रविवार, 25 मार्च 2012

तीन प्रेम कहानियां और मरलिन मुनरो की कविताएं!


 यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर 25 मार्च, 2012 से साभार) 

मुझे लगता है कि आप पिछले हफ्ते की राजनीतिक उठापटक, रेल बजट, आम बजट आदि से बोर हो चुके होंगे। लिहाजा मुझे लगता है कि मैं इस बार कुछ ऐसा लिखूं कि इस बोरियत से आप उबर सकें। लेकिन न्यूजरूम में मैं भी तो इसी सब में व्यस्त था, इसलिए दिमाग में नया कुछ आ नहीं रहा। हां, एक आइडिया आया है। मैंने पहले एक ब्लांग पर कुछ बहुत अच्छी प्रेम कहानियां पढ़ीं थीं। इस ब्लाग की एक-दो कहानियां ही क्यों न आप लोगों को पढ़वा दूं। आपको भी मजा आ सकता है और मैं अगले हफ्ते के लिए आइडिया पर लग सकूंगा। तो लीजिए पढ़िये इस ब्लाग पर पोस्ट की गईं तीन छोटी-छोटी प्रेम कहानियां, जो मैंने कापी करके रखी थीं- 

कुंदेरा की किताब
तब वह 16 की थी. आज वह 31 की है. क्लास में एक किताब पर प्रोजेक्ट लिखने का काम मिला था. उसने लाइब्रेरी में देखा तो अचानक उसके हाथ लगी- अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बींग. उसने वही किताब इशू करवा ली. इसलिए नहीं कि वह मिलान कुंदेरा का नाम जानती थी. बल्कि इसलिए कि उससे पहले जिस लड़के ने वह किताब इशू करवाई थी, वह उस पर मरती थी. वह किताब उसने दो बार पढ़ी. किताब उसे पसंद आई. फिर वह लड़का और भी ज्यादा. दोनों की शादी हो गई. बाद में एक दिन उसने उस लड़के से पूछा तुम्हें कैसी लगी कुंदेरा की वह किताब. कौन सी किताब, लड़के ने पूछा. अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बींग, तुमने इशू करवाई थी न बुक प्रोजेक्ट के दौरान स्कूल में.
आह! वह ! हां इशू करवाई थी. पर पढ़ी नहीं.

हाथ पकड़ लिया, कहीं गुम जातीं तो कहां ढूंढते कैसे पहचानते


वे पूर्वज थे. चार पीढ़ी पहले के. तब मेरठ ही ज़िला था. उनकी शादी हुई तो उन्होंने एक दूसरे को पहले कभी नहीं देखा था. दिन में जब रौशनी होती, तो उनके मुंह पर घूंघट होता, घर के भीतर चहलपहल और सामूहिक परिवार का लिहाज. वह ज्यादातर खेत,आहते या बैठक में जहां औरतें झांक सकती थी, पर आ नहीं. शाम को जब वे साथ होते तो लैम्प की स्याह रौशनी होती. उनकी पहचान अंधेरे की ज्यादा थी रोशनी की कम. एक बार किसी काम से दोनों दिल्ली गये.चांदनी चौक में. वहां भीड़ थी. अजनबियत थी. उन्होंने कहा यहां घूंघट मत करो. वह धीरे से मान गईं. इक्के से उतरते हुए उन्होंने धीरे से उनका हाथ पकड़ लिया. कहीं गुम जातीं तो कैसे खोजते उन्हें, पहचानते कैसे. उनके अंधेरे की पहचान वहां कैसे काम आती. उनकी छोटी सी उंगलियों पर शर्म का पसीना था, उनके हाथों में जिम्मेदारी की पकड़. उन्होंने एक दूसरे की आंखों में देखा. लगभग पहली बार. वह मुस्कुराई. पहली बार इन आंखों में उनका मुस्कुराना दर्ज हुआ. चांदनी चौक से खरीदी चूड़ियों और माटी के इत्र की तरह ये निशानियां नई पहचान थी एक दूसरे से. एक लम्बी उम्र तक. परछाइयों की तरह हम तक


न हाथों में हाथ लिया, न नज़रें चुराईं


वह दोपहर की शिफ्ट में अख़बार में बैठा काम कर रहा था. यकायक उसे लगा उसकी कुर्सी को किसी ने धक्का दिया है. पर कोई नहीं था.मुड़कर देखा तो किसी ने कहा अर्थक्वेक.उनका दफ्तर पहली मंजिल पर था. सभी बाहर भागे. वह अंदर की तरफ. जहां वह बैठती थी. फिर वे दोनों बाहर निकले. बिना हाथ में हाथ लिए. पर बिना नजरें चुराए.सिर्फ एक झेंप के साथ कि कहीं कोई देख लेता तो लोग क्या कहते. जान बचाने की सभी को फिक्र थी. किसी ने नोटिस नहीं किया. उसके बाद वह उस पर थोड़ा ज्यादा मरने लगी. और उसके लिए वह थोड़ा और कीमती हो गई.








और अंत में

मरलिन मुनरो को कौन नहीं जानता। लेकिन उसकी जिंदगी में सबकुछ था, धन-दौलत, शोहरत, जान एफ, मिलर, दुख, निराशा, हताशा। बस कुछ नहीं था तो प्यार। इंटरनेट पर मैने उनकी कुछ कविताएं पढ़ी थीं। ये कविताएं मरलिन ने खुद लिखीं या किसी ने मरलिन की जिंदगी में उतर कर, यह तो नहीं पता। साहित्य के मानकों पर इनकी कोई जगह होगी या नहीं, यह भी नहीं कह सकता। फिलहाल, आप पढ़िये इन कविताओं को...

1.
कभी मैं तुम्हें प्यार कर सकती थी
और कह भी देती
पर तुम चले गये
और फिर देर हो गई
फिर मुहब्बत एक भुला दिया गया लफ्ज़ हो गया
तुम्हें याद तो है न
2.
ऐ वक़्त दया करो
इस थके हुए इंसान को वह सब
भुला देने में मदद करो
जो तकलीफदेह है
मेरा मांस खाते हुए
थोड़ा कम कर दो मेरे अकेलेपन को
थोड़ा ढीला छोड़ दो मेरे मन को

3.
है कोई मदद करने वाला
मदद चाहिए कि मैं महसूस करती हूं
उस वक़्त जिंदगी को अपने करीब़ आते
जब मैं चाहती हूं
बस मर जाना






रविवार, 18 मार्च 2012

हर तरफ तमाशा है, क्या अब भी कोई आशा है

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर 18 मार्च, 2012 से साभार) 




हर तरफ तमाशा है, क्या आपको अब भी कोई आशा है

मार्च का महीना अब तक बहुत न्यूजी रहा है। शुरुआत हुई थी विधानसभा चुनाव परिणामों से जिनमें कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी और उत्तर प्रदेश में अखिलेश एक नई राजनीति के चेहरे के तौर पर उभरे। इन नतीजों से शुरू हुई चर्चाएं थम भी नहीं पाईं थीं कि दिनेश त्रिवेदी के रेल बजट से राजनीति की रेल चलनी शुरू हो गई। टीवी चैनलों पर सरकार गिरने और बननी लगी।  कोलकाता और पीएमओ से तमाम तरह की बातें बाहर आने लगीं और अंदर जाने लगीं। न्यूज चैनलों ने इनकी गति टीआरपी की तर्ज पर बढ़ायी और गिरायी। 14 मार्च दोपहर 1.00 से शुरू हुआ खेल अब तक चल रहा है। इस खेल के खिलाड़ी पता नहीं समझेंगे कि नहीं, आम आदमी ऐसी ब्लैकमेलिंग वाली राजनीति से खुश नहीं हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो लोग 200-300 रुपये की किराया बढ़ोत्तरी के बाद भी यह कह रहे हैं कि इसमें गलत क्या?  अगर ममता का सियासी तमाशा न शुरू होता तो शायद लोग इस वृद्धि को जायज नहीं ठहराते। क्योंकि लोग ममता ब्रांड राजनीति से खिन्न हैं जो उनके नाम पर ही हो रही है। और इसीलिए ममता के तमाशे की जगह वह किराया वृद्धि का पक्ष ले रहे हैं। शायद कहीं हम सबके मन में यह बात है कि जो राजनीति हो रही है, वह हमारे लिये हितकारी नहीं है। हो सकता है कि ममता या इसके दूसरे खिलाड़ियों को अपने लिये फायदेमंद लग रही हो। बाकी राजनीतिक दलों को भी देखिये, वे किराया वृद्धि के खिलाफ खड़े होने की जगह यूपीए की राजनीति को मुद्दा बनाए हुए हैं।
हमारे देश की राजनीति ऐसी ही है। पिछले एक साल से खुलकर यह बात सामने आ रही है। जनलोकपाल का मसला हो, भ्रष्टाचार का मसला हो, काले धन का मसला हो, राजनीति में राजा की जय-जय है, राजा के सुख की चिंता है, राजा के सफल होने का संघर्ष है, राजा के विफल होने पर दुख है, राजा के लिए लूट का प्रावधान है, राजा की सुविधा का इंतजाम है और जनता, जनता तो लोकतंत्र में ताकतसंपन्न है ही, उसके लिए किसी को सोचने की क्या जरूरत? यही चल रहा है अपने लोकतंत्र में। उत्तर प्रदेश में देखिये। इसी बीच उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने शपथ ली। नई राजनीति का नारा देकर सीएम बने अखिलेश य़ादव ने अपने मंत्रिमंडल में जिन चेहरों को लिया, उसके क्या तर्क हैं। क्या राजा भैय्या बहुत विद्वान, जानकार, दूरदृष्टा, ईमानदार, कर्मठ हैं, इसलिए उन्हें मंत्री बनाया गया? क्या दूसरे मंत्री भी इन्हीं गुणों की वजह से नई राजनीति के कैबिनेट में पहुंचे हैं। क्या मंत्री बनाने में जनहित को देखा गया है या फिर इन मनसबदारों की जरूरतों का ध्यान रखा गया है। देश में, राज्य में, नगर निगम में, हर जगह यही होता आ रहा है। लेकिन अखिलेश की बात मैं इसलिए कर रहा हूं कि उन्होंने लोकतंत्र में रह रहे लोगों में थोड़ी उम्मीद जगाई है कि उत्तम राजनीति की ओर उत्तर प्रदेश जाएगा।
और फिर आया बजट। बजट में न कोई हिम्मत, न कोई अभिनवशीलता, न कोई राह, न कोई चाह। बस बजट पेश करना था सो प्रणब दा ने कर दिया। यह बजट एक्सेल शीट पर बना हुआ बजट लग रहा है जैसे किसी सीए ने बना दिया हो। इधर कम करो, उधर बढ़ाओ। नेट रिजल्ट पर फर्क देख लो कि अपने अनुरूप है कि नहीं है। बस। अपने देश में जो दूसरी पंचवर्षीय योजना पीसी महालनोबीस ने बनाई थी, उसी तरह का यह बजट है। पीसी अपने समय के बहुत बड़े सांख्यिकीविद थे। उस समय एक्सेल शीट तो होती नहीं थीं लेकिन उन्होंने मैनुअली ही भारी-भरकम मैट्रिक्स बना दी थी जिसमें बड़े-बड़े पीएसयू में उत्पादन, रोजगार आदि के आंकड़े फिट किये गए थे। लेकिन दादा के पास पीसी वाली महारत तो है नहीं।


पाकिस्तान की लेडी मंटो
लखनऊ में इन दिनों सार्क देशों के साहित्यकारों का एक बड़ा कार्यक्रम चल रहा है। इस आयोजन को कवर कर रहे अपने एक मित्र ने बताया कि उनकी मुलाकात पाकिस्तान की एक युवा लेखिका से हुई। फरहीन नाम की ये मोहतरमा पाकिस्तान में टीवी धारावाहिकों का निर्देशन भी करती हैं। बातचीत में मोहतरमा ने अपनी कहानियों के विषय के बारे में चर्चा की। कहानियों और धारावाहिकों के बोल्ड किरदारों के बारे में सुनकर मेरे मित्र ने कहा कि मंटो को यहां बहुत पढ़ा जाता है, इस पर फरहीन बोलीं कि मुझे तो पाकिस्तान में लेडी मंटो कहा जाता है। मैं तो सुनकर चौंक गया कि जिस पाकिस्तान में इसलामी नैतिकता को लेकर कट्टरपंथी इतने आक्रामक रहते हैं, वहां टीवी पर लेडी मंटों के धारावाहिक भी प्रसारित हो सकते हैं। वाकई पाकिस्तान बदल रहा है।






और अंत में
इस बार पढ़िये सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता...

कितना अच्छा होता


एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।

शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।

हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।

कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना ।




रविवार, 11 मार्च 2012

अखिलेश के कसीदे काढ़ने से पहले इंतज़ार करें

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
(प्रभात ख़बर से)


उत्तर प्रदेश में नयी राजनीति का दौर शुरू हो रहा है। सभी लोग इसे मान रहे हैं क्योंकि जल्द ही मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले 38 वर्षीय युवा नेता अखिलेश यादव ने ऐसा कहा है। यह चर्चा भी हो रही है कि उत्तर प्रदेश युवा नेतृत्व में उत्तम प्रदेश बन सकता है। मेरे मन दो-तीन सवाल उठ रहे हैं। पहला सवाल कि मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव में ऐसा क्या अंतर है जो अखिलेश के सत्तासीन होने के साथ नई राजनीति का दौर शुरू हो जाएगा। दूसरा सवाल, युवा नेता का तमगा देने को लेकर है और तीसरा सवाल यह है कि लैपटाप बांट कर, कृषि ऋण माफ करके व बेरोजगारी भत्ता से क्या प्रदेश चमकने लगेगा या प्रदेश को चमकाने के लिए दूर दृष्टि की जरूरत होगी, और क्या वह दूरदृष्टि अखिलेश में है?

पहले सवाल पर आते हैं। मुलायम जमीनी संघर्ष के साथ समाजवादी मूल्यों से प्रभावित होकर राजनीति में आए थे। मुलायम ने जब राजनीति शुरू की थी, उस समय कांग्रेस की तूती बोलती थी। यानी उनमें सत्ता से ज्यादा समाजवादी विचारधारा और मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता रही होगी। एक समतामूलक समाज बनाने का सपना रहा होगा। यह बात दीगर है कि जब वे सत्ता में आए सबकुछ बदल गया। अनिल अंबानी, अमर सिंह, जयाप्रदा से लेकर डीपी यादव, राजा भैय्या और न जाने कितने बाहुबली, छात्रों को नकल की छूट और गुंडों को गुंडागर्दी की छूट जैसे काम वे करने लगे। इस बार वह कुछ ज्यादा नहीं बोल रहे हैं, सिर्फ अखिलेश और धर्मेंद्र ही बोल रहे हैं। अखिलेश राजनीति में किस सपने के साथ आए, यह तो अब तक किसी को मालूम नहीं लेकिन हां वे इतना जरूर कह रहे हैं कि धनबल व पशुबल की राजनीति नहीं चलेगी। उन्होंने चुनाव से काफी पहले अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान को बाहुबली डीपी यादव को पार्टी टिकट देने को लेकर दरकिनार कर दिया था और कहा था कि मैं पार्टी अध्यक्ष की हैसियत से कह रहा हूं कि बाहुबली डीपी यादव का पार्टी टिकट नहीं मिलेगा। लेकिन सवाल अपनी जगह है कि क्या अखिलेश समाज को लेकर किसी सपने के साथ राजनीति में हैं। यह आने वाले दिनों में ही पता चल पाएगा। अलबत्ता, इतना जरूर है कि मुलायम भले ही अपने सपने से दूर हो गये हों लेकिन जिस तरह समाजवादी विचारधारा से प्रेरित होकर वह राजनीति के संघर्ष में उतरे थे, अखिलेश के साथ ऐसा प्रतीत नहीं होता। अखिलेश को अपनी राजनीतिक जमीन बनाने के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। उनको राजनीतिक जमीन विरासत में मिली। महबूबा मुफ्ती का उदाहरण है जिनको राजनीतिक जमीन विरासत में मिली लेकिन उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लिए कनविक्शन के साथ एक रास्ता सोचा और उसके लिये संघर्ष के रास्ते पर चलीं जिससे जम्मू-कश्मीर में तमाम तरह के सकारात्मक बदलाव ठोस स्वरूप लेने लगे। इन बदलावों को कश्मीर में कम हुई हिंसा, चुनावों में बढ़ती हिस्सेदारी और दरकिनार होते अलगाववादियों के रूप में देखा जा सकता है।

दूसरा सवाल, अखिलेश युवा नेता हैं तो राहुल गांधी, जितिन प्रसाद, सिंधिया, पायलट, उमर, राजा, दयानिधि मारन आदि भी युवा नेता है। इन नेताओं पर मैगजीनों ने न जाने कितनी बार अपने कवर रंगे लेकिन क्या कोई बताएगा कि इन युवा नेताओं ने भारतीय राजनीति में ऐसा क्या चारित्रिक बदलाव किया जिससे हम गौरव महसूस कर रहे हों? ये सब लोग लगभग 10 साल से राजनीति में हैं और अपनी-अपनी पार्टी में प्रभावशाली भी। लेकिन आज आप सोचिए इन युवा नेताओं ने देश को क्या दिया? आप पाएंगे कि इनमें से किसी ने कुछ दिया नहीं बल्कि लिया है। हमसे वोट लिये, कानून निर्माता का दर्जा-रुतबा लिया और हमें प्रजातंत्र में भी अपनी प्रजा की तरह ट्रीट करते रहे। क्योंकि इनके पिता राजा हैं या थे। ये राजनीति में इसलिए आए कि इनके पिता राजनीति में थे। ये राजनीति में इसलिए नहीं आए कि इनकी आंखों में देश, समाज, जमीन को लेकर कोई सपना था, इस सपने को साकार करने का जुनून इन्हें राजनीति में नहीं लाया। ये राजनीति में इसलिए आए कि इनका रुतबा बना रहे, बस। अब राजनीति में आए हैं तो कुछ तो दिखाना पड़ेगा, सो ये कुछ बयानबाजी, भाषणबाजी करते रहते हैं जिससे इनके वोटर और वोटर का मानस तैयार करने वालों को लगता रहे कि ये युवा नेता बहुत कुछ नया करने का जज्बा और साहस रखते हैं। इनमें वोट हासिल करने के अलावा, किसी चीज को लेकर कोई कनविक्शन नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता, तो ये लोग अपने-अपने मंत्रालयों में कुछ ऐसा करते जो दूसरे बुजुर्ग नेताओं के लिए मिसाल होता या फिर नयी लीडरशिप के लिए रास्ता बनता। लेकिन जरा नजर दौड़ाइये और देखिए किसने क्या किया? जवाब में आपको 2जी जैसी न जाने कितनी चीजें नजर आएंगी। अखिलेश को देखें तो वह भी राजनीति में इसलिए आए कि उनके पिता जी उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हैं।

तीसरी बात, समाजवादी पार्टी के घोषणापत्र में जो कुछ कहा गया है, उससे तो नहीं लगता कि अखिलेश एक कनविक्शन के साथ राजनीति में हैं लेकिन यह बात भी सही है कि घोषणापत्रों को गंभीरता से कौन लेता है। इसलिए हो सकता है कि वोटलुभावन घोषणापत्र के बावजूद, वे मुख्यमंत्री बनकर बुनियादी चीजों पर काम शुरू करें और जिससे यह पता चल सके कि वे कनविक्शन के साथ उत्तर प्रदेश की राजनीति में उतरे हैं न कि सिर्फ विरासत संभालने के लिए। सिर्फ विदेश में पढ़े होने से किसी को दृष्टिवान नहीं माना जा सकता। अगर पैसा हो तो हममें से हर एक अपने नाकारा से नाकारा संतान को आस्ट्रेलिया, स्विटरजरलैंड, इंगलैंड, कनाडा, अमेरिका, कहीं भी पढ़ने भेज सकता है। जिस राज्य के सरकारी स्कूलों में लाइब्रेरी न हो, प्रयोगशाला न हो, शिक्षक पढ़ाते न हों, इंटर-साइंस में 80 फीसदी अंक लाने वाले छात्र भी वर्नियर कैलीपर्स से अपरिचित हों, उस राज्य में इंटर के छात्रों को लैपटाप देकर किसका भला होगा? निश्चित तौर पर लैपटाप सप्लाई करने वाली फर्मों व संबंधित विभाग के अधिकारियों का और प्रकारांतर से मंत्रियों का। बेरोजगारी भत्ता, बेरोजगार नौजवानों का दर्द दूर करने के लिए दिया जा रहा है या बेरोजगारों का वोट खरीदने के लिए? किसान ऋण माफ करने का वादा किसानों को मदद पहुंचाने के लिहाज से किया गया या 2009 के आमचुनाव में कांग्रेस को मिली सीटों को देखते हुए। 2009 के आम चुनाव से पहले केंद्र की कांग्रेस सरकार ने पूरे देश में किसानों के 50 हजार तक ऋण माफ कर दिये थे और विश्लेषकों के मुताबिक कांग्रेस को मिली सीटों में नरेगा के साथ-साथ इस ऋण माफी का भी योगदान था। इसलिए अभी से अखिलेश को लेकर कुछ कहना जल्दबाजी होगी। हमको इंतजार करना चाहिए कसीदे गढ़ने से पहले।

 

और अंत में शमशेर की कविता...

 

हां, तुम मुझसे प्रेम करो

जैसे मछलियां लहरों से करती हैं

जिनमें वे फंसने नहीं आतीं।

जैसे हवाएं मेरे सीने से करती हैं,

जिसको वे गहराई तक नहीं दबा पातीं।

हां तुम मुझसे प्रेम करो

जैसे मैं तुमसे करता हूं।

 

रविवार, 19 फ़रवरी 2012

मुफ्ती की तरह क्या यहां भी कोई जोखिम लेने को तैयार है

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर से साभार) 


रविवार, 19 फरवरी 2012 को प्रकाशित



पिछले दिनों केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने रांची में एक अति महत्वपूर्ण बात कही कि झारखंड में मुख्य धारा की राजनीति कहां खत्म होती है और नक्सलवाद कहां से शुरू होता है, यह स्पष्ट नहीं है। उनका कहना था कि इसलिए यहां नक्सलवाद पर काबू का फार्मूला बनाना बहुत ही कठिन है। दूसरी बात उन्होंने कही कि ग्रासरूट स्तर पर राजनीतिक गतिविधियां चलाने की जरूरत है। उनकी पहली बात के आधे हिस्से से और दूसरी बात से अधिकतर लोग सहमत होंगे लेकिन इस बात से सहमत होना थोड़ा मुश्किल है कि चूंकि यहां नक्सलवाद और मुख्यधारा की राजनीति एक-दूसरे से मिले हुए हैं, इसलिए नक्सलवाद पर काबू करने का कोई तरीका निकाल पाना मुश्किल है। मुझे लगता है कि यह स्थिति रास्ता निकालने के लिए बहुत आसानी पेश करती है। जम्मू-कश्मीर इसका उदाहरण है। जम्मू-कश्मीर में आज जो बेहतर हालात हैं, उनका बीज तब ही पड़ गया था जब सारे खतरे मोल लेते हुए वहां के एक छोटे से राजनीतिक दल ने गांव-गांव जाकर राजनीतिक गतिविधियां शुरू कीं। जम्मू-कश्मीर में वर्ष 2000 का समय अलगाववाद आंदोलन का चरमोत्कर्ष था। उस समय वहां मुख्यरूप से फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस, भाजपा और कांग्रेस ही मुख्य दल थे। मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रैटिक पार्टी (पीडीपी) को मुख्यधारा के राजनीतिकों और मीडिया ने अलगाववादियों से जुड़ी मान रखा था। क्योंकि सिर्फ यही पार्टी ऐसी थी जो आतंकवादियों के गढ़ों में जाकर सभाएं करती थी, राजनीतिक कार्यक्रम करती थी और आतंकवाद की आंच में झुलस और जल रहे लोगों की बात करती थी। जम्मू-कश्मीर में वहां की पार्टियों की राजनीति कहां खत्म होती थी और कहां से अलगाववादी राजनीति शुरू हो जाती थी, यह समझ पाना बहुत मुश्किल था। पीडीपी को तो पूरे देश में आतंकवादियों को समर्थन देने वाली पार्टी करार दे दिया गया था क्योंकि मुफ्ती और उनकी बेटी महबूबा कहती थीं कि जिस घर से आतंकवादी आते हैं, उस घर की जिम्मेदारी भी तो राज्य की है। यदि कोई आतंकी मारा गया तो उसके घरवालों को मुआवजा दिया जाना चाहिए, बिलकुल उसी तरह जिस तरह पुलिसवाले के मारे जाने पर उसके घर वालों को मिलता है। 2002 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में अनंतनाग के उन गांवों में पीडीपी ने चुनावी सभाएं की जिन गांवों में नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ता व नेता जाने की कल्पना भी नहीं कर पाते थे। भाजपा व कांग्रेस का भी यही आलम था। तब ये पार्टियां और मीडिया यह प्रचारित करने में लग गई कि पीडीपी को आतंकी संगठनों का समर्थन है और इसीलिए महबूबा दूर-दराज के इलाकों में भी सभाएं कर पा रही है। खैर, एक तरफ यह प्रचार चलता रहा तो दूसरी तरफ ग्रासरूट स्तर पर पीडीपी की गतिविधियां। नतीजा सबके सामने है। 2002 के चुनाव में जम्मू-कश्मीर के लोगों का लोकतंत्र में विश्वास में विश्वास बढ़ा। वे लोग चुनाव हार गए जो सामने कुछ कहते थे और पीछे से कुछ करते थे। अलगाववादी धारा कमजोर हुई। आतंकी घटनाएं कम हुईं। एक किस्सा मैं यहां सुनाना चाहूंगा मैं जम्मू से श्रीनगर जा रहा था। रास्ते में अनंतनाग के पास सड़क जाम थी। सैंकड़ों की संख्या में लोग पानी की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे और मुफ्ती के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे। मुफ्ती की सरकार बने मुश्किल से छह माह ही बीते थे। श्रीनगर में जब मुफ्ती से मुलाकात हुई तो मैने उनसे पूछा कि उनके खिलाफ तो प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। आप कुछ कर भी नहीं रहें, इनसे कैसे निबटेंगे? इस पर मुफ्ती ने कहा कि ये प्रदर्शन हमारी कामयाबी की कहानी कहते हैं। कम से कम लोगों का सरकार में भरोसा तो लौट रहा है। ये प्रदर्शन तो तभी हो रहे हैं जब उनको लग रहा है कि सरकार उनकी है और तमाम सुविधाएं मुहैया कराना सरकार की जिम्मेदारी है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भरोसा लौटने का सुबूत है। मैं तो चाहता हूं कि कश्मीर के लोग इस तरह के मुद्दों पर सड़क पर उतरें। जितने ज्यादा प्रदर्शन होंगे, अलगाववादियों का स्पेस कम होता जाएगा।
क्या झारखंड में कोई राजनीतिक दल या नेता ईमानदारी से इस तरह का जोखिम लेने को तैयार है? यदि है तो नक्सलवादियों का स्पेस बहुत आसानी से सीमित किया जा सकता है। मुख्य धारा की राजनीति और नक्सलवाद में घालमेल के बीच यह काम शायद कठिन नहीं है।
और अंत में...
पाकिस्तानी शायर अहमद फराज की ये लाइनें तो हर-एक ने न सिर्फ सुनी बल्कि कभी न कभी गुनगुनाई भी होंगी रंजिश ही सही दिल भी दुखाने के लिए आ/ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ / पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो /रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ...। उनकी शायरी हमारी संवेदनाओं को जिस संजीदगी से मायने देती नजर आती है, वैसा बहुत कम देखने को मिलता है। आप सोच रहे होंगे कि मैं फराज का जिक्र क्यों कर रहा हूं, कहीं उनका जन्मदिन या बरसी तो नहीं। तो आपको बताना चाहूंगा कि फराज जन्मदिन या बरसी पर ही याद की जाने वाली शख्सीयत नहीं थे, वे तो हर मौसम और इमोशन को शब्द दे सकने वालों में से थे। पढ़िये उनकी ये लाइनें-




तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बेरहम हैं दोस्तो
अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो

किसिको हमारे हाल से निस्बत है क्या करें
आँखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तो

अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तो

कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो

इस शहर-ए-आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
अब दिल की रौनक़ें भी कोई दम हैं दोस्तो

सब कुछ सही 'फ़राज़' पर इतना ज़रूर है
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तो

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

कविता की मोजार्ट वीस्वावा शिम्बोर्स्का की याद में

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर से साभार) 


रविवार, 5 फरवरी 2012 को प्रकाशित



नोबल से सम्मानित कवि वीस्वावा शिम्बोर्स्का का बुधवार को देहांत हो गया। कविता की मोजार्ट मानी जाने वाली वीस्वावा शिम्बोर्स्का का नाम मैंने पहली 1996 में सुना था, जब उन्हें साहित्य के नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। तब अपने देश में इंटरनेट इतना प्रचलित नहीं था कि कीबोर्ड से उनकी कविताएं तलाशी जा सकें और वे इतनी प्रसिद्ध नहीं थीं कि किताबों की बाजार में सहजता से उपलब्ध हों। उस समय मैं दिल्ली में रहता था। उनकी कविताएं तलाशने हम मंडी हाउस गए, दरियागंज के संडे बुक मार्केट का चक्कर लगाया लेकिन विफलता ही हाथ लगी। बाद में तो उनकी कविताओं के हिंदी अनुवाद आने लगे। 2004 में न्यूयार्कर में उनकी एक कविता एबीसी छपी थी। यह पत्रिका मैंने दरियागंज के संडे बुक मार्केट से ली थी 2005 की किसी तारीख को। इसी में पढ़ी थी यह कविता। तबसे यह कविता मेरी नोटबुक में लिखी हुई है। उसी समय जीमेल पर मेरा खाता शुरू हुआ था और मैंने इसे जीमेल के मेलबाक्स में डाल दिया था। तब से अब तक इसे मैं कई बार पढ़ चुका हूं। अमेरिकी मैगजीन स्लेट में मशहूर अमेरिकी फिल्म आलोचक डाना स्टीवेंस का शिम्बोर्स्का पर औबिचुअरी पीस है जिसकी शुरुआत ही इस कविता से की गई और उन्होंने लिखा कि तब से इस कविता को अपनी डेस्क पर लगा रखा है। मैने तभी इसका हिंदी अनुवाद किया था। मैं कोई अनुवादक तो हूं नहीं, इसलिए नहीं कह सकता कि अनुवाद मूल कविता के करीब तक ले जा पाएगा या नहीं लेकिन फिर भी पढ़िये सबसे पहले यही कविता

मुझे कभी पता नहीं चल सकेगा
ए ने मेरे बारे में क्या सोचा
क्या बी ने अंत में मुझे कभी माफ किया होगा
क्यों सी यह दिखाने की कोशिश करता रहा
कि उसकी जिंदगी में सबकुछ ठीक है
डी की क्या भूमिका है ई की चुप्पी में
एफ क्या उम्मीद लगाए हुए था, क्या कोई उम्मीद थी भी
जी को सबकुछ सही-सही याद था, फिर वह भूल क्यों गई
एच कुछ छिपाने की कोशिश में था लेकिन क्या
आई उसमें क्या जोड़ने देना चाहता थी
क्या वहां मेरे होने का कोई अर्थ था जे, के और बाकी के अक्षरों के लिए।

विस्वावा शिम्बोर्स्का 2 जुलाई 1923 को पश्चिमी पोलैंड में पैदा हुई थीं। उन्होंने क्राकोव में ही साहित्य और समाजशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त की। एडम वोदेक से उनका विवाह हुआ और जल्द ही तलाक हो गया लेकिन 1986 में अपनी मृत्यु तक वोदेक शिम्बोर्स्का के अच्छे मित्र बने रहे। उनके लेखक सहचर कोरनेल फिलिपोविच का भी 1990 में देहांत हो गया, उसके बाद से वे अकेली थीं। वे निजत्व में जीती थीं और उनकी कविताएं उनके निज की ही अभिव्यक्ति हैं। हालांकि 1952 में जब उनका पहला संग्रह दैट्स व्हाट वी लिव फारप्रकाशित हुआ, उन्हें स्तालिनवादी करार दिया जाने लगा और दो साल बाद क्वेश्चंस पुट टू माईसेल्फ शीर्षक से आए उनके दूसरे संग्रह ने तो प्रतिबद्ध कवि का ठप्पा ही उन पर लगा दिया। लेकिन 1957 में उन्होंने कम्युनिज्म के साथ-साथ पहले की अपनी सभी कविताओं को नकार दिया। उन्होंने कहा था कि जब मैं बच्ची थी, मैं कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थी। मैं कम्युनिज्म के जरिये दुनिया को बचाने का सपना देखती थी लेकिन जल्द ही मेरी मान्यता बदल गई कि इससे काम नहीं होने वाला। मैं अपनी रचनात्मक जिंदगी की शुरुआत से ही मानवता को मानती रही हूं। मानव जाति के भले के लिए कुछ करना चाहती थी लेकिन फिर मेरी समझ में आया कि मानवजाति को बचा पाना संभव नहीं है। बाद में वह पोलैंड के कम्युनिस्ट शासन के विरोध में सोलिडैरिटी मूवमेंट में सक्रिय रहीं। 1981 में मार्शल ला लगने पर उन्होंने दूसरे नाम से कविताएं लिखीं। वह हमेशा यह कहती रहीं कि उनकी कविता वैयक्तिक है राजनीतिक नहीं लेकिन यह एक सच्चाई है कि जिंदगी बार-बार राजनीति से गुजरती है। नोबल सम्मान लेने के बाद उन्होंने फिर कहा कि मेरी कविताएं लोगों और जिंदगी के बारे में हैं।
1945 में उन्होंने पहली कविता लिखी थी और 2008 में उनका आखिरी संग्रह आया। लेकिन इस दौरान कुल मिलाकर 400 से भी कम कविताएं ही छपीं और इसमें से लगभग 200 ही पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। लेकिन उनको कविता का मोजार्ट माना जाता है। जब उनसे पूछा गया कि वे इतना कम क्यों लिखती हैं तो उनका जवाब था कि मेरे कमरे में एक रद्दी की टोकरी भी है और शाम को लिखी गई कविताएं जब मैं सुबह पढ़ती हूं तो उनमें अधिकतर उसी टोकरी में पहुंच जाती हैं। रद्दी की टोकरी में जाने से बच गईं कुछ कविताएं यहां प्रस्तुत हैं-


बायोडाटा लिखना

क्या किया जाना है?
आवेदनपत्र भरो
और नत्थी करो बायोडाटा

जीवन कितना भी बड़ा हो
बायोडाटा छोटे ही अच्छे माने जाते हैं।

स्पष्ट, बढ़िया और चुनिंदा तथ्यों को लिखने का रिवाज है
लैंडस्केपों की जगह ले लेते हैं पते
लड़खड़ाती स्मृति को रास्ता बनाना होता है ठोस तारीखों के लिए।

अपने सारे प्रेमों में सिर्फ विवाह का जिक्र करो
और अपने बच्चों में से सिर्फ उनका जो पैदा हुए

तुम्हे कौन जानता है
यह अधिक महत्वपूर्ण है बजाए इसके कि तुम किसे जानते हो।
यात्राएं बस वो जो विदेशों में की गई हों
सदस्यताएं कौन सी, मगर किस लिए यह नहीं
प्राप्त सम्मानों की सूची, पर ये नहीं कि वे कैसे अर्जित किये गए।

लिखो, इस तरह जैसे तुमने अपने आप से कभी बातें नहीं कीं
और अपने आप को खुद से रखा हाथ भर दूर।

अपने कुत्तों, बिल्लियों, चिड़ियों,
धूल भरी निशानियों, दोस्तों और सपनों को अनदेखा करो।

कीमत, वह फालतू है
और शीर्षक भी
अब देखा जाए भीतर है क्या
उसके जूते का साइज
यह नहीं कि वह किस तरफ जा रहा है-
वह जिसे तुम मैं कह देते हो
और साथ में एक तस्वीर जिसमें दिख रहा हो कान
-उसका आकार महत्वपूर्ण है, वह नहीं जो उसे सुनाई देता है
और सुनने को है भी क्या ?
-फकत
कागज चिंदी करने वाली मशीनों की खटर-पटर।
(अनुवाद अशोक पांडेय)


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नींद की गोली हूं
घर में असरदार,
दफ्तर में उपयोगी।
मैं इम्तहान दे सकती हूं
और गवाही भी।
मैं टूटे प्याले जोड़ सकती हूं।
आपको सिर्फ मुझे ले लेना है,
पिघलने देना है अपनी जीभ के नीचे
और फिर निगल जाना है
एक गिलास पानी के साथ।
..........
आप अभी नौजवान हैं
वक्त है कि सीख लें अपने आपको ढीला ठोड़ देना
कोई जरूरी नहीं कि मुट्ठियां हमेशा भिंची और चेहरा तना रहे।
अपने खालीपन को मुझे दे दो
मैं उसे नींद से भर दूंगी
एक दिन आप शुक्रगुजार होंगे कि
मैंने आपको चार पैरों पर चलना सिखाया।
बेच दो मुझे अपनी आत्माएं भी
उसका खरीदार कहां है
कि अब उसे भरमाने के लिए कोई और शैतान नहीं रहा।
(अनुवाद प्रतिभा कटियार के ब्लाग से)


तीन मुश्किल शब्द

जब मैं बोलती हूं एक शब्द भविष्य
तो पहले अक्षर जुड़ते हैं बीते हुए समय से
जब मैं बोलती हूं खामोशी
मैं इसे नष्ट करती हूं
जब मैं कहती हूं कुछ नहीं
मैं कुछ ऐसा बनाती हूं
जिसे कोई अपने हाथों में नहीं रख सकता।
(अनुवाद-विशाल श्रीवास्तव)

हम बेहद भाग्यशाली हैं

हम बेहद भाग्यशाली हैं
कि हम ठीक-ठीक नहीं जानते
हम किस तरह के संसार में रह रहे हैं

आपको यह जानने के लिए
बहुत, बहुत लंबे समय तक जीना होगा
निसंदेह इस संसार के
जीवन से भी ज्यादा लंबे समय तक

चाहें तुलना करने के लिए ही सही
हमें दूसरे संसारों को जानना होगा

हमें देह से ऊपर उठना होगा
जो बस
बाधा पैदा करना
और तकलीफें खड़ी करना जानती है

शोध के वास्ते
पूरी तस्वीर के वास्ते
और सुनिश्चित निष्कर्षों के वास्ते
हमें समय से परे जाना होगा
जिसके भीतर हर चीज हड़बड़ी में भागती और चक्कर काटती है

उस आयाम से
शायद हमें त्याग देना होगा
घटनाओं और विवरणों को

सप्ताहों के दिनों की गिनती
तब अपरिहार्य रूप से अर्थहीन लगने लगेगी

पोस्टबाक्स में चिट्ठी डालना लगेगा
मूर्खतापूर्ण जवानी की सनक

घास पर न चलें का बोर्ड लगेगा
पागलपन का लक्षण
(अनुवाद-अशोक पांडेय)