रविवार, 25 सितंबर 2011

अपनी भाषा भूले तो जड़ों से ही कट जाएंगे हम

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार


हिंदी का सरकारी महीना सितंबर खत्म होने को है। सरकारी विभागों, बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों आदि में हिंदी को बढ़ावा देने के पोस्टर लगे, हिंदी पखवाड़ा आयोजित करने की घोषणाएं और कहीं-कहीं अफसरों के रिश्तेदारों-यार-दोस्तों को उपकृत करते हुए कवि सम्मेलन या संगोष्ठी का आयोजन। कुछ लोग विज्ञापन देकर बता रहे हैं कि वे हिंदी की कितनी सेवा कर रहे हैं और कुछ लोग विशेष सामग्री देकर और उसके दाम वसूलकर यही बताने का उपक्रम कर रहे हैं। यह सब बदस्तूर बरसों से हो रहा है लेकिन हिंदी की हालत कमबख्त सुधर ही नहीं रही। आखिर ऐसा है क्यों? और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि हमको और हमारे बच्चों को हिंदी क्यों आनी चाहिए?

1991 से, जब से देश में आर्थिक उदारीकरण की बयार शुरू हुई। उससे पहले तक देश के लगभग हर जिले में सबसे अच्छे स्कूल सरकारी स्कूल हुआ करते थे। जिलों में सबसे अच्छे शिक्षक भी अमूमन सरकारी स्कूलों के ही होते थे। इन सरकारी स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई वैसे ही कराई जाती थी जैसे गणित या विज्ञान की। लेकिन 90 के दशक से बदलाव आने शुरू हुए। पब्लिक स्कूलों की संख्या बढ़ी और साथ ही नकली पब्लिक स्कूलों की भी। इनमें हिंदी सबसे हेय विषय के तौर पर देखा जाता है। आश्चर्य की बात यह हुई कि अर्धसरकारी या ट्रस्ट आदि के स्कूल जो पहले से अच्छे माने जाते थे, उन्होंने भी हिंदी को पीछे ढकेल दिया। हम जब बच्चे थे (30-35 साल पहले), गलत वर्तनी लिखना शर्मनाक माना जाता था और शिक्षक कान पकड़वाकर उठक-बैठक लगवाते थे, लेकिन अब...पिछले दिनों मैंने अपने बच्चे की हिंदी की कापी देखी। हर पन्ने पर वर्तनी की गलतियां थीं और शिक्षक ने उसे चेक कर रखा था। शिक्षक के दस्तखत इसका गवाह थे। यह बच्चा एक बहुत अच्छे स्कूल में पढ़ता है। कापी में गलती की यह पहली घटना नहीं है। भोपाल के मशहूर कैंपियन स्कूल में भी यही हालत थी, सेंट मेरीज कान्वेंट की भी यही हालत थी और दिल्ली के एक अच्छे स्कूल में भी यही हालत। हिंदी को कितना हेय समझा जाता है, यह मैंने साक्षात देखा है इन स्कूलों में। दो साल पहले जब मैं दिल्ली में था, टीचर-पेरेंट मीटिंग के लिए बच्चे के स्कूल गया। समय कम था सो सोचा कि उस टीचर से शुरुआत करूं जिसके पास भीड़ कम हो। गणित की टीचर की टेबल पर भीड़ थी, अंगरेजी की टीचर को सिर उठाने की फुरसत नहीं थी, साइंस वाले रूम में करीब 20 पेरेंट बैठे थे। फिर मैंने अपने बच्चे से कहा कि चलो पहले हिंदी की टीचर से मिल लेते हैं। यकीन मानिये, हिंदी की टीचर बिलकुल खाली बैठी थीं। देखने में वह बिलकुल 30-35 साल पहले वाली मास्टरनी की तरह ही थीं। बच्चों की चाल-ढाल बदल गई, बाकी सबजेक्ट के टीचरों की चाल-ढाल बदल गई, बातचीत की भाषा हिंदी जगह अंगरेजी हो गई लेकिन हिंदी की टीचर नहीं बदलीं। उनसे मिला, उन्होंने बहुत विस्तार से बच्चे की प्रगति से अवगत कराया लेकिन जब मैने उनसे पूछा कापी में गलतियां रहते हुए वे कैसे दस्तखत कर देती हैं, वे बेझिझक बोलीं, अरे इसमें क्या है। उनका सारा जोर इस बात पर था कि मैं क्या करता हूं और वे किस-किस को जानती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि अधिकतर पेरेंट्स तो उनसे मिलने भी नहीं आते हैं और फिर टेबल पर रखा हुआ सलाइयों में बिंधा स्वेटर उठाया और सलाइयां चलाने लगीं। सीधी रेखा में सोचा जाए तो सारी गलती हिंदी टीचर की नजर आएगी लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। गलती उस माहौल की, उस सिस्टम की है जिसमें उनकी उपयोगिता ही खत्म कर दी गई है।
आइए अब देखें इसका असर क्या पड़ रहा है। एक शाम मैंने अमिताभ बच्चन का शो कौन बनेगा करोड़पति देखा। उसमें 25-26 साल की एक पढ़ी-लिखी युवती हाटसीट पर थी। 10000 रुपए के लिए दूसरा सवाल स्क्रीन पर था- 15 अगस्त को लालकिले के सामने फौज की सलामी कौन लेता है। विकल्प थे- राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश। श्रीमती टिकटिक आन हो गईं थीं। समय समाप्त हो गया लेकिन यह युवती जवाब नहीं दे पाई। क्या यह सवाल इतना कठिन है कि जिसने भी पढ़ाई-लिखाई की हो, वह इसका जवाब न दे पाए? दरअसल ऐसी जाने कितनी बातें आज के बच्चों और युवाओं को पता नहीं हैं और उसकी एक बड़ी वजह यह है कि हम अपनी भाषा को गंभीरता से नहीं लेते। हमें अपनी विरासत, परंपरा, संघर्ष आदि की जानकारी तो अंगरेजी भाषा के जरिए भी हो सकती है लेकिन इनका बोध अपनी भाषा में ही होता है। हर जगह आज लोगों को कहते सुना जा सकता है कि 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्टूबर पर अब वह उत्साह नहीं दिखाई देता जो पहले हुआ करता था। जरा सोचिए, पहले क्या हुआ करता था...यही न कि बच्चे झंडा ऊंचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा गाते हुए प्रभातफेरी निकालते थे, दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के, चेतक बन गया निराला था, चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं, खूब लड़ी मरदानी वो तो झांसी वाली रानी थी, इस मिट्टी से तिलक करो यह मिट्टी है बलिदान की जैसे न जाने कितने गीत बच्चे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गाते थे। अब यही सब नहीं दिखाई देता। अब ये दिन उत्साह और गौरव के नहीं, बल्कि स्कूल व काम से छुट्टी के दिन में बदल गए हैं। आखिर स्कूलों में ऐसा क्यों हो गया? अच्छे स्कूलों में हिंदी खत्म हो गई और अंगरेजी के चलते सरकारी स्कूलों से माहौल तो खत्म हुआ ही, शिक्षक प्रजाति भी लुप्तप्राय: हो गई और उसकी जगह ले ली शिक्षाकर्मियों और गुरुजियों ने (जी हां, मध्यप्रदेश में सर्वशिक्षा अभियान के तहत ठेके पर रखे जाने वाले शिक्षकों को गुरुजी कहा जाता है और इसका बहुवचन है गुरुजियों। इसी से स्पष्ट है कि समाज में इन शिक्षकों को किस तरह से देखा जाता है)। अब कविताओं के नाम पर हम्प्टी-डम्प्टी है न कि यदि होता किन्नर नरेश मैं। अब चूंकि हिंदी में कुछ होना नहीं है और हमारी विरासत-परंपरा, हमारे समाज, हमारे संघर्ष और हमारे गौरव की गाथा तो अंगरेजी में है नहीं तो फिर इन मौकों पर गाया क्या जाए? सिर्फ वी शैल ओवरकम... से तो काम चलेगा नहीं, लिहाजा इन अवसरों को संडे की तर्ज पर छुट्टी में बदलना ही था। मैं यहां यह कतई नहीं कहना चाहता कि अंगरेजी न पढ़ी जाए लेकिन मैं इतना जरूर कहना चाहता हूं कि अंगरेजी पढ़ें लेकिन हम अपनी भाषा को न भूलें। यदि हम अपनी भाषा भूल जाएंगे तो हम अपने भारत वर्ष के बोध से ही कट जाएंगे।

और अंत में...

पिछले हफ्ते अनशन राष्ट्रीय बहस का विषय बने। मुझे उर्दू के शायर शकेब जलाली की दो लाइनें फेसबुक पर पढ़ने को मिलीं जो मुझे बहुत मौजूं लगीं। तो शकेब जलाली के बारे में जानने की कोशिश की – शकेब जलाली 1934 में अलीगढ़ के पास जलाली कस्बे में पैदा हुए थे। जिए सिर्फ 32 साल लेकिन अपने दौर की उर्दू शायरी को नया लबो-लहजा देने में इन महाशय की भी ऐसी भूमिका रही कि उर्दू अदब का इतिहास इनके जिक्र के बिना पूरा नहीं माना जा सकता। बंटवारे के समय पाकिस्तान चले गए लेकिन वहां वे खुश न रह सके और 1966 में ट्रेन से कटकर अपनी जान दे दी। ये लाइनें पढ़ें-

इक तुर्फा* तमाशा है अहले सियासत का
घरों में कातिलों के अब अजादारी* भी होती है

तुर्फा – अनोखा, अजादारी – मरने वालों के लिए शोक मनाने की परंपरा।

रविवार, 11 सितंबर 2011

ये पालिटिकल क्लास तो रोज देश की अवमानना करता है


इस रविवार से प्रभात खबर में यदृच्छया स्तंभ शुरू किया है. यह आलेख आज के अंक से हैं...

हमारे नये कालम यदृच्छया (रैंडम) के तहत प्रभात खबर के कारपोरेट संपादक राजेंद्र तिवारी की कलम से देश-दुनिया-समाज-जीवन से जुड़ी घटनाओं, मुद्दों और प्रवत्तियों आदि पर मिलेगी विचारोत्तेजक सामग्री हर रविवार...


पिछले दिनों दो घटनाएं हुईं जो हमसे जवाब मांगती हैं और इस सवाल का जवाब भी देती हैं कि हम भारत के लोग आजादी के 64 साल बाद भी उस भारत का निर्माण नहीं कर पाए जिसका सपना हमने अपने संविधान में देखा। हमारे संविधान की उद्देशिका में कहा गया है-
हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की
एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता
बढ़ाने के लिए
दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26-11-1950 ई. (मिति मार्गशीष शुक्ल सप्तमी, संवत 2006 विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं

जिन दो घटनाओं का जिक्र मैं कर रहा हूं, उसमें से दूसरी है अन्ना के सहयोगियों प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी के खिलाफ संसद के सदनों से विशेषाधिकार हनन के नोटिस जारी होना होना। और पहली घटना है, राजीव गांधी की हत्या को दोषी की फांसी की सजा माफ करने के लिए तमिलनाडु विधानसभा में प्रस्ताव पारित होना और जम्मू-कश्मीर विधानसभा में संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी की सजा माफ करने के लिए एक विधायक द्वारा प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाना। संविधान की उद्देशिका की दिशा में हम भारत के लोगों को आगे ले जाने का काम करने की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा विधायिका यानी संसद व राज्य विधानमंडलों की है। संसद ने अन्ना सत्याग्रह के जिन लोगों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन की नोटिस जारी की है, उन्होंने क्या बयान दिए थे? क्या यह सही नहीं है कि 150 से ज्यादा लोकसभा सदस्य आपराधिक मामलों के आरोपी हैं? क्या यह सही नहीं है कि इनमें भी 72 पर लगे आरोप बहुत ही गंभीर किस्म के हैं? क्या यह सही नहीं है कि विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाने वालों में से प्रवीण कुमार एरन, कौशलकिशोर और जगदंबिका पाल पर तो गंभीर मामले चल ही रहे हैं, इनमें से एक डा. विनय कुमार पांडेय पर हत्या का प्रयास, दंगा करने, सरकारी कर्मी को उसके कर्तब्य पालन से रोकने के मामले चल रहे हैं। इस समय आधा दर्जन सांसद और कई विधायक जेल में हैं। झारखंड में देखें तो कई विधायक और मंत्री अफसरों को पीटते और भद्दी-भद्दी गालियां देते नजर आते रहते हैं। अभी कुछ दिन पहले ही झारखंड के एक मंत्री की गाड़ी को साइड न देने पर बस ड्राइवर का हाथ तोड़ दिया गया। बिहार में स्थिति सुधरी है लेकिन पहले वहां तो यह सब आम था। जूता-चप्पल-कुर्सियां-माइक चलाते और आपस में भद्दी गालियां देने का नजारा अकसर किसी न किसी विधानसभा में देखने को मिल जाता है। क्या यह स्थिति विधायिका और हम भारत के लोगों का अपमान-अवमानना नहीं है?
अब पहली घटना पर गौर करते हैं, जो आतंकवाद की जड़ की ओर इशारा करती है – राजीव गांधी की हत्या के दोषियों की फांसी की सजा माफ करने का प्रस्ताव देश की एक विधानसभा में पारित होता है। किसी को यह असाधारण बात नहीं लगती। कहीं कोई चिंता की बात नजर नहीं आती लेकिन जैसे ही जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का ट्वीट आता है कि यदि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में ऐसा प्रस्ताव आए तो क्या देश इसी सहजता से उसे लेगा, सब असहज हो उठते हैं। और जब उत्तरी कश्मीर के लंगेट क्षेत्र के विधायक इंजीनियर राशिद विधानसभा में प्रस्ताव रखने का नोटिस देते हैं, तब दिल्ली में पालिटिकल क्लास धरने-प्रदर्शन तक शुरू करा देता है। लेकिन तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता जब कहती हैं कि सदन सभी राजनीतिक दलों और तमिलनाडु के लोगों की भावना ध्यान रखते हुए सर्वसम्मति से राजीव गांधी की हत्या के दोषियों मुरुगन, संथन व पेरारिवलन की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने के आग्रह का प्रस्ताव पारित करे, तब हमारे देश के पालिटिकल क्लास में कोई असहजता नहीं दिखाई देती। जब पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल आतंकवादी देविंदर पाल सिंह भुल्लर की फांसी को माफ करने के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखते हैं कि इससे सिख समुदाय के बीच भारतीय गणराज्य को लेकर अच्छे संकेत जाएंगे, तब धरने-प्रदर्शन करने वाले राजनीतिक दल चुप्पी साध लेते हैं।
ऐसा क्यों है, हम सभी को वस्तुनिष्ठ होकर सोचना चाहिए। एक घटना अगर वोट की राजनीति है तो दूसरी घटना नोट की। दोनों में हम भारत के लोगों को हमारा पालिटिकल क्लास दरकिनार करता नजर आ रहा है। हमारे संविधान में जनता के विशेषाधिकार हनन के नोटिस की व्यवस्था होती तो शायद 120 करोड़ हम भारत के लोगों में से कोई तो पालिटिकल क्लास को नोटिस देकर पूछता कि क्या लोकसभा में आन रिकार्ड यह बयान देना कि हम सब (लोकसभा के लिए चुने प्रतिनिधि) टोपियां उछालने का ही काम करते हैं, विधायका की अवमानना नहीं है? क्या हम भारत के लोग उनसे जान सकते हैं कि वे अपना संविधान निर्धारित काम छोड़ कर टोपियां उछालने का काम क्यों कर रहे हैं? क्या यह काम संविधान की भावना और उद्देश्यों की अवमानना नहीं है? क्या आपका पालिटिकल (रूलिंग) क्लास केवल वोट और नोट गिनने के लिए है या फिर समानता, समरसता और न्याय आधारित उस भारत को उस समाज को बनाने के लिए है जिसका सपना आजादी की लड़ाई के दौरान देखा गया था और जो हमारे संविधान का उद्देश्य है?