मंगलवार, 22 नवंबर 2011

पाकिस्तान में जड़ों से जुड़ने की अकुलाहट!

पाकिस्तान में झूठा और तोड़-मरोड़ा हुआ इतिहास स्कूलों में पढ़ाए जाने के खिलाफ एक बार फिर आवाज उठने लगी है। पिछले चार माह से वहां के अखबार एक्सप्रेस ट्रिब्यून में लगातार इस विषय पर लिखा जा रहा है। यहां तक कि पाकिस्तान के एक सांसद रजा रब्बानी ने मांग तक कर दी कि बच्चों को इतिहास में महाराजा रणजीत सिंह और सरदार भगत सिंह की भूमिकाओं को पढ़ाया जाए। करीब आठ-नौ साल पहले मैंने पाकिस्तान के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की कुछ पुस्तकें कश्मीर में देखीं थीं। उर्दू जानने वाले अपने मित्रों की मदद से मैंने जो कुछ समझा उसके मुताबिक वहां जो इतिहास पढ़ाया जाता है, वह सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलिम शासकों की जानकारी देता है और वह इस प्रकार जैसे वे सब सच्चाई के पुजारी रहे हों और उनका एक मात्र मकसद इसलाम का विस्तार करना था। ट्रिब्यून के कालमनिस्ट फरहान अहमद शाह भी यही बात कहते हैं और अपने कालम में यह लिखने का साहस कर रहे हैं कि अधिकतर मुसलिम शासक या तो लुटेरे थे या फिर आक्रमणकारी। गैर मुसलिम शासकों का नाम तक पाकिस्तान के इतिहास में नहीं लिया जाता। इसकी वजह से पाकिस्तान के इतिहास में गजनवी, गौरी, तुगलक, मुगल आदि ही छाए हैं जैसे चंद्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त, अशोक, शेरशाह सूरी आदि कभी हुए ही न हो। अकबर को इसलाम विरोधी के तौर पर इतिहास में चित्रित किया जाता है और औरंगजेब को नायक के तौर पर। पिछले 10 साल में पाकिस्तान जिस तरह तालिबान की गिरफ्त में आ गया है और वहां की सिविल सोसाइटी (कुलीन वर्ग) इनके आगे शायद असहाय महसूस करने लगी है। क्योंकि आजादी के बाद से वहां के स्कूलों, इतिहास की किताबों और कश्मीर के जरिए बच्चों के दिमाग को जिस तरह से कंडीशन किया गया, उसके परिणाम अब वहां की सिविल सोसाइटी को दबाव में ला रहे हैं। वे बच्चे अब बड़े हो चुके हैं और उनके बच्चे उन्हीं की सरपरस्ती में बड़े हुए हैं। लिहाजा, अब वे सिविल सोसाइटी की चाबुक सहने को तैयार नहीं हैं। वे तो अब खुद अपनी चाबुक से सिविल सोसाइटी को हांकना चाहते हैं। अब उन कुलीनों की समझ में आ रहा है कि गड़बड़ कहां हुई। और, वे अब इस गड़बड़ को सुधारना चाहते हैं और मुखर होकर पूछ रहे हैं कि यदि महमूद गजनवी इसलाम का प्रचारक था तो उसने मुलतान के तत्कालीन मुसलिम शासक की हत्या क्यों की? उसने गद्दी पाने के लिए अपने भाई की हत्या क्यों की? उसने भारतीय उपमहाद्वीप पर 17 बार आक्रमण इसलाम के प्रचार के लिए किया या यहां की धन-दौलत को लूटने के लिए? ऐसे ही सवाल सिविल सोसाइटी मुह्म्मद गौरी को लेकर पूछ रही है – कि हमारी (पाकिस्तान की) इतिहास की किताबें यह क्यों नहीं बतातीं कि यदि मुहम्मद गौरी का एजेंडा इसलाम का प्रसार ही था तो उसने गजनवी वंश के आखिरी राजा मलिक खुसरो पर हमला क्यों किया? वे अपनी जमीन के नायकों को लेकर भी सवाल पूछ रहे हैं। वे सरकार से पूछ रहे हैं कि हम यह क्यों नहीं पढ़ाते कि हमारी जमीन हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख जैसे धर्मों की जननी रही? हमारी जमीन तक्षशिला जैसे ज्ञानकेंद्र की जमीन रही है? हमारी जमीन मोहन जोदाड़ो सभ्यता की जमीन रही है? ये सवाल सब जगह उठ रहे हैं और पाकिस्तान में दबाव बन रहा है। सिंध की प्रांतीय सरकार ने अपने यहां के स्कूली पाठ्यक्रम में संशोधन के लिए एक कमेटी बनाई है। यह कमेटी अन्य बातों को साथ-साथ ऐतिहासिक तथ्यों को सही रूप में इतिहास की किताबों में रखने पर भी विचार कर रही है। हो सकता है कि बदलाव की शुरुआत सिंध से ही हो जाए और वहां के बच्चे दाहिर को आतताई और मोहम्मद बिन कासिम को दयालु और इसलाम के प्रचारक के तौर पर पढ़ने के अभिशाप से मुक्ति पा जाएं। और अंत में... पाकिस्तान के तरक्कीपसंद शायर हबीब जलाली (1928-1993) के बारे में कहा जाता है कि उनकी आधी जिंदगी जेल में गुजरी और आधी सड़क पर। हबीब का जन्म पंजाब के होशियारपुर जिले में हुआ था। आजादी के वक्त वे मैट्रिक की पढ़ाई कर रहे थे। उनके वालिद ने उस दौरान पाकिस्तान जाने का फैसला किया और हबीब पाकिस्तान चले गए। अयूब खान द्वारा मार्शल ला लगाए जाने के विरोध करने पर उन्हें पहली बार जेल में डाला गया और उसके बाद यह सिलसिला उनकी मौत तक जारी रहा। पढ़िए इस तरक्कीपसंद शायर की ये लाइनें.... इक पटरी पर सर्दी में अपनी तक़दीर को रोए दूजा जुल्फ़ों की छाया में सुख की सेज पे सोए राज सिंहासन पर इक बैठा और इक उसका दास भए कबीर उदास   ऊंचे ऊंचे ऐवानों में मूरख हुकम चलाएं क़दम क़दम पर इस नगरी में पंडित धक्के खाएं धरती पर भगवान बने हैं धन है जिनके पास भए कबीर उदास   कल तक जो था हाल हमारा हाल वही है आज ‘जालिब’ अपने देस में सुख का काल वही है आज फिर भी मोची गेट पे लीडर रोज़ करे बकवास भए कबीर उदास

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