शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

पुनि-पुनि चंदन, पुनि-पुनि पानी शालिग्राम सरिगे, हम का जानी

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर से साभार) 


वर्ष २०११ का यह आखिरी रविवार है। चूंकि मैं पत्रकार हूं, लिहाजा मेरे दिमाग़ में भी यही सवाल है कि साल की बड़ी ख़बरें क्या रहीं। मैं ये ख़बरें गिनाकर बोर नहीं करना चाहता। लेकिन जब मैं साल की बड़ी ख़बरों के बारे में सोच रहा था तो सबसे बड़ी बात यह उभर कर सामने आई कि दुनिया आज जिस वैचारिक विकल्पहीनता सेगुज़र रही है, उतना संकट पिछले १०० सालों में शायद ही देखने को मिला हो। मिस्र का जनउभार हो, अपने यहाँ का अन्ना आंदोलन हो या अमेरिका में एक फीसदी बनाम ९९ फीसदी का सवाल उठाने वाले प्रदर्शन, कहीं कोईवैचारिक स्पष्ता नहीं है। मुझे तो बचपन में सुना हुआ एक किस्सा याद आ रहा है। एक पंडित का बेटा बहुत शैतान था। पंडित जी बेचारे बहुत परेशान थे। पंडित जी सुबह शाम पूजा करते थे और काले पत्थर की बटिया के रूप में शालिग्राम को सुबह शाम गंगाजल से स्नान कराते थे और चंदन लगाते थे। एक दिन पंडित जी के बच्चे की नज़र काली बटिया पर पड़ी। बच्चा उसे लेकर खेलने लगा। खेल में वह बटिया कहीं खो गई। बच्चे को पता था कि अब पंडित जी उसको बहुत कूटेंगे। बच्चे ने कुटाई से बचने के लिए बहुत दिमाग़ लगाया। आषाढ़ का महीना था। गांव में जामुनों की बहार थी। बच्चे के दिमाग में आइडिये का बल्ब जला और उसने पूजा में शालिग्राम की जगह जामुन रख दिया। पंडित जी पूजा करने बैठे। उन्होनें आचमनी से शालिग्राम पर गंगाजल डाला और जैसे उन्होनें शालिग्राम को पोंछा, तो गूदा उतर गया और गुठली हाथ में आ गई। पंडित जी का पारा सातवें आसमान पर था। उन्होंने चिल्लाकर बच्चे से कहा कि तुमने शालिग्राम उठाया था। बच्चे ने कहा नहीं। पंडित ज और जोर से चिल्लाए। इस पर बच्चे ने सफाई दी- पुनि-पुनि चंदन,  पुनि-पुनि पानी, शालिग्राम सरिगे हम का जानी। यानी बार-बार आप चंदन लगाते हैं, बार-बार पानी से नहलाते हैं। ऐसे में हो सकता है कि शालिग्राम सड़ गये हों, इसमें मेरा क्या कुसूर। ये तो एक किस्सा है लेकिनआज के संदर्भ में देखें तो लगता है कि असली शालिग्राम जामुन बन चुका है। और उसी पर पुनि-पुनि चंदन, पुनि-पुनि पानी। मतलब यह कि कोई नया विचार नहीं, कोई विकल्प नहीं। समाज, राजनीति और अर्थ में खदर-बदर तो है लेकिन आगे कोई राह नहीं, कोई नवोन्मेष नहीं। २०११ यही खदर-बदर देकर जा रहा है और २०१२ के लिए चुनौती के रूप में नवोन्मेष की जरूरत। इस साल का हिट गाना भी वर्षांत में ही आया - व्हाई दिस कोलावेरी डी... कोलावेरी डी भी इसी विकल्पहीनता और विचारशून्यता को परिलक्षित करता है। है न! ऐसा गाना हिट हो जाए जिसका कोई अर्थ न निकलता हो तो उसे और क्या कहेंेगे? देखना यह होगा क्या नये साल मे यह कोलावेरी डी मौजूदा खदर-बदर को किसी सार्थक हस्तक्षेप में बदल पाएगा कि नहीं? यह उलटबांसी ही है लेकिन नये रास्ते उलटबांसियों से ही निकलते हैं।
और अंत में...शमशेर बहादुर सिंह की बहुत प्रसिद्ध कविता है - बात बोलेगी। साल के अंतिम रविवार के यदृच्छया के अंत में इससे बेहतर कविता क्या होगी -

बात बोलेगी
हम नहीं।
भेद खोलेगी 
बात ही।

सत्य का मुख
झूठ की आँखें

क्या-देखें!
सत्य का रूख़
समय का रूख़ है

अभय जनता को
सत्य ही सुख है

सत्य ही सुख।
दैन्य दानव काल
भीषण क्रूर
स्थिति कंगाल
बुद्धि घर मजूर।
सत्य का
क्या रंग है?-

पूछो
एक संग।

एक-जनता का
दुःख: एक।

हवा में उड़ती पताकाएँ
अनेक।

दैन्य दानव। क्रूर स्थिति।
कंगाल बुद्धि: मजूर घर भर।

एक जनता का - अमर वर:
एकता का स्वर।
-अन्यथा स्वातंत्र्य-इति।


हर क्षेत्र में सृजन, नवविचारों और नवोन्मेषों का साल हो २०१२, इन्हीं उम्मीदों के साथ शुभकामनाएँ .....

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें