रविवार, 23 अक्तूबर 2011

हम यहीं अच्छे हैं सर?

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार



आज दूसरी कहानी....2002 की बात है. जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने वाले थे. मैं अकसर जम्मू से श्रीनगर जाता रहता था. आतंकवाद चरम पर होने की वजह से अच्छे होटल अति महंगे थे और सामान्य होटलों में डर लगता था. हमें तलाश थी सस्ती और सुरक्षित रिहाइश की. इसी दौरान हमें पता चला कि हमारी टीम में घर-घर जाकर अखबार बुक करने के लिए जो लड़के रखे गये हैं, उनमें से एक हाउसबोट वाला है. हाउसबोट में उस समय कोई नहीं ठहरता था. क्यों? क्योंकि बाहर के लोगों का कहना था कि ये हाउसबोट वाले आतंकवादियों को पनाह देते हैं. इसलिए इनमें ठहरना खतरे से खाली नहीं है. नब्बे के दशक में कुछ वारदातें-मुठभेड़ें भी डल झील में हुई थीं. लोग उनके उदाहरण पेश कर देते थे. 12-13 साल के आतंकवाद से हाउसबोट वालों की माली हालत खस्ता हो चली थी. हमने उस लड़के से बात की. 20-21 साल का तीखे नाक-नक्श का गोरा-चिट्टा नौजवान. उसे देख कर जब जब फूल खिले फिल्म के हीरो शशि कपूर की याद आ जाये, तो किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए। उसका नाम था करना. करना ने बताया कि उसके पापा की तीन कमरों वाली एक हाउसबोट है. कश्मीर में सालों से मेहमान नहीं आ रहे हैं, लिहाजा इनकम बंद है. बचत का पैसा खत्म हो गया है. उसके सामने कोई भी छोटी-मोटी नौकरी करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. हमने उससे पूछा कि हाउसबोट में कोई खतरा तो नहीं है. उसने कहा, खतरा किस बात का, हम तो वहीं रहते हैं. हमने कमरों का किराया पूछा तो उसने कहा, साहब कोई आता ही नहीं है, इसलिए रेट मुझे भी नहीं पता. पापा से पूछ कर बताऊंगा। अगले दिन उसने रेट बताया और हम उसकी हाउसबोट के नियमित ग्राहक हो गये. जब रात में वह अंगीठी लगाने हमारे कमरे में आता था, हम उससे बात करके यह समझने की कोशिश करते कि उसकी पीढ़ी कश्मीर मसले और वहां चल रहे आतंकवाद को कैसे देखती है. करना बताता कि कैसे उसका बचपन बहुत सुख-सुविधाओं से लैस था, उसके पापा अमीर हाउसबोट वालों में गिने जाते थे. वह शहर के नामी कान्वेंट में पढ़ता था, तभी एक दिन न जाने क्या हुआ कि स्कूल के गेट बंद कर दिए गये. आगे की कहानी उसी के शब्दों में....
बच्चों को कहा गया कि बाहर हड़ताल हो गयी है. सबके मां-बाप आकर ही बच्चों को ले जायेंगे. करना भी वहीं था. 10 साल का करना. दुनियादारी और सियासत से बेखबर. कुछ दिन बाद स्कूल में बेमियादी बंदी हो गयी. जब-तब श्रीनगर की सड़कों पर, बोलिवार्ड (डल झील के किनारे की सड़क) पर बड़े-बड़े जुलूस निकलते जिनकी अगुवाई एक नौजवान (यासीन मलिक) करता था. किशोर, युवा और बच्चे भी जुलूस देख कर रोमांचित होते थे. वे भी इसमें शामिल होते, नारे लगाते और अपने जोश के सहारे जुलूस के आगे-आगे चलने की कोशिश करते. धीरे-धीरे यह जोश उस युवक (यासीन मलिक) की ताकत में तब्दील हो गया. तमाम तरह की बातें फिजां में थीं कि कश्मीर आजाद हो जायेगा, हमारा अपना वतन होगा, पाकिस्तान के रास्ते खुल जायेंगे, उस तरफ के कश्मीर (पाक अधिकृत कश्मीर) में भी हम जा सकेंगे. इस बीच उग्रवादी घटनाएं बढ़ने लगीं। फौज और बीएसएफ के ट्रक के ट्रक श्रीनगर में दिखाई देने लगे. पापा हमें बाहर जाने से रोकते. बाहर से जो मेहमान आते थे वे आना बंद हो गये और अब उनकी जगह फौजी वर्दी ने ले चुकी थी. आतंकवादी गुटों में स्थानीय लोग शामिल होने लगे थे. हाऊसबोट का धंधा बंद हो चुका था, लिहाजा हाउसबोट वालों के यहां के नौजवान खाली थे. उनमें से कुछ लड़के आतंकी गुटों के संपर्क में आये और गन लेकर आते थे और उन्हें डल के पानी में डाल देते थे. मेरे पापा और दूसरे लोग उनको समझाने की कोशिश करते तो वे कहते चुप रहो, आजादी आने वाली है. ये लड़के रात को कई हथियारबंद लोगों को लेकर आते और उनको हाउसबोटों में छिपाते, उनके हथियार पानी में छिपा देते. अधिकतर हाउसबोट वालों के आसपास हथियार पानी में छिपाये हुए थे. हम लोग न तो आर्मी या बीएसएफ को बता सकते थे और न आतंकियों को मना कर सकते थे. एक बार मेरे पापा ने मना किया था, मैं भी था वहां. कैसी-कैसी धमकियां और गालियां उन लोगों ने मेरे पापा को सुनायीं. एक बार तो बीएसएफ को पता चल गया कि एक हाउसबोट में एक पाकिस्तानी आतंकी छिपा हुआ है. सर्दियों के दिन थे. रात में डल के पानी पर बर्फ की पपड़ी जम जाती थी. बीएसएफ ने शाम ढलते ही डल की घेराबंदी शुरू कर दी. अंधेरा छा चुका था, बिजली होती नहीं थी. शिकारों पर बैठ कर बीएसएफ ने उस हाउसबोट की ओर बढ़ना शुरू किया जिसमें पाकिस्तानी छिपा था. हम लोग सहमे हुए अपनी हाउसबोट में थे कि आज की रात न जाने क्या होगा. तभी फायरिंग शुरू हो गयी. 10 मिनट बाद एक घायल आदमी हाथ में एक एके राइफल और एक बड़ा झोला लिए हुए हमारी हाउस बोट में आया. अंधेरा था, बिजली थी नहीं. हमारी हाउसबोट और उस हाउसबोट के बीच 9-10 हाउसबोट थीं. हम लोग डर गये. उसने कहा कि उसको छिपने की जगह चाहिए. हम लोग कांप गये. हमें लगा कि यदि यह आदमी यहां रुका तो बीएसएफ वाले हमारी हाउसबोट जला देंगे. हम उस आदमी को मना भी नहीं कर सकते थे क्योंकि फिर वह हमें भून देता. पापा ने उससे कहा कि यहां छिपने से अच्छा है कि पीछे के रास्ते से डल से निकल जाये. यहां तो बीएसएफ वाले आ ही जायेंगे. उसकी कुछ समझ में आया और वह अपने हाथ के झोले को डल में फेंक कर बोला, ये झोला बाद में ले जायेंगे. मुझे रास्ता दिखाओ. बाद में जब उसे छोड़ कर पापा लौटे तो किरोसिन लैंप के उजाले में हमने देखा कि हमारी हाउसबोट तक खून की बूंदें थीं और फिर जाने वाले रास्ते की तरफ भी. उस ठंड में हम सबने बर्फानी पानी से खून की बूंदें धोयीं. मैंने करना से पूछा कि आज वह क्या महसूस करता है. उसने कहा, हम तो कंगाल हो गये. अमन आये तो सैलानी आयें और हमारी जिंदगी पटरी पर आयें. हमने पूछा, आजादी? उसने कहा कि हम यहीं अच्छे हैं  सर. इस किस्से से शायद हम सबको कश्मीर समझने में कुछ मदद मिले. अगली कहानी, अगले रविवार....


और अंत में.
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कश्मीर के विस्थापित कवि, अग्निशेखर दूर रहते हुए भी कश्मीर को अपने दिल से कभी जुदा ना कर सके. आतंक और आक्रमण के साये में अपनी धरती-अपने लोगों से प्यार और दर्द को अपनी धड़कनों से कविता में उतारने वाले अग्निशेखर की एक कविता...

हिजरत

जब मेरी उपस्थिति
मेरे न होने से बेहतर
लगने लगे
जब मैं एक भी शब्द कहने से पहले
दस बार सोचूं
जब बच्चे की सहज किलकारी तक से
पड़ता हो किसी की नींद में खलल
और जब दोस्तों के अभाव में
करना पड़े एकांत में
किसी पत्थर के साथ सलाह-मशवरा
तब मैं पड़ता हूं संघर्ष में अकेला
और सघन अंधेरे में दबे पांव
करता हूं शहर से हिजरत
(हिजरत का अर्थ होता है अपना वतन छोड़ कर दूसरे वतन में जा बसना)

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