शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

यह प्रवृत्ति हमें कहां ले जाएगी

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार



बीते हफ्ते दिल्ली में हरविंदर सिंह नाम के एक युवक ने कृषि मंत्री शरद पवार को चांटा मार दिया। इसको लेकर तमाम तरह की बातें हो रही हैं। जो गांधी कहते थे कि कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तुम अपना दूसरा गाल आगे कर दो, वहीं इस समय देश में उम्मीद की निगाहों से देखे जाने वाले बुजुर्ग गांधीवादी नेता की पवार प्रकरण पर त्वरित प्रतिक्रिया थी- बस एक ही मारा! प्रमुख विपक्षी दल के एक प्रमुख नेता ने कहा कि मंहगाई से परेशान लोग हिंसक हो उठेंगे। फेसबुक पर देखें तो कई पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी माने जाने वाले लोग लिख रहे हैं कि बहुत कोशिश की पवार को चांटा मारे जाने का विरोध करूं लेकिन कर नहीं पा रहा हूं। यह पहली घटना नहीं है, इससे पहले भी इस तरह की घटनाएं हुई हैं। हरविंदर जैसे सामान्य व्यक्ति ही नहीं, जितिन प्रसाद जैसे सांसद, जिन्हें हम युवा पीढ़ी का राजनीतिक मानते हैं, भी हाथ छोड़ने में पीछे नहीं हैं। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का अभिमान करने वाले हमारे समाज को क्या होता जा रहा है और क्यों होता जा रहा है? कहां गड़बड़ हो रही है? यह राजनीतिकों को ही नहीं, हम-आप को भी सोचना पड़ेगा। इस सवाल के मूल में जाना पड़ेगा और इसका समाधान खोजना होगा। मुझे कुछ वाकये याद हैं, जो बचपन में मैंने अपने गांव में दादा जी से और अपने गांव वाले स्कूल सुने-देखे थे। कुछ वाकये बड़े होने पर राजनीतिकों से सुने। उनमें कुछ शेयर करना चाहूंगा-
बचपन में मेरे दादा जी ने यह वाकया सुनाया था। बात 50 के दशक की है, खटीमा में नेहरू जी की सभा थी। खटीमा उत्तर प्रदेश के तराई इलाके में पड़ता था, जहां पाकिस्तानी पंजाब से आए सिखों को बसाया गया था। अब यह उत्तराखंड का हिस्सा है। बीच में चौकी डालकर माइक लगा दिया गया था। लोग उस चौकी के सामने बड़ी संख्या में एकत्र थे। लोग 100-100 किलोमीटर से खुद चलकर नेहरू को सुनने आए थे। नेहरू बोल रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि एक तरफ कुछ सिख युवक उनको काला झंडा दिखा रहे थे। नेहरू ने भाषण रोका, चौकी से नीचे उतरे और भीड़ को चीरते हुए उन युवकों के पास पहुंच गए। उनके हाथ से काला झंडा लिया और उसे फाड़कर फेंक दिया। युवकों को कुछ समझाया और फिर लौटकर भाषण शुरू किया।
दूसरी घटना मेरे गांव के पास के उस स्कूल की है, जहां से मैंने स्कूली पढ़ाई पूरी की। इमरजेंसी खत्म हो गई थी। चुनाव प्रचार चल रहा था। मेरा स्कूल संघ के प्रभाव वाला था और उसके कई शिक्षक संघ की शाखाएं लगाने का काम करते थे। वहां पहले जेपी की सभा हुई। पांच बच्चों को जेपी के लिए स्वागत गान गाने के लिए चुना गया। मैं भी उनमें से था। बाद में इंदिरा गांधी की सभा भी उसी स्कूल में हुई और वही हम पांच बच्चे उनके स्वागत में भी वही गान गाने के लिए चुने गए।
तीसरी घटना जो मैने लखनऊ के समाजवादी नेता चंद्रदत्त तिवारी जी से सुनी थी। 1966 में प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी अपने गृहनगर इलाहाबाद आने वाली थीं। 1965 के युद्ध की वजह से महंगाई चरम पर थी। इलाहाबाद में जहां कांग्रेसी लोगों ने उनके स्वागत की तैयारी की, वहीं कुछ अन्य लोगों ने महंगाई के विरोध में उन्हें काला झंडा दिखाने की घोषणा की। इंदिरा गांधी आईं तो सड़क के एक तरफ के लोग कांग्रेसी तिरंगे को लहरा कर उनका स्वागत कर रहे थे तो सड़क के दूसरी तरफ काला झंडा दिखाकर उनके सामने विरोध जता रहे थे। उस समय जतिन प्रसाद की तरह कांग्रेस के नेताओं ने काले झेंडे वालों पर लात घूंसे बरसाने नहीं शुरू कर दिए थे।
एक घटना अभी टीवी पर सुनी मोहन सिंह से। वह बता रहे थे कि फिरोज गांधी इलाहाबाद से चुनाव लड़ रहे थे। उनके विरोधी सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार नंदलाल के पास कार नहीं थी। फिरोज गांधी दोपहर 12 बजे से शाम चार बजे तक आराम करते थे। इस दौरान वे अपनी कार नंदलाल को दे देते कि लो तब तक आप इस कार से अपना प्रचार कर लीजिए।
हम कहां से कहां आ गए हैं। हमारा देश भले आज समृद्धि की राह पर बढ़ने का दावा कर रहा हो लेकिन हमारे समाज में जो प्रवृत्तियां पनप रही हैं, वे कतई विकसित समाज की ओर ले जाने वाली नहीं हैं।
और अंत में...
हम सब ने एक गीत जरूर सुना होगा हम लाये हैं तूफान से किस्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के। जागृति फिल्म का यह गीत प्रदीप ने लिखा था और अभि भट्टाचार्या पर फिल्माया गया था। इसी तरह का एक गीत और पढ़िए यहां। इसके बारे बात अगले रविवार को करेंगे-
बरसों के बाद फिर उड़े परचम हिलाल के
हम लाये हैं तूफान से किश्ती निकाल के
इस मुल्क को रखना मेरे बच्चों संभाल के
देखो कहीं उजड़े न हमारा ये बगीचा
इसको लहू से अपने शहीदों ने है सींचा
इसको बचाना जान मुसीबत में डाल के
हम लाये हैं...
दुनिया के सियासत के अजब रंग हैं न्यारे
चलना है तुमको तो मगर कुरान के सहारे
हर एक कदम उठाना जरा देखभाल के
इस मुल्क को रखना मेरे...
तुम राहत-ओ-आराम के झूले में न झूलो
काटों पे है चलना मेरे हंसते हुए फूलों
लेना अभी कश्मीर है, ये बात भूलो
कश्मीर में लहराएंगे झंडा उछाल के
इस मुल्क को रखना मेरे बच्चों संभाल के।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें