसलिए निकाल दिया कि कुछ लोग इसका विरोध कर रहे थे और कह रहे थे कि इसमें राम और सीता के बारे में आपत्तिजनक बाते हैं। हम आपको बताते चलें कि इसमें दुनिया भर में फैली हुईं रामायण कथाओं का जिक्र है जिसमें अपने यहां की संताल वाचिक परंपरा से ली गई सीता से संबंधित एक कहानी भी है। और इससे पहले देखें, अपने देश के सबसे बड़े कलाकार एमएफ हुसैन को देश बदर कर दिया था इन ताकतों ने। आप खुद सोचिये कि क्या यह सब सिर्फ वोट के लिए नहीं हो रहा? यानी जिनको हम सब जिम्मेदारी दिए हुए हैं राजनीति के जरिए समाज को आगे ले जाने की, वे सत्ता के लिए हम सब को गर्त में ढकेलते जा रहे हैं।

जरा इतिहास में झांक कर देखें पंद्रहवी सदी में यूरोप में प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत हुई। उस समय पूरा यूरोप टर्की के ओट्टोमन साम्राज्य से डरा हुआ रहता था। जर्मनी में लोगों ने टर्की विरोधी परचे छापने में प्रिंटिंग प्रेस का इस्तेमाल शुरू किया। कुछ वर्ष बाद बासेल में कुरान का अनुवाद लैटिन में किया गया और छापा गया। इस पर यूरोप में मांग उठी कि इस पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। यह बात 1542 की है। लेकिन मार्टिन लूथर किंग (सीनियर) ने इसका विरोध किया और कुरान के प्रकाशन पर रोक नहीं लगने दी। 1543 में कुरान के तीन संस्करण छपे और फिर सात साल बाद एक और संस्करण छपा। इससे बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता जो यूरोपीय समाज में खुलेपन की शुरुआत को दर्शाए। यह शुरुआत यूरोप को कहां ले गई और बाकी को कहां।
कश्मीर के पत्रकार बशीर मंजर ने  फेसबुक पर लिखा मुझे ताज्जुब हो रहा है कि मुसलिम संस्थाएं सलमान रुश्दी की यात्रा का विरोध कर रही हैं। क्या हम लोग उस आदमी से इतना डरे हुए हैं कि  उसकी उपस्थिति मात्र से हमें डरावने सपने आने लगते हैं। क्या हममें से कोई रुश्दी का सामना विद्वता के धरातल पर पूर्व आयरिश नन कारेन आर्मस्ट्रांग की तरह नहीं कर सकता। क्या हम अपने को कमजोर, झक्की, प्रतिक्रियावादी और तर्करहित नहीं सिद्ध कर रहे?

और अंत में...

बिना किसी भूमिका के फैज अहमद फैज की यह नज्म पढ़िए...


हम देखेंगे...
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
हम देखेंगे।
जो लाहे अजल में लिखा है
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे .
जब जुल्मो-सितम के कोहे गरां
रूई की तरह उड़ जायेंगे
हम महरूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले हकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़केगी
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे
जब अरजे खुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहले सफा मरदूदे हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे .
बस नाम रहेगा अल्ला का
जो गायब भी हाजिर भी
जो नाजिर भी है मंजर भी
उठेगा अनलहक का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्के खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे.




सोमवार, 16 जनवरी 2012

पाकिस्तान में सियासी बिसात और सोशल नेटवर्किंग

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर से साभार) 






पाकिस्तान एक बार फिर राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। बिसात बिछ चुकी है। शतरंज के खेल के विपरीत इसमें दो नहीं बल्कि तीन खिलाड़ी हैं। एक खेमा है पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल अशफाक कयानी और आईएसआई चीफ ले. जनरल शुजा पाशा का। इनकी पूरी तैयारी एक ही चाल में शह-मात की है। पाकिस्तान का तो पूरा इतिहास ही रहा है कि जनरलों ने जब चाहा, पलक झपकते सत्ता हथिया ली। सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा उनकी मदद की। इस समय भी पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी सेना के खेमे में ही दिखाई दे रहे हैं। लेकिन कोई आयाम ऐसा है जो इनको रोक रहा है। दूसरा खेमा है राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और यूसुफ रजा गिलानी का। यह खेमा इस जुगत में है किसी तरह सेना से सुलह-सुलफा हो जाए। ये खेमा भी बहुत डरा हुआ या मजबूर नजर नहीं आ रहा है। यह बात दीगर है कि सुप्रीम कोर्ट इनकी सरकार को दबाव में लिए हुए है। तीसरा खेमा है विपक्षी दलों का। जिसमें नवाज शरीफ और इमरान खान हैं। ये उत्साहित हैं। ये पूरा माहौल बना रहे हैं कि सरकार ने लोगों का विश्वास खो दिया है और चुनाव की जरूरत है। लगातार रैलियों के जरिए दबाव बढ़ा रहे हैं कि मध्यावधि चुनाव हो जाएं।  जनरल परवेज मुशर्ऱफ भी इस बिसात पर नजर लगाए हैं। लेकिन यह ताज्जुब की बात है कि जिस पाकिस्तान में सेना ने जब चाहा और जैसे चाहा, सत्ता हथिया ली, उसी पाकिस्तान में ऐसा कौन सा आयाम पिछले चार साल में जुड़ गया कि जनरल कयानी उतनी आसानी से तख्तापलट का फैसला नहीं ले पा रहे हैं जितनी आसानी से उनके पूर्ववर्ती जनरलों ने ऐसा कर लिया था। इसलामी उग्रवाद, अमेरिका, चीन, भारत और कश्मीर जैसे एंगल आज की तरह पहले भी थे। पाकिस्तानी अवाम के बारे में पहले भी कहा जाता रहा है और आज भी कहा जा रहा है कि उसे हर किसी ने छला है। पहले उसे मुंह बंद रखना पड़ता था। लेकिन अब सोशल नेटवर्किंग साइट्स का ऐसा हथियार मिला हुआ जिस पर पूरी तरह तब तक अंकुश नहीं लग सकता जबतक कि पूरा मुल्क उसके लिए तैयार न हो। पाकिस्तान में लगभग दो करोड़ इंटरनेट यूजर्स हैं और इसमें से 60 लाख फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। सोशल बेकर्स डाट काम नाम की साइट के मुताबिक, इस क्राइसिस के दौरान फेसबुक पर कमेंट करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इसमें से 76 फीसदी लोग 18-34 वर्ष के आयुवर्ग के हैं। पिछले साल कराची में हुए इंटरनेशनल सोशल मीडिया समिट के मुताबिक, पाकिस्तान में करीब 62 लाख लोग ट्विटर का इस्तेमाल करते हैं और इसमें से करीब 30 लाख सोशल जर्नलिस्ट के तौर पर सक्रिय हैं। पिछले छह माह में पाकिस्तान में फेसबुक यूजर्स की संख्या 12 लाख और ट्विटर यूजर्स की संख्या करीब 20 लाख बढ़ी है। 2008 के मुकाबले तो यह वृद्धि पांच गुने से ज्यादा है। पिछले एक साल में पाकिस्तान के लोग इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर राजनीतिक रूप से ज्यादा मुखर हुए हैं। इन लोगों के जरिए पाकिस्तान में इतिहास को लेकर सवाल किये जा रहे हैं, आजादी की लड़ाई के प्रस्तुतीकरण को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं, बाग्लादेश के अलग होने को लेकर पहली बार भारत और रा की जगह वहां के हुक्मरानों को जिम्मेदार ठहराने का सिलसिला शुरू हुआ। इन सबका असर वहां के मीडिया पर भी पड़ता दिखाई दे रहा है। कट्टर भारत विरोधी नवा-ए-वक्त जैसे अखबार समूह के अंग्रेजी दैनिक में छप रहे कालमों में इस तरह के सवालों का उठना किस ओर इशारा करता है?
ऐसा नहीं हो सकता कि जनरल कयानी और पाशा पाकिस्तानी मिडिल क्लास के इस इंपावरमेंट को समझते न हों। इमरान खान की पार्टी के फेसबुक पेज पर 2.37 लाख लोग लाइक करते हैं. करीब 93 हजार लोग उस पेज पर चर्चाओं में हिस्सा लेते हैं और ट्विटर पर 20 हजार से ज्यादा लोग इमरान की पार्टी को फालो करते हैं। यही नहीं, पिछले कुछ दिनों में करीब सात लाख लोगों ने एसएमएस के जरिए इमरान की पार्टी की सदस्यता के लिए आवेदन किया। इस सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि बंटवारे के बाद पहली बार पाकिस्तान के लोगों का दबाव सत्ता वर्ग पर दिखाई दे रहा है और शायद एक वजह यह भी है कि तुरत-फुरत रेडियो-टीवी पर कब्जा करके और प्रधानमंत्री को गिरफ्तार कर तख्तापलट की गुंजाइश इस बार कम दिखाई दे रही है। पहले खेमे की हिचकिचाहट, जरदारी-गिलानी के भयाक्रांत न दिखने और नवाज शरीफ व इमरान खान के उत्साह में कहीं न कहीं कुछ भूमिका इस इंपावरमेंट की भी हो सकती है।


और अंत में...
अशोक वाजपेयी आधुनिक हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हालांकि हिंदी साहित्य में खेमेबंदी के चलते उनको उतना सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार हैं। इस बार अंत में उनकी ही एक कविता -


तुम चले जाओगे
पर थोड़ा-सा यहाँ भी रह जाओगे
जैसे रह जाती है
पहली बारिश के बाद
हवा में धरती की सोंधी-सी गंध
भोर के उजास में
थोड़ा-सा चंद्रमा
खंडहर हो रहे मंदिर में
अनसुनी प्राचीन नूपुरों की झंकार
तुम चले जाओगे
पर थोड़ी-सी हँसी
आँखों की थोड़ी-सी चमक
हाथ की बनी थोड़ी-सी कॉफी
यहीं रह जाएँगे
प्रेम के इस सुनसान में
तुम चले जाओगे
पर मेरे पास
रह जाएगी
प्रार्थना की तरह पवित्र
और अदम्य
तुम्हारी उपस्थिति
छंद की तरह गूँजता
तुम्हारे पास होने का अहसास
तुम चले जाओगे
और थोड़ा-सा यहीं रह जाओगे

शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

पुनि-पुनि चंदन, पुनि-पुनि पानी शालिग्राम सरिगे, हम का जानी

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर से साभार) 


वर्ष २०११ का यह आखिरी रविवार है। चूंकि मैं पत्रकार हूं, लिहाजा मेरे दिमाग़ में भी यही सवाल है कि साल की बड़ी ख़बरें क्या रहीं। मैं ये ख़बरें गिनाकर बोर नहीं करना चाहता। लेकिन जब मैं साल की बड़ी ख़बरों के बारे में सोच रहा था तो सबसे बड़ी बात यह उभर कर सामने आई कि दुनिया आज जिस वैचारिक विकल्पहीनता सेगुज़र रही है, उतना संकट पिछले १०० सालों में शायद ही देखने को मिला हो। मिस्र का जनउभार हो, अपने यहाँ का अन्ना आंदोलन हो या अमेरिका में एक फीसदी बनाम ९९ फीसदी का सवाल उठाने वाले प्रदर्शन, कहीं कोईवैचारिक स्पष्ता नहीं है। मुझे तो बचपन में सुना हुआ एक किस्सा याद आ रहा है। एक पंडित का बेटा बहुत शैतान था। पंडित जी बेचारे बहुत परेशान थे। पंडित जी सुबह शाम पूजा करते थे और काले पत्थर की बटिया के रूप में शालिग्राम को सुबह शाम गंगाजल से स्नान कराते थे और चंदन लगाते थे। एक दिन पंडित जी के बच्चे की नज़र काली बटिया पर पड़ी। बच्चा उसे लेकर खेलने लगा। खेल में वह बटिया कहीं खो गई। बच्चे को पता था कि अब पंडित जी उसको बहुत कूटेंगे। बच्चे ने कुटाई से बचने के लिए बहुत दिमाग़ लगाया। आषाढ़ का महीना था। गांव में जामुनों की बहार थी। बच्चे के दिमाग में आइडिये का बल्ब जला और उसने पूजा में शालिग्राम की जगह जामुन रख दिया। पंडित जी पूजा करने बैठे। उन्होनें आचमनी से शालिग्राम पर गंगाजल डाला और जैसे उन्होनें शालिग्राम को पोंछा, तो गूदा उतर गया और गुठली हाथ में आ गई। पंडित जी का पारा सातवें आसमान पर था। उन्होंने चिल्लाकर बच्चे से कहा कि तुमने शालिग्राम उठाया था। बच्चे ने कहा नहीं। पंडित ज और जोर से चिल्लाए। इस पर बच्चे ने सफाई दी- पुनि-पुनि चंदन,  पुनि-पुनि पानी, शालिग्राम सरिगे हम का जानी। यानी बार-बार आप चंदन लगाते हैं, बार-बार पानी से नहलाते हैं। ऐसे में हो सकता है कि शालिग्राम सड़ गये हों, इसमें मेरा क्या कुसूर। ये तो एक किस्सा है लेकिनआज के संदर्भ में देखें तो लगता है कि असली शालिग्राम जामुन बन चुका है। और उसी पर पुनि-पुनि चंदन, पुनि-पुनि पानी। मतलब यह कि कोई नया विचार नहीं, कोई विकल्प नहीं। समाज, राजनीति और अर्थ में खदर-बदर तो है लेकिन आगे कोई राह नहीं, कोई नवोन्मेष नहीं। २०११ यही खदर-बदर देकर जा रहा है और २०१२ के लिए चुनौती के रूप में नवोन्मेष की जरूरत। इस साल का हिट गाना भी वर्षांत में ही आया - व्हाई दिस कोलावेरी डी... कोलावेरी डी भी इसी विकल्पहीनता और विचारशून्यता को परिलक्षित करता है। है न! ऐसा गाना हिट हो जाए जिसका कोई अर्थ न निकलता हो तो उसे और क्या कहेंेगे? देखना यह होगा क्या नये साल मे यह कोलावेरी डी मौजूदा खदर-बदर को किसी सार्थक हस्तक्षेप में बदल पाएगा कि नहीं? यह उलटबांसी ही है लेकिन नये रास्ते उलटबांसियों से ही निकलते हैं।
और अंत में...शमशेर बहादुर सिंह की बहुत प्रसिद्ध कविता है - बात बोलेगी। साल के अंतिम रविवार के यदृच्छया के अंत में इससे बेहतर कविता क्या होगी -

बात बोलेगी
हम नहीं।
भेद खोलेगी 
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें

क्या-देखें!
सत्य का रूख़
समय का रूख़ है

अभय जनता को
सत्य ही सुख है

सत्य ही सुख।
दैन्य दानव काल
भीषण क्रूर
स्थिति कंगाल
बुद्धि घर मजूर।
सत्य का
क्या रंग है?-

पूछो
एक संग।

एक-जनता का
दुःख: एक।

हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि: मजूर घर भर।

एक जनता का - अमर वर:
एकता का स्वर।
-अन्यथा स्वातंत्र्य-इति।


हर क्षेत्र में सृजन, नवविचारों और नवोन्मेषों का साल हो २०१२, इन्हीं उम्मीदों के साथ शुभकामनाएँ .....

नीतीश ने कहा था, अफसर देर करे तो वह पैसा देख रहा होगा

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर से साभार)


(11 दिसंबर, 2011 को प्रकाशित)
हमारी व्यवस्था कितनी संवेदनहीन और गैरजवाबदेह है, इसका उदाहरण है कोलकाता के अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस एमआऱआई अस्पताल का अग्निकांड। जिंदगी की उम्मीद में आने वाले लोगों को मौत मिली। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर पर लिखा है कि हम वाकई तीसरी दुनिया के देश हैं लेकिन वहम पाले हुए हैं विकसित देशों की कतार में खड़े होने का। लेकिन सवाल यह है कि इस सबके लिए जिम्मेदार कौन है। पहले पढ़िए, जिम्मेदार अफसरों ने क्या कहा... कोलकाता अग्निशमन विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि अस्पताल में फायर कंट्रोल सिस्टम ठीक हालत में नहीं था। अस्पताल का स्टाफ आग जैसी आपात स्थितियों से निबटने में सक्षम नहीं था और न उनको इसकी कोई ट्रेनिंग दी गई। अस्पताल के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अस्पताल में फायर सेफ्टी नियमों का पूरा अनुपालन किया जा रहा था, इमारत में स्मोक डिटेक्टर और अग्निशामक यंत्र लगे हुए थे। न्यूयार्क टाइम्स को शुक्रवार को दिये गये इंटरव्यू में कहा कि फायर सेफ्टी राज्यों का विषय है, केंद्र के तहत यह नहीं आता। अलबत्ता, भारतीय राष्ट्रीय विल्डिंग संहिता 2005 नाम से एक कानून है जिसमें इमारतों में सुरक्षा के नियमन दिये गए हैं लेकिन यह कानून राज्यों पर तब तक लागू नहीं होता जब तक राज्यों की विधानसभाएं इसे लागू करने का कानून न बनायें। 2005 में ही आपदा नियंत्रण कानून बना लेकिन इसमें आग को शामिल नहीं किया गया। यानी कहीं कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं।
इस कांड के बाद जो बातें सामने आईं, उनमें कुछ नया नहीं हैं। मसलन बीते अप्रैल में फायर ब्रिगेड ने अस्पताल को नोटिस जारी किया था कि अस्पताल बेसमेंट का इस्तेमाल पार्किंग के लिये न कर के गैस सिलिंडर, कबाड़ और लकड़ी के बाक्स रखने को स्टोर के लिए कर रहा है। इस नोटिस में अस्पताल को तीन माह के भीतर बेसमेंट से स्टोर हटाने को कहा गया था। इसके बाद क्या हुआ, कोई कुछ नहीं बता रहा। लेकिन फायर ब्रिगेड ने यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से हाथ झाड़ लिया क्योंकि उसने तो नोटिस जारी कर दी थी। लेकिन सवाल जो हम सबको पूछना चाहिए कि क्या अस्पताल प्रबंधन के साथ-साथ सरकारी महकमें भी बराबर को दोषी नहीं हैं? हम जानते हैं कि आगे क्या होगा। जांच बैठेगी। बहुत त्वरित जांच हुई तो कुछ माह में रिपोर्ट आएगी। उस रिपोर्ट के आधार पर दोषियों पर मुकदमा चलेगा। लेकिन शायद ही कोई सरकारी अधिकारी इस जांच में फंसेगा। जिन अधिकारियों ने नोटिस जारी की लेकिन फिर कोई कार्रवाई नहीं की, क्या इसके कारणों का पता लगाया जाएगा, क्या यह पता लगाया जाएगा कि इतनी गंभीर लापरवाही को ठीक करने के लिए तीन माह क्यों दिये, तुरंत क्यों नहीं अस्पताल को बंद कर बेसमेंट को पार्किंग के लिए खाली करने को कहा गया? मुझे तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात याद आ रही है कि यदि कोई अफसर ऐसे मामलों में ढीलमढाल करता है तो जरूर उसे पैसा दिखाई दे रहा होगा। यह बात हर जगह लागू है।

सिब्बल और सोशल साइट्स
कपिल सिब्बल मुझे बहुत समझदार व्यक्ति लगते थे। लेकिन जबसे मैंने टीवी पर बाबा रामदेव की अगवानी में दिल्ली एयरपोर्ट पर कपिल सिब्बल को हैरान-परेशान मुद्रा में देखा, तबसे कुछ और तस्वीर बन गई उनकी मेरे जेहन में। अगर आपने वह दृश्य टीवी पर देखा हो तो याद करिये। हाल में उन्होंने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर प्रतिबंध की बात कही और फंसने पर कहा कि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले कमेंट्स उन पर आते हैं, उनका इरादा इन्हीं कमेंट्स को रोकने का है। कपिल सिब्बल जैसे नेता शायद हमें-आपको ढोर-ढंगर से ज्यादा कुछ नहीं समझते कि जो वे कहेंगे, उसके आगे कोई कुछ सोच ही नहीं पाएगा। वैसे कांग्रेस शायद सोची-समझी रणनीति के तहत यह बात फैलाने का षडयंत्र कर रही है कि भारत की सबसे बड़ी समस्या यहां ज्यादा लोकतंत्र का होना है। बाबा रामदेव प्रकरण, अन्ना हजारे प्रकरण और अब सोशल साइट्स पर सेंसरशिप के प्रस्ताव से क्या इस षडयंत्र की बू नहीं आती? 70 के दशक में कांग्रेस ने यह फैलाना शुरू किया था कि मेधावी छात्रों और अच्छे लोगों को राजनीति से दूर रहना चाहिए। उनकी यह रणनीति सफल भी रही। उसके बाद नक्सलबाड़ी या जेपी आंदोलन जैसा कोई युवा आंदोलन नहीं खड़ा हो पाया। आज भी मां-बाप अपने बच्चों को राजनीति से दूर रहने की सलाह देते हैं।
.
 और अंत में...

फरीद खां पटना के रहने वाले हैं। फेसबुक पर मैंने पढ़ीं इस टिप्पणी के साथ कि उनकी कविताएँ वाकई में जिंदगी का अहसास दिलाती रहती हैं। आपके होने का याद दिलाती हैं। आप मर तो नहीं रहें, यह सवाल भी आपसे करती हैं। पढें और पढाएँ। मैंने पढ़ा और आपको पढ़ा रहा हूं...

वह अपना हिसाब मांगेगा

जिसे पता ही नहीं कि उसे बेच दिया गया है,
और एक दिन राह चलते अचानक ही उसे किसी ग़ैर से पता चले
कि उसे बेच दिया गया है.
तो आज नहीं तो कल,
वह अपना हिसाब मांगेगा ही.

पानी अपना हिसाब मांगेगा एक दिन.
लौट कर आयेगा पूरे वेग से,
वापस मांगने अपनी ज़मीन.

पहले लगता था
पहले लगता था कि जो सरकार बनाते हैं,
वे ही चलाते हैं देश.
पहले लगता था कि संसद में जाते हैं
हमारे ही प्रतिनिधि.

पहले लगता था कि सबको एक जैसा अधिकार है.

पहले लगता था कि अदालतों में होता है इंसाफ़.
पहले लगता था कि अख़बारों में छपता है सच.
पहले लगता था कि कलाकार होता है स्वच्छ.

पहले लगता था कि ईश्वर ने बनाई है दुनिया,
पाप पुण्य का होगा एक दिन हिसाब.
पहले लगता था कि मज़हबी इंसान ईमानदार तो होता ही है.
पहले लगता था कि सच की होगी जीत एक दिन,
केवल आवाज़ उठाने से ही सुलझ जाता है सब.

अभी केवल इतना ही लगता है,
कि सूरज जिधर से निकलता है,
वह पूरब ही है,
और डूबता है वह पच्छिम में. बस.

इंसान अच्छा और ताकतवर एक साथ न बन सका

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
(प्रभात खबर से साभार)
आज साल का पहला दिन है। इसलिए सबसे पहले आप सबको शुभकामनाएँ। हम उन राहों को चुनने की हिम्मत और हौसला कर सकें जिनको हम इसलिए खारिज करते रहते हैं कि कोई तो इन पर नहीं चला, ज़रूर कोई वजह होगी। लेकिन इस वजह को जानने की कोशिश अमूमन हम नहीं करते। लेकिन शायद ये राहें ही नवोन्मेष के दरवाजे खोलतीं हैं। बीते साल ने हमारे वैचारिक खोखलेपन को इस साल के लिए चुनौती के तौर पर प्रस्तुत किया है। अगर हम अपने देश की बात करें तो हमारा राजनीतिक चिंतन जिस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा से पर केंद्रित है जिसे पश्चिम से आयात किया गया है। गांधी के बाद हमारे समाज ने कोई ऐसा राजनीतिक चिंतक नहीं दिया जो अपने समाज के मूल्यों को प्रतिबिंबित करता हो। हमारा संविधान भी उसी राष्ट्र-राज्य की अवधारणा पर आधारित है, गांधी के चिंतन पर नहीं। यहीं पर दिक्कत आती है।
मैं इस हफ्ते लखनऊ में हुई एक अनौपचारिक चर्चा का ज़िक्र करना चाहूंगा। इस चर्चा में भारत सरकार के ए़क बड़े अफसर, दो फिजिक्स के प्राध्यापक, एक वैज्ञानिक, एक न्यायाधीश और एक किसान शामिल थे। सवाल था कि भारतीय संविधान बहुसंख्य भारतीयों का कितना ध्यान रखता है और ऐसा क्यों होता है कि क़ानून की व्याख्या अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग होती है? इस सवाल पर गरमागरम बहस हुई। पहले सवाल पर चर्चा में निकलकर आया कि हमारा संविधान पश्चिम के जिस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा पर आधारित है, उसी के चश्मे से संविधान की उपादेयता का आंकलन किया जाना चाहिए, हम यदि भारतीय समाज के मूल्यों के आधार पर इसका आंकलन करेंगे तो निराशा हाथ लग सकती है। जैसे त्याग हमारे समाज के लिए बहुत बड़ा मूल्य है लेकिन पश्चिम में यह मूल्य है ही नहीं। यही वजह है कि यदि हमारे यहाँ कोई व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को त्याग कर अपने भाई-बहनों को ज़िंदगी के लिए काम करता है तो उसके छोटे-मोटे कई अपराधों की समाज अनदेखी कर उसे अच्छा व्यक्ति ही मानता है। लेकिन पश्चिमी समाज में ऐसा नहीं है। हम संविधान को इन्हीं मूल्यों पर कसते हैं।
हम सब्जेक्टिव होते हैं और सिस्टम आब्जेक्टिविटी की अपेक्षा करता है। यहीं पर समस्या आती है। यह सब्जेक्टिविटी क़ानून की व्याख्या बदल देती है, यह सब्जेक्टिविटी नियमों की परिभाषा बदल देती है। अब सवाल यह उठता है कि क्या कोई सिस्टम इस सब्जेक्टिविटी को मिनिमाइज करने की मैकेनिज्म से लैस हो सकता है। इस पर जान नैश की गेम थ्योरी का ज़िक्र हुआ कि समाज कोई भी हो, हर व्यक्ति स्थितियों से अपने लिए फ़ायदे को मैक्सिमाइज करने की कोशिश करता है। एक किस्सा भी सामने आया कि एक बार एक गाँव में सूखा पड़ गया। पुरोहित ने बताया कि यदि गाँव का हर आदमी रात को अपने-अपने घर से एक लोटा दूध तालाब में डाले। इससे तालाब दूध से भर जाएगा। तालाब दूध से भर जाएगा तो बारिश होने लगेगी। सब तैयार हुए, मुहुर्त निकाला गया। रात में सबने पुरोहित के कहे मुताबिक एक-एक लोटा दूध तालाब में डालने का वचन दिया। लेकिन यह क्या, सुबह तालाब में दूध नहीं पानी भरा था। दरअसल हुआ यह कि हर आदमी ने सोचा कि बाकी तो दूध डालेंगे ही, यदि मैं एक लोटा पानी भी डाल दूंगा तो किसी को रात में क्या पता चलेगा। और सबने पानी ही डाला। मतलब यह कि हर व्यक्ति अपने फ़ायदे को मौक्सिमाइज करना चाहता था। यह किस्सा इसलिए सुनाया गया कि चर्चा में एक कोने से यह बात उठ रही थी कि गेम थ्योरी भारतीय समाज के मूल्यों को प्रतिबिंबित नहीं करती। आप भी सोचिए इन सवालों पर। आप मुझे अपनी बात मेल करेंगे तो इन सवालों पर चर्चा आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। फिलहाल यह बात यहीं समाप्त करते हैं।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ...

फेसबुक पर नोबेल पुरस्कार से सम्मानित पोलिग कवियित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का की एक कविता काफी दिन पहले पढ़ी थी। करीब १०-१२ साल पहले लिखी गई यह कविता बीत गए साल और नए साल की उम्मीदों के नाम पर पोस्ट के रूप में फेसबुक पर पिछले दिनों देखी। २०वीं सदी के अंत में लिखी गई यह कविता पढ़कर आप समझ सकते हैं कि इस सदी के ११ साल में हम एक क़दम भी आगे नहीं बढ़े। आप भी पढ़िए यह कविता....

आखिर हमारी सदी भी बीत चली है
इसे दूसरी सदियों से बेहतर होना था
लेकिन अब तो
इसकी कमर झुक गई है
साँस फूल गई है

कुछ समस्याएं थीं जिन्हें हल कर लेना था
मसलन भूख और लड़ाइयां
हमें बेबसों के आंसुओं के लिए
दिल में सम्मान जगाना था
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ

आज ये हालात है कि
सुख एक मारीचिका बनकर रह गया है
कोई नहीं हंसता है बेवकूफियों पर
और न ही फख्र करता है
अक्लमंदी पर
अब तो यह उम्मीद भी
सोलह साला हसीना नहीं रही

हमने सोचा था कि
आखिरकार खुदा को भी
एक अच्छे और ताकतवर इंसान पर भरोसा करना होगा
लेकिन अफसोस
इंसान अच्छा और ताकतवर
एक साथ नहीं बन सका

आखिर हम जियें तो कैसे जियें
किसी ने ख़त में पूछा था
मैं भी तो यही पूछना चाहती थी
जैसा कि आप देख चुके हैं
हर बार वही होता है
सबसे अहम सवाल
सबसे बचकाने
ठहरा दिये जाते हैं