रविवार, 30 अक्तूबर 2011

बर्फ की सफेद चादर मोटी होती जा रही थी

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार


पिछले दो रविवार आपने कश्मीर को लेकर दो सच्ची कहानियां पढ़ीं और आज जो वाकया मैं आपसे साझा करने जा रहा हूं, वह और ज्यादा संवेदनशील है। हो सकता है कुछ लोगों को यह वाकया अच्छा न लगे। लेकिन सिर्फ अच्छी लगनी वाली चीजों से कश्मीर समझना संभव नहीं है, कड़वी चीजों को भी समझना पड़ेगा और उनसे निबटना पड़ेगा। इनको दबाकर रखेंगे तो नासूर बढ़ता ही जाएगा।
2002 की बात है। दीवाली निकल चुकी थी। नवंबर के आखिरी दिन चल रहे थे। हम लोग (मैं और मेरे दो साथी गुप्ता व शर्मा और ड्राइवर सोनू) सुबह करीब 10 बजे श्रीनगर से कंगन नाम के कस्बे को जाने के लिए निकले। कंगन पहुंचने के बाद हमने सोचा कि क्यों न सोनमर्ग तक हो आया जाए। लिहाजा आगे चल पड़े। आसमान पर धुंध थी, बादल थे। हम लोगों को भूख लग रही थी। सड़क किनारे तीन-चार दुकानें और नीचे की तरफ एक गांव दिखाई दिया। हम रुक गए कि शायद यहां खाने को कुछ मिल जाए। शाम के 3 बज रहे थे। उन दुकानों पर तो कुछ मिला नहीं लेकिन एक दुकानवाले ने बताया कि नीचे गांव में आपको पकौड़े और आमलेट मिल जाएगा। गांव से खाने का सामान लाने शर्माजी ड्राइवर को लेकर सड़क से नीचे उतर गए। मौसम थोड़ा खराब हो चला था। बादल धीरे-धीरे बर्फ के फाहे गिराने लगा था। थोड़ी दूर पर सड़क किनारे एक शेड था जिसमें बनीं दुकानें बंद थीं। वहां दो फौजी मुस्तैदी से खड़े थे। चलो इन फौजियों से बात की जाए, यह सोचकर हम शेड के नीचे पहुंच गए। फौजी हमसे मिलकर खुश हुए। उनमें से एक हरियाणा का रहने वाला था और दूसरा उत्तर प्रदेश का। हम लोग भी मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जो थे। हरियाणवी जवान हमारे परिवारों के बारे में बात करने लगा तो गुप्ता जी बताया कि उनकी शादी अभी नहीं हुई है। हम कश्मीर के बारे में उसकी समझ जानने के लिए सवाल करने लगे। तभी शाम की चाय बांटता फौजी ट्रक शक्तिमान वहां से गुजरा। उन जवानों ने अपने गिलास निकाले और चाय लेकर हमें दे दी कि पीजिए साहब, इस बर्फबारी में आगे दूर तक चाय न मिलेगी न इस तरफ न उस तरफ। शक्तिमान चला गया। तभी दूर से 12-13 साल की एक बच्ची सिर पर लकड़ियों का गट्ठर उठाए हुए आती दिखाई दी। उसके साथ 8-9 साल का एक बच्चा भी था। फौजियों ने भी उनको देखा फिर गुप्ताजी से पूछा आपने शादी क्यों नहीं की अब तक? गुप्ताजी कोई जवाब देते, उससे पहले ही हरियाणवी जवान ने कहा कि लड़की पसंद कर लीजिए और ठीक लगे तो शादी कर लीजिए। इस पर गुप्ताजी ने चुहुल की कि लड़की मिलती ही कहां है जो पसंद करूं और शादी करूं। गुप्ताजी का यह कहना था और जवान का जवाब आया कि अभी लड़की दिला देते हैं। तब तक लकड़ी का गट्ठर लिए वह बच्ची और पास आ चुकी थी। बच्ची का चेहरा भावविहीन था। वह बहुत तेजी से चल रही थी दूसरी तरफ देखते हुए। जैसे वह जल्दी से उस जगह को पार कर लेना चाह रही हो। जवान आगे बढ़ा और बच्ची का हाथ पकड़ लिया। फिर कहा, सर इसे ले जाइए उधर और पसंद कर लीजिए। बच्ची कांप रही थी और उसके साथ का बालक डरी नजरों से कभी हमें देखता, कभी उस बच्ची को जो शायद उसकी बड़ी बहन थी। हमने जवान को डांटा कि ये क्या बदतमीजी है और बच्ची का हाथ छोड़ने को कहा। जवान ने हाथ तो छोड़ दिया लेकिन हमें समझाने लगा कि डरते क्यों हैं सर, यहां कोई कुछ बोल नहीं सकता।...बर्फबारी तेज हो चुकी थी और आसपास के पेड़ों व सड़क पर बर्फ की सफेद चादर मोटी होती जा रही थी।
वापस श्रीनगर आते हुए मैं सोचता रहा कि उस बच्ची और नन्हें बालक के दिल-दिमाग में क्या चल रहा होगा। आप भी सोचिए उन बच्चियों और बालकों के दिल बनकर। इसकी भी जरूरत है कश्मीर को क्योंकि कश्मीर सिर्फ धरती का टुकड़ा नहीं, बल्कि हमारे-आप जैसे चलते-फिरते लोगों से है जिनके पास हमारी-आपकी तरह दिल भी है और दिमाग भी।

और अंत में....

कश्मीर में 16वीं सदी में छोटे से गांव चंद्रहार के एक साधारण परिवार में एक बच्ची पैदा हुई जो चांद की तरह खूबसूरत थी, लिहाजा उसके अब्बा ने उसका नाम रखा जून। जून का अर्थ होता है चांद। जून को गीत अच्छे लगते थे और उसने बहुत कम उम्र में गीत बनाने शुरू कर दिए। वह उन्हें लिखना भी चाहती थी लिहाजा गांव के मौलवी से कश्मीरी लिखना सीखा। जब वह बड़ी हुई तो उसके अब्बा ने अपने जैसे ही एक परिवार में उसका विवाह कर दिया। शौहर अनपढ़ था, उसे जून की शायरी समझ में न आती। जून उदास रहती और उदासी के प्रेमगीत रचती। एक दिन वह उदासी का ही कोई गीत गुनगुना रही थी कि उधर से एक घुड़सवार नौजवान गुजरा। उसके कानों में जून की आवाज पड़ी। उसने जून को अपने पास बुलाया। एक ही नजर में मोहब्बत हो गई। उसने जून की दास्तां सुनने के बाद सबकी रजांमंदी से जून का तलाक करवाया और खुद जून से निकाह कर लिया। यह नौजवान युसुफ शाह चक बाद में कश्मीर का राजा बना और हब्बा खातून की शायरी के चर्चे दूर-दूर तक फैलने लगे, पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। सन् 1579 में मुगल बादशाह अकबर ने युसुफ शाह को दिल्ली बुलवाया। युसुफ दोबारा हब्बा के पास वापस कभी नहीं लौटा। उसे बादशाह ने जबरदस्ती बिहार में एकांतवास में डाल दिया। हब्बा विरह की शायरी में डूब गई। वह झेलम के किनारे विरह के गीत गाते हुए भटकती। कुछ दिन बाद उसकी मौत हो गई। आज भी श्रीनगर के पास अथावजान में हब्बा खातून की मजार है। कश्मीर में आज भी हब्बा खातून के गीत आपको सुनने को मिल जाएंगे। फिलहाल तो पढ़िए मूल कश्मीरी भाषा से अनूदित हब्बा खातून का एक उदास गीत-


मैं पिघल रही हूं ऐसे
कि जैसे बर्फ पिघलती है सूरज की तपिश पर
पूरे शबाब पर है मेरा यौवन
फिर तुम दूर क्यों हो मुझसे...
मैंने तुम्हें पहाड़ों पर ढूंढ़ा
और ढूंढ़ा पहाड़ की चोटियों पर
मैंने तुम्हें झरनों में ढूंढ़ा
और ढूंढ़ा नदियों की लहरों में
सजाए दस्तरख्वान भी तुम्हारे लिए
फिर तुम दूर क्यों हो मुझसे..
मैं आधी रात तक दरवाजे खुले रखती हूं
आओ बस एक बार आओ मेरे सरताज
क्या भूल गए हो राह मेरे दर की
तुम दूर क्यों हो मुझसे..

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

हम यहीं अच्छे हैं सर?

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार



आज दूसरी कहानी....2002 की बात है. जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने वाले थे. मैं अकसर जम्मू से श्रीनगर जाता रहता था. आतंकवाद चरम पर होने की वजह से अच्छे होटल अति महंगे थे और सामान्य होटलों में डर लगता था. हमें तलाश थी सस्ती और सुरक्षित रिहाइश की. इसी दौरान हमें पता चला कि हमारी टीम में घर-घर जाकर अखबार बुक करने के लिए जो लड़के रखे गये हैं, उनमें से एक हाउसबोट वाला है. हाउसबोट में उस समय कोई नहीं ठहरता था. क्यों? क्योंकि बाहर के लोगों का कहना था कि ये हाउसबोट वाले आतंकवादियों को पनाह देते हैं. इसलिए इनमें ठहरना खतरे से खाली नहीं है. नब्बे के दशक में कुछ वारदातें-मुठभेड़ें भी डल झील में हुई थीं. लोग उनके उदाहरण पेश कर देते थे. 12-13 साल के आतंकवाद से हाउसबोट वालों की माली हालत खस्ता हो चली थी. हमने उस लड़के से बात की. 20-21 साल का तीखे नाक-नक्श का गोरा-चिट्टा नौजवान. उसे देख कर जब जब फूल खिले फिल्म के हीरो शशि कपूर की याद आ जाये, तो किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए। उसका नाम था करना. करना ने बताया कि उसके पापा की तीन कमरों वाली एक हाउसबोट है. कश्मीर में सालों से मेहमान नहीं आ रहे हैं, लिहाजा इनकम बंद है. बचत का पैसा खत्म हो गया है. उसके सामने कोई भी छोटी-मोटी नौकरी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. हमने उससे पूछा कि हाउसबोट में कोई खतरा तो नहीं है. उसने कहा, खतरा किस बात का, हम तो वहीं रहते हैं. हमने कमरों का किराया पूछा तो उसने कहा, साहब कोई आता ही नहीं है, इसलिए रेट मुझे भी नहीं पता. पापा से पूछ कर बताऊंगा। अगले दिन उसने रेट बताया और हम उसकी हाउसबोट के नियमित ग्राहक हो गये. जब रात में वह अंगीठी लगाने हमारे कमरे में आता था, हम उससे बात करके यह समझने की कोशिश करते कि उसकी पीढ़ी कश्मीर मसले और वहां चल रहे आतंकवाद को कैसे देखती है. करना बताता कि कैसे उसका बचपन बहुत सुख-सुविधाओं से लैस था, उसके पापा अमीर हाउसबोट वालों में गिने जाते थे. वह शहर के नामी कान्वेंट में पढ़ता था, तभी एक दिन न जाने क्या हुआ कि स्कूल के गेट बंद कर दिए गये. आगे की कहानी उसी के शब्दों में....
बच्चों को कहा गया कि बाहर हड़ताल हो गयी है. सबके मां-बाप आकर ही बच्चों को ले जायेंगे. करना भी वहीं था. 10 साल का करना. दुनियादारी और सियासत से बेखबर. कुछ दिन बाद स्कूल में बेमियादी बंदी हो गयी. जब-तब श्रीनगर की सड़कों पर, बोलिवार्ड (डल झील के किनारे की सड़क) पर बड़े-बड़े जुलूस निकलते जिनकी अगुवाई एक नौजवान (यासीन मलिक) करता था. किशोर, युवा और बच्चे भी जुलूस देख कर रोमांचित होते थे. वे भी इसमें शामिल होते, नारे लगाते और अपने जोश के सहारे जुलूस के आगे-आगे चलने की कोशिश करते. धीरे-धीरे यह जोश उस युवक (यासीन मलिक) की ताकत में तब्दील हो गया. तमाम तरह की बातें फिजां में थीं कि कश्मीर आजाद हो जायेगा, हमारा अपना वतन होगा, पाकिस्तान के रास्ते खुल जायेंगे, उस तरफ के कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर) में भी हम जा सकेंगे. इस बीच उग्रवादी घटनाएं बढ़ने लगीं। फौज और बीएसएफ के ट्रक के ट्रक श्रीनगर में दिखाई देने लगे. पापा हमें बाहर जाने से रोकते. बाहर से जो मेहमान आते थे वे आना बंद हो गये और अब उनकी जगह फौजी वर्दी ने ले चुकी थी. आतंकवादी गुटों में स्थानीय लोग शामिल होने लगे थे. हाऊसबोट का धंधा बंद हो चुका था, लिहाजा हाउसबोट वालों के यहां के नौजवान खाली थे. उनमें से कुछ लड़के आतंकी गुटों के संपर्क में आये और गन लेकर आते थे और उन्हें डल के पानी में डाल देते थे. मेरे पापा और दूसरे लोग उनको समझाने की कोशिश करते तो वे कहते चुप रहो, आजादी आने वाली है. ये लड़के रात को कई हथियारबंद लोगों को लेकर आते और उनको हाउसबोटों में छिपाते, उनके हथियार पानी में छिपा देते. अधिकतर हाउसबोट वालों के आसपास हथियार पानी में छिपाये हुए थे. हम लोग न तो आर्मी या बीएसएफ को बता सकते थे और न आतंकियों को मना कर सकते थे. एक बार मेरे पापा ने मना किया था, मैं भी था वहां. कैसी-कैसी धमकियां और गालियां उन लोगों ने मेरे पापा को सुनायीं. एक बार तो बीएसएफ को पता चल गया कि एक हाउसबोट में एक पाकिस्तानी आतंकी छिपा हुआ है. सर्दियों के दिन थे. रात में डल के पानी पर बर्फ की पपड़ी जम जाती थी. बीएसएफ ने शाम ढलते ही डल की घेराबंदी शुरू कर दी. अंधेरा छा चुका था, बिजली होती नहीं थी. शिकारों पर बैठ कर बीएसएफ ने उस हाउसबोट की ओर बढ़ना शुरू किया जिसमें पाकिस्तानी छिपा था. हम लोग सहमे हुए अपनी हाउसबोट में थे कि आज की रात न जाने क्या होगा. तभी फायरिंग शुरू हो गयी. 10 मिनट बाद एक घायल आदमी हाथ में एक एके राइफल और एक बड़ा झोला लिए हुए हमारी हाउस बोट में आया. अंधेरा था, बिजली थी नहीं. हमारी हाउसबोट और उस हाउसबोट के बीच 9-10 हाउसबोट थीं. हम लोग डर गये. उसने कहा कि उसको छिपने की जगह चाहिए. हम लोग कांप गये. हमें लगा कि यदि यह आदमी यहां रुका तो बीएसएफ वाले हमारी हाउसबोट जला देंगे. हम उस आदमी को मना भी नहीं कर सकते थे क्योंकि फिर वह हमें भून देता. पापा ने उससे कहा कि यहां छिपने से अच्छा है कि पीछे के रास्ते से डल से निकल जाये. यहां तो बीएसएफ वाले आ ही जायेंगे. उसकी कुछ समझ में आया और वह अपने हाथ के झोले को डल में फेंक कर बोला, ये झोला बाद में ले जायेंगे. मुझे रास्ता दिखाओ. बाद में जब उसे छोड़ कर पापा लौटे तो किरोसिन लैंप के उजाले में हमने देखा कि हमारी हाउसबोट तक खून की बूंदें थीं और फिर जाने वाले रास्ते की तरफ भी. उस ठंड में हम सबने बर्फानी पानी से खून की बूंदें धोयीं. मैंने करना से पूछा कि आज वह क्या महसूस करता है. उसने कहा, हम तो कंगाल हो गये. अमन आये तो सैलानी आयें और हमारी जिंदगी पटरी पर आयें. हमने पूछा, आजादी? उसने कहा कि हम यहीं अच्छे हैं  सर. इस किस्से से शायद हम सबको कश्मीर समझने में कुछ मदद मिले. अगली कहानी, अगले रविवार....


और अंत में.
..
कश्मीर के विस्थापित कवि, अग्निशेखर दूर रहते हुए भी कश्मीर को अपने दिल से कभी जुदा ना कर सके. आतंक और आक्रमण के साये में अपनी धरती-अपने लोगों से प्यार और दर्द को अपनी धड़कनों से कविता में उतारने वाले अग्निशेखर की एक कविता...

हिजरत

जब मेरी उपस्थिति
मेरे न होने से बेहतर
लगने लगे
जब मैं एक भी शब्द कहने से पहले
दस बार सोचूं
जब बच्चे की सहज किलकारी तक से
पड़ता हो किसी की नींद में खलल
और जब दोस्तों के अभाव में
करना पड़े एकांत में
किसी पत्थर के साथ सलाह-मशवरा
तब मैं पड़ता हूं संघर्ष में अकेला
और सघन अंधेरे में दबे पांव
करता हूं शहर से हिजरत
(हिजरत का अर्थ होता है अपना वतन छोड़ कर दूसरे वतन में जा बसना)

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

वह लकड़ी, मिट्टी और अखरोट लेकर आया


यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार



कश्मीर को लेकर एक बार फिर चर्चाएं सतह पर हैं...प्रशांत भूषण, अरुंधति राय से लेकर बाल ठाकरे तक। जम्मू-कश्मीर को लेकर सबके अपने चश्मे हैं और उन चश्मों को उतार कर कश्मीरियों की आंखों से कश्मीर को देखने को कोई तैयार ही नहीं होता। इस राज्य के चप्पे-चप्पे में इतनी मार्मिक कहानियां बिखरी हुई हैं और रोज घटती भी रहती हें। इन कहानियों को एक ही चश्मे से देखने की जरूरत है और वह चश्मा है इंसानी चश्मा। मैं उस समय जम्मू-कश्मीर में रहा हूं जब वहां आतंकवाद अपने चरम पर था और शांति प्रक्रिया भी चरम पर। युद्धोन्माद और लोकतंत्र की जय के नारे भी चरम पर। लेकिन इन सबके साथ वहां के लोगों की जिंदगी को समझे बिना कोई भी धारणा बनाना शायद ठीक नहीं होगा। मैं यहां तीन कहानियां देना चाहता हूं। आज पहली कहानी। यह कहानी मैं पहले एक ब्लाग पर लिख चुका हूं लेकिन मुझे लगता है कि जम्मू-कश्मीर की मानवीय त्रासदी का यह कहानी बेहतरीन प्रतिबिंब है। इसलिए इसे दोबारा देने की धृष्टता कर रहा हूं....
 यह कहानी है एक कश्मीरी पंडित बच्चे की जो कश्मीर से विस्थापित माता-पिता के साथ जम्मू में रहता था। उसके मां-बाप 1990-91 में कश्मीर से भागकर जम्मू आए थे। यह बच्चा उस समय मां की गोद में था। पिता उसे अनंतनाग स्थिति अपने मकान और खेतों के बारे में लगातार बताते रहते थे। बच्चा धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था। अपने पिता के बचपन, दक्षिणी कश्मीर खासतौर पर अनंतनाग जिले का विवरण उसे आकर्षित करता था। जब वह 10 साल का हुआ तबसे उसने अनंतनाग जिले के अपने मकान को देखने की जिद शुरू की। पिता उसे किसी न किसी बहाने टालते रहते थे। वह बच्चा अपने मां-पिता और रिश्तेदारों से अपने मूल स्थान (दक्षिणी कश्मीर) से जुड़े किस्से सुनते-सुनते 7वीं कक्षा में गया। वह अपनी जमीन छूना चाहता था, अपने मकान को देखना चाहता था, वहां के चश्मों के पानी से खेलना चाहता था। कच्चे अखरोट से अपने हाथों पर कलाकारी करना चाहता था (कच्चा अखरोट घिसने पर लाल रंग छोड़ता है और यदि आप उसे हाथ पर घिसें तो लगता है जैसे मेंहदी लगा ली हो)। धीरे-धीरे उसका धैर्य जवाब देने लगा या यह कहें कि जन्मभूमि का आकर्षण धैर्य पर भारी पड़ना शुरू हो गया। एक दिन वह रोजाना की तरह घर से स्कूल के लिए निकला। जेब में अपनी बचत के सारे पैसे (करीब 250 रु.) लेकर। उसने तय कर लिया था कि आज वह अपने पुश्तैनी घर जाएगा जरूर। काफी देर तक वह जम्मू के बसअड्डे पर बैठा रहा। करीब 11 बजे उसने अपना इरादा और हिम्मत और पक्की की, बैठ गया अनंतनाग जाने वाली बस में। बस्ता साथ में था और उसमें लंच बाक्स। उसने पता कर लिया था कि अनंतनाग से कहां की बस पकड़नी होगी। शाम को बस अनंतनाग पहुंची। वहां से उसने अपने गांव जाने वाली बस पकड़ ली। आखिरी बस थी सो 15-20 यात्री ही उसमें थे। उधर, जम्मू में जब बच्चा शाम को घर नहीं पहुंचा तो माता-पिता चिंतित हुए। स्कूल से पता किया तो पता चला कि वह बच्चा तो आज स्कूल ही नहीं गया। पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। फिर मां-बाप ने सोचा, अखबारों में इश्तहार भी दें दें। तो वे हमारे अखबार के दफ्तर भी आए। वहां गांव वाली बस में एक व्यक्ति ने उस अकेले बच्चे को देखा तो उत्सुकतावश पूछ लिया कहां जाना है। बच्चे ने गांव का नाम बताया। उस व्यक्ति को बच्चे की शक्ल अपने उस पड़ोसी से मिलती-जुलती लगी जो 1991 में गांव छोड़कर चले गए थे। व्यक्ति ने बच्चे से पिता का नाम पूछा तो कनफर्म हो गया कि उन्हीं का बच्चा है। उस व्यक्ति ने पूछा बेटा अकेले क्यों आए। तो बच्चे ने वजह बता दी। वह व्यक्ति बच्चे को अपने साथ ले गया अपने घर। सुबह उसने जम्मू फोन करके बताया कि बच्चा उनके पास घर में है, वे चिंता न करें और यहां आकर बच्चे को ले जाएं। बच्चा जब लौटकर जम्मू आया तो अपने साथ लाया था अपने जले घर में बच गई लकड़ी के टुकड़े, थोड़ी सी मिट्टी और कुछ अखरोट !


और अंत में...
धूमिल की एक कविता...
मुझसे कहा गया कि संसद
देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का
नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद -
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

सौ में निन्यानबे अमेरिकी फिलहाल जब नाशाद हैं....


यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार


दुनिया के विकसित देशों में इस समय उथल-पुथल का दौर है और यह उथल-पुथल पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों के सतह पर आने से शुरू हुई है। जिन तथाकथित खुली आर्थिक नीतियों की रामबाण घुट्टी 20-22 साल पहले भारत जैसे विकासशील देशों को आर्थिक संकट से निकालने के नाम पर दी गई थी, आज उसी घुट्टी के खिलाफ विकसित देशों में जनउभार आकार लेता नजर आ रहा है। पूंजी के ग्लोबलाइजेशन के नाम पर कारपोरेट लूट और इसमें सरकार की मिलीभगत का आरोप अमेरिका-यूरोप में भी लगने लगा है। 2008 से मंदी से निपटने के नाम पर सरकारें जो पैकेज दे रही हैं, उनसे इन देशों के आम आदमी को कोई फायदा नहीं हो रहा है।
ब्रिटेन के अखबार गार्डियन की कालमनिस्ट नाओमी क्लेन ने शुक्रवार को लिखा कि एक फीसदी लोग हैं जो मौजूदा संकट से खुश हैं...जब आमजन हताश और डरा हुआ हो, वही सबसे मुफीद वक्त है कारपोरेट को फायदा पहुंचाने वाली नीतियों को लागू करने का। शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी को मुनाफे के खेल में बदलने के लिए निजीकरण, सार्वजनिक सेवाओं में कटौती और कारपोरेट्स को खुले हाथ से मदद....आर्थिक मंदी के दौर में आज यही सब हो रहा है। (पिछली सदी में सोवियत क्रांति के बाद स्थापित समाजवादी व्यवस्था के दबाव में सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक क्षेत्रों को अमेरिकी खेमे को सरकारी जिम्मेदारी में लेना पड़ा था। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद यह दबाव खत्म हो गया)  क्लेन लिखती हैं कि सरकारों के इस खेल पर सिर्फ एक ही ताकत विराम लगा सकती है और सौभाग्य से यह ताकत बहुत बड़ी है। मतलब बाकी 99 फीसदी लोगों की ताकत। और ये 99 फीसदी लोग सड़क पर उतरने लगे हैं। अमेरिका शहर मैडिसन से स्पेन की राजधानी मैड्रिड तक ये लोग कह रहे हैं कि एक फीसदी लोगों को संकट से उबारने (फायदा पहुंचाने) के लिए हम सरकारों को अपनी जेब पर डाका नहीं डालने देंगे..नो, वी विल नाट पे फार योर क्राइसिस। दरअसल, यदि अमेरिका को देखें तो 2008 की मंदी के बाद से जहां सबसे ज्यादा आय वाले एक फीसदी लोगों की आय में करीब 46 फीसदी का इजाफा हुआ है, वहीं बाकी 99 फीसदी की आय कम हुई है। बर्कले विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री एमैनुएल साएज (elsa.berkeley.edu/~saez/saez-UStopincome-2007.pdf) के मुताबिक 1993 से 2008 के बीच जहा एक फीसदी अमेरिकियों (टाप इनकम ग्रुप) की आय 79 फीसदी बढ़ी वहीं बाकी 99 फीसदी अमेरिकियों की आय सिर्फ 12 फीसदी। इसका मतलब यह हुआ कि इन 15 सालों के दौरान अमेरिकी अर्थव्यवस्था के कुल विकास का 65 फीसदी इस एक फीसदी की झोली में गया और 99 फीसदी को 35 फीसदी ही मिला। ये एक फीसदी कौन लोग हैं...जाहिर है कि कारपोरेट। अमेरिका में यह धारणा आम लोगों के मन में घर कर चुकी है कि राजनीतिक लोगों और कारपोरेट्स के बीच गठजोड़ में आम अमेरिकी के हितों को अनदेखा किया जा रहा है। लोगों को लग रहा है कि उनके प्रतिनिधि और राजनीतिक दल कारपोरेट्स के हाथों बिक चुके हैं। इसी की परिणिति हुई अकुपाई वालस्ट्रीट आंदोलन के रूप में। यह आंदोलन 17 सितंबर से काहिरा के तहरीर चौक और भारत के अन्नाग्रह की तर्ज पर शुरू हुआ। इसके पीछे कोई संगठन नहीं है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए यह आंदोलन पूरे अमेरिका में फैल चुका है। लोग अपने-अपने शहर में अपनी-अपनी तरह से इसे समर्थन दे रहे हैं। न्यूयार्क, शिकागो, मैडिसन, वाशिंगटन, बोस्टन, टाम्पा, अलबर्क, डेनवर, लासएंजेल्स, सैनफ्रांसिस्को आदि शहरों में लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं। कई जगह झड़पें भी हुई हैं और सैकड़ों लोग गिरफ्तार किए गए। न्यूयार्क में तो सैकड़ों प्रदर्शनकारी स्लीपिंग बैग लेकर जमे हुए हैं। यूरोप में पहले से ही अर्थनीतियों के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे हैं। यूरोपीय देशों की अर्थनीतियों की वजह से यहां लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं। मजबूत मानी जाने वाली आयरिश अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी में जबरदस्त इजाफा हुआ। इन सबके चलते डबलिन, एथेंस, मैड्रिड, पेरिस, लंदन, रेक्वाजिक आदि शहरों में हड़ताल व प्रदर्शनों का दौर चल रहा है। ब्रसेल्स में तो एक लाख लोगों ने सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया। लोगों का कहना है कि उनकी सरकारें उन्हीं लोगों (कारपोरेट्स व बैंक) के लिए वित्तीय पैकेज दे रही हैं जिनकी वजह से आर्थिक संकट आया है। यह सिलसिला रुकना चाहिए। द यूनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका में जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों के प्रति बने अविश्वास और आर्थिक मंदी से भय के माहौल पर टाम एंजेलहार्ट की एक किताब भी आने वाली है – द यूनाइटेड स्टेट्स आफ फीयर। इस किताब की बड़ी संख्या में अग्रिम बुकिंग हो चुकी है।


और अंत में...

पिछले दिनों भारत भूषण अग्रवाल की कविताओं की किताब ओ अप्रस्तुत मन हाथ लगी। 1958 में छपी इस किताब की भूमिका में कवि ने खुद लिखा था...यदि इन्हें पढ़कर आपको निराशा हो तो आप मध्यवर्गीय मन को आशान्वित करने की ओर प्रवृत्त हों, यदि उसके अधूरे, अपर्याप्त जीवन पर आपके मन में सहानुभूति उत्पन्न हो, तो आप उसके विकास के पथ को प्रशस्त करने की ओर प्रवृत्त हों, और यदि उसके क्षुद्र, ओछे जीवन से आपके मन में वितृष्णा का उदय हो, तो आप व्यक्ति की सही प्रतिष्ठा की ओर प्रवृत्त हों, यही निवेदन है। इस कविता संग्रह से दो कविताएं...

1.      समाधि लेख

रस तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया
जी में बसंत था, एक फूल ही दिया
मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है :
कैसे बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया !

2.      गीत नहीं मिले

मिट्टी का परस कभी जाना नहीं
मिट्टी का सम्मोहन?
माना नहीं .
अपने हाथों उगाया कभी एक दाना नहीं
इसीलिए-
आया तुझे गाना नहीं !

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

अन्‍नाग्रह के एक माह बाद


यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार


अन्ना हजारे का अनशन समाप्त हुए एक माह से ज्यादा बीत गया है. जो माहौल उन दो हफ्तों के दौरान पूरे देश में दिखाई दे रहा था, उससे यह लगने लगा था कि आमजन अब छोटे-छोटे कामों के लिए घूस मांगे जाने पर ठेंगा दिखाने लगेंगे.
भ्रष्ट्राचार करनेवाले नियम-कानून से चलनेवालों पर खुले आम फ़ब्तियां कसने में डरने लगेंगे. शायद देश का पॉलिटिकल क्लास इस आंदोलन से सबक लेकर थोड़ा नैतिक और जवाबदेह दिखाई देने लगे. लेकिन एक माह के बाद फ़िर वही ढाक के तीन पात. अगस्त माह में अन्ना के अनशन के दौरान मेरे एक सहकर्मी ने बताया था कि इस बार उसे नगर निगम का टैक्स जमा करने में कोई दिक्कत नहीं आयी और 50 रुपये भी नहीं देने पड़े, लेकिन आज के गांधी के अनशन से गांधी जयंती आने तक यह माहौल धीरे-धीरे खत्म हो गया.
संसद हो या सड़क, सब जगह जीवन वैसे ही चलने लगा है, जैसे कुछ हआ ही नहीं था. दूसरी तरफ़, अमेरिका में अन्ना की तर्ज पर मौजूदा गवर्नेस के खिलाफ़ माहौल बन रहा है. आर्थिक कुप्रबंधन से गुजर रहे अमेरिका में मंदी की आहट है और लोगों को लग रहा है कि राजनीतिक दल देशहित को नहीं, बल्कि पार्टीहित को साध रहे हैं और इससे देश (अमेरिका) का बंटाधार हो रहा है.
अमेरिकी कारपोरेट जगत के एक खेमे ने अमेरिकियों की इस भावनाओं को स्वर देना शुरू किया है. पिछले दिनों अमेरिकी काफ़ी चेन स्टारबक्स के सीइओ होवार्ड शुल्ज ने न्यूयार्क टाइम्स में विज्ञापन देकर कारपोरेट जगत का आह्वान किया कि जब तक देश की दोनों पालिटिकल पार्टियां (डेमोक्रैट्स व रिपब्लिकन) अपना रवैया ठीक करने का भरोसा नहीं दिलातीं, राष्ट्रपति चुनाव के लिए कोई भी उनको राजनीतिक चंदा न दे. यहां हम, आपको बताते चलें कि 2012 के राष्ट्रपति चुनाव के लिए संसाधन जुटाने की प्रक्रिया वहां शुरू हो चुकी है और राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को कई जगह विरोध का सामना करना पड़ रहा है.
शुल्ज ने न्यूयार्क टाइम्स में दिये गये विज्ञापन में कहा है कि दोनों पार्टियों के निर्वाचित प्रतिनिधि अमेरिका को सही नेतृत्व दे पाने में विफ़ल दिखाई दे रहे हैं. ये लोग पार्टीलाइन और पार्टीहित के सामने जनहित (अमेरिकी हितों) की अनदेखी कर रहे हैं. भविष्य में सामूहिक भरोसा और अपनी दिक्कतों को सफ़लतापूर्वक हल करने की क्षमता हम अमेरिकियों की डॉलर से ज्यादा बहमूल्य पूंजी है. लेकिन इन राजनीतिक प्रतिनिधियों ने इस पूंजी को ही नष्ट करना शुरू कर दिया है.
शुल्ज ने अपने कारपोरेट साथियों का आह्वान किया है कि इस पूंजी को बचाने के लिए आइए हम राष्ट्रपति ओबामा और इन पार्टियों को तब तक चुनावी चंदा न जारी करने का संकल्प लें जब तक कि ये व्यापक अमेरिकी हित में काम करने का भरोसा नहीं दिलाते. शुल्ज का अभियान शुरुआत में तो धीमा चला, लेकिन धीरे-धीरे जोर पकड़ गया. अब 150 कारपोरेट सीइओ उनके इस अभियान से जुड़ चुके हैं.अन्ना का अभियान जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ़ था और उसकी ताकत भारतीय मध्य व निम्न मध्य वर्ग था वहीं शुल्ज का अभियान रोजगार और बेहतर बिजनेस माहौल के लिए है और उसकी ताकत अमेरिकी कारपोरेट जगत है. मीडिया भी शुल्ज को समर्थन दे रहा है.
यदि किसी का समर्थन शुल्ज को नहीं मिल पा रहा है, तो वे हैं भारतीय या भारतीय मूल के सीइओ. खैर जो भी हो, अमेरिकियों को लगने लगा है कि ये राजनीतिक अपनी और अपनी पार्टी की नाक रखने के लिए देश का कबाड़ा कर रहे हैं. देखना यह है कि क्या शुल्ज अपने इस अभियान से अमेरिकी चुनावों पर कोई प्रभाव डाल पायेंगे या नहीं.
और अंत में
अवधी के एक कवि थे रफ़ीक शादानी. फ़ैजाबाद में सब्जी का ठेला लगाते थे. दो साल पहले उनका इंतकाल हआ. अभी यू-ट्यूब पर उनके कविता पाठ के दो वीडियो देखने को मिले. आप भी लीजिए, उनकी कविता का आनंद. दो कविताओं की चार-चार लाइनें यहां प्रस्तुत हैं-
गुस्सा आवा, बुद्धि गै
आंधी आयी, बत्ती गै
जबसे आवा ईलू-ईलूतुलसी की चौपाई गै
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तुम चाहत हौ भाई-चारा, उल्लू हौ
देखै लागेव दिन हिमतारा, उल्लू हौ
समय का समझौ यार इशारा, उल्लू हौ
तुमह मारौ हाथ करारा, उल्लू हौ