यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
(प्रभात खबर से साभार)
आज साल का पहला दिन है। इसलिए सबसे पहले आप सबको शुभकामनाएँ। हम उन राहों को चुनने की हिम्मत और हौसला कर सकें जिनको हम इसलिए खारिज करते रहते हैं कि कोई तो इन पर नहीं चला, ज़रूर कोई वजह होगी। लेकिन इस वजह को जानने की कोशिश अमूमन हम नहीं करते। लेकिन शायद ये राहें ही नवोन्मेष के दरवाजे खोलतीं हैं। बीते साल ने हमारे वैचारिक खोखलेपन को इस साल के लिए चुनौती के तौर पर प्रस्तुत किया है। अगर हम अपने देश की बात करें तो हमारा राजनीतिक चिंतन जिस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा से पर केंद्रित है जिसे पश्चिम से आयात किया गया है। गांधी के बाद हमारे समाज ने कोई ऐसा राजनीतिक चिंतक नहीं दिया जो अपने समाज के मूल्यों को प्रतिबिंबित करता हो। हमारा संविधान भी उसी राष्ट्र-राज्य की अवधारणा पर आधारित है, गांधी के चिंतन पर नहीं। यहीं पर दिक्कत आती है।
मैं इस हफ्ते लखनऊ में हुई एक अनौपचारिक चर्चा का ज़िक्र करना चाहूंगा। इस चर्चा में भारत सरकार के ए़क बड़े अफसर, दो फिजिक्स के प्राध्यापक, एक वैज्ञानिक, एक न्यायाधीश और एक किसान शामिल थे। सवाल था कि भारतीय संविधान बहुसंख्य भारतीयों का कितना ध्यान रखता है और ऐसा क्यों होता है कि क़ानून की व्याख्या अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग होती है? इस सवाल पर गरमागरम बहस हुई। पहले सवाल पर चर्चा में निकलकर आया कि हमारा संविधान पश्चिम के जिस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा पर आधारित है, उसी के चश्मे से संविधान की उपादेयता का आंकलन किया जाना चाहिए, हम यदि भारतीय समाज के मूल्यों के आधार पर इसका आंकलन करेंगे तो निराशा हाथ लग सकती है। जैसे त्याग हमारे समाज के लिए बहुत बड़ा मूल्य है लेकिन पश्चिम में यह मूल्य है ही नहीं। यही वजह है कि यदि हमारे यहाँ कोई व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को त्याग कर अपने भाई-बहनों को ज़िंदगी के लिए काम करता है तो उसके छोटे-मोटे कई अपराधों की समाज अनदेखी कर उसे अच्छा व्यक्ति ही मानता है। लेकिन पश्चिमी समाज में ऐसा नहीं है। हम संविधान को इन्हीं मूल्यों पर कसते हैं।
हम सब्जेक्टिव होते हैं और सिस्टम आब्जेक्टिविटी की अपेक्षा करता है। यहीं पर समस्या आती है। यह सब्जेक्टिविटी क़ानून की व्याख्या बदल देती है, यह सब्जेक्टिविटी नियमों की परिभाषा बदल देती है। अब सवाल यह उठता है कि क्या कोई सिस्टम इस सब्जेक्टिविटी को मिनिमाइज करने की मैकेनिज्म से लैस हो सकता है। इस पर जान नैश की गेम थ्योरी का ज़िक्र हुआ कि समाज कोई भी हो, हर व्यक्ति स्थितियों से अपने लिए फ़ायदे को मैक्सिमाइज करने की कोशिश करता है। एक किस्सा भी सामने आया कि एक बार एक गाँव में सूखा पड़ गया। पुरोहित ने बताया कि यदि गाँव का हर आदमी रात को अपने-अपने घर से एक लोटा दूध तालाब में डाले। इससे तालाब दूध से भर जाएगा। तालाब दूध से भर जाएगा तो बारिश होने लगेगी। सब तैयार हुए, मुहुर्त निकाला गया। रात में सबने पुरोहित के कहे मुताबिक एक-एक लोटा दूध तालाब में डालने का वचन दिया। लेकिन यह क्या, सुबह तालाब में दूध नहीं पानी भरा था। दरअसल हुआ यह कि हर आदमी ने सोचा कि बाकी तो दूध डालेंगे ही, यदि मैं एक लोटा पानी भी डाल दूंगा तो किसी को रात में क्या पता चलेगा। और सबने पानी ही डाला। मतलब यह कि हर व्यक्ति अपने फ़ायदे को मौक्सिमाइज करना चाहता था। यह किस्सा इसलिए सुनाया गया कि चर्चा में एक कोने से यह बात उठ रही थी कि गेम थ्योरी भारतीय समाज के मूल्यों को प्रतिबिंबित नहीं करती। आप भी सोचिए इन सवालों पर। आप मुझे अपनी बात मेल करेंगे तो इन सवालों पर चर्चा आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। फिलहाल यह बात यहीं समाप्त करते हैं।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ...
फेसबुक पर नोबेल पुरस्कार से सम्मानित पोलिग कवियित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का की एक कविता काफी दिन पहले पढ़ी थी। करीब १०-१२ साल पहले लिखी गई यह कविता बीत गए साल और नए साल की उम्मीदों के नाम पर पोस्ट के रूप में फेसबुक पर पिछले दिनों देखी। २०वीं सदी के अंत में लिखी गई यह कविता पढ़कर आप समझ सकते हैं कि इस सदी के ११ साल में हम एक क़दम भी आगे नहीं बढ़े। आप भी पढ़िए यह कविता....
आखिर हमारी सदी भी बीत चली है
इसे दूसरी सदियों से बेहतर होना था
लेकिन अब तो
इसकी कमर झुक गई है
साँस फूल गई है
कुछ समस्याएं थीं जिन्हें हल कर लेना था
मसलन भूख और लड़ाइयां
हमें बेबसों के आंसुओं के लिए
दिल में सम्मान जगाना था
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ
आज ये हालात है कि
सुख एक मारीचिका बनकर रह गया है
कोई नहीं हंसता है बेवकूफियों पर
और न ही फख्र करता है
अक्लमंदी पर
अब तो यह उम्मीद भी
सोलह साला हसीना नहीं रही
हमने सोचा था कि
आखिरकार खुदा को भी
एक अच्छे और ताकतवर इंसान पर भरोसा करना होगा
लेकिन अफसोस
इंसान अच्छा और ताकतवर
एक साथ नहीं बन सका
आखिर हम जियें तो कैसे जियें
किसी ने ख़त में पूछा था
मैं भी तो यही पूछना चाहती थी
जैसा कि आप देख चुके हैं
हर बार वही होता है
सबसे अहम सवाल
सबसे बचकाने
ठहरा दिये जाते हैं
(प्रभात खबर से साभार)
आज साल का पहला दिन है। इसलिए सबसे पहले आप सबको शुभकामनाएँ। हम उन राहों को चुनने की हिम्मत और हौसला कर सकें जिनको हम इसलिए खारिज करते रहते हैं कि कोई तो इन पर नहीं चला, ज़रूर कोई वजह होगी। लेकिन इस वजह को जानने की कोशिश अमूमन हम नहीं करते। लेकिन शायद ये राहें ही नवोन्मेष के दरवाजे खोलतीं हैं। बीते साल ने हमारे वैचारिक खोखलेपन को इस साल के लिए चुनौती के तौर पर प्रस्तुत किया है। अगर हम अपने देश की बात करें तो हमारा राजनीतिक चिंतन जिस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा से पर केंद्रित है जिसे पश्चिम से आयात किया गया है। गांधी के बाद हमारे समाज ने कोई ऐसा राजनीतिक चिंतक नहीं दिया जो अपने समाज के मूल्यों को प्रतिबिंबित करता हो। हमारा संविधान भी उसी राष्ट्र-राज्य की अवधारणा पर आधारित है, गांधी के चिंतन पर नहीं। यहीं पर दिक्कत आती है।
मैं इस हफ्ते लखनऊ में हुई एक अनौपचारिक चर्चा का ज़िक्र करना चाहूंगा। इस चर्चा में भारत सरकार के ए़क बड़े अफसर, दो फिजिक्स के प्राध्यापक, एक वैज्ञानिक, एक न्यायाधीश और एक किसान शामिल थे। सवाल था कि भारतीय संविधान बहुसंख्य भारतीयों का कितना ध्यान रखता है और ऐसा क्यों होता है कि क़ानून की व्याख्या अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग होती है? इस सवाल पर गरमागरम बहस हुई। पहले सवाल पर चर्चा में निकलकर आया कि हमारा संविधान पश्चिम के जिस राष्ट्र-राज्य की अवधारणा पर आधारित है, उसी के चश्मे से संविधान की उपादेयता का आंकलन किया जाना चाहिए, हम यदि भारतीय समाज के मूल्यों के आधार पर इसका आंकलन करेंगे तो निराशा हाथ लग सकती है। जैसे त्याग हमारे समाज के लिए बहुत बड़ा मूल्य है लेकिन पश्चिम में यह मूल्य है ही नहीं। यही वजह है कि यदि हमारे यहाँ कोई व्यक्ति अपने व्यक्तिगत स्वार्थों को त्याग कर अपने भाई-बहनों को ज़िंदगी के लिए काम करता है तो उसके छोटे-मोटे कई अपराधों की समाज अनदेखी कर उसे अच्छा व्यक्ति ही मानता है। लेकिन पश्चिमी समाज में ऐसा नहीं है। हम संविधान को इन्हीं मूल्यों पर कसते हैं।
हम सब्जेक्टिव होते हैं और सिस्टम आब्जेक्टिविटी की अपेक्षा करता है। यहीं पर समस्या आती है। यह सब्जेक्टिविटी क़ानून की व्याख्या बदल देती है, यह सब्जेक्टिविटी नियमों की परिभाषा बदल देती है। अब सवाल यह उठता है कि क्या कोई सिस्टम इस सब्जेक्टिविटी को मिनिमाइज करने की मैकेनिज्म से लैस हो सकता है। इस पर जान नैश की गेम थ्योरी का ज़िक्र हुआ कि समाज कोई भी हो, हर व्यक्ति स्थितियों से अपने लिए फ़ायदे को मैक्सिमाइज करने की कोशिश करता है। एक किस्सा भी सामने आया कि एक बार एक गाँव में सूखा पड़ गया। पुरोहित ने बताया कि यदि गाँव का हर आदमी रात को अपने-अपने घर से एक लोटा दूध तालाब में डाले। इससे तालाब दूध से भर जाएगा। तालाब दूध से भर जाएगा तो बारिश होने लगेगी। सब तैयार हुए, मुहुर्त निकाला गया। रात में सबने पुरोहित के कहे मुताबिक एक-एक लोटा दूध तालाब में डालने का वचन दिया। लेकिन यह क्या, सुबह तालाब में दूध नहीं पानी भरा था। दरअसल हुआ यह कि हर आदमी ने सोचा कि बाकी तो दूध डालेंगे ही, यदि मैं एक लोटा पानी भी डाल दूंगा तो किसी को रात में क्या पता चलेगा। और सबने पानी ही डाला। मतलब यह कि हर व्यक्ति अपने फ़ायदे को मौक्सिमाइज करना चाहता था। यह किस्सा इसलिए सुनाया गया कि चर्चा में एक कोने से यह बात उठ रही थी कि गेम थ्योरी भारतीय समाज के मूल्यों को प्रतिबिंबित नहीं करती। आप भी सोचिए इन सवालों पर। आप मुझे अपनी बात मेल करेंगे तो इन सवालों पर चर्चा आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। फिलहाल यह बात यहीं समाप्त करते हैं।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ...
फेसबुक पर नोबेल पुरस्कार से सम्मानित पोलिग कवियित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का की एक कविता काफी दिन पहले पढ़ी थी। करीब १०-१२ साल पहले लिखी गई यह कविता बीत गए साल और नए साल की उम्मीदों के नाम पर पोस्ट के रूप में फेसबुक पर पिछले दिनों देखी। २०वीं सदी के अंत में लिखी गई यह कविता पढ़कर आप समझ सकते हैं कि इस सदी के ११ साल में हम एक क़दम भी आगे नहीं बढ़े। आप भी पढ़िए यह कविता....
आखिर हमारी सदी भी बीत चली है
इसे दूसरी सदियों से बेहतर होना था
लेकिन अब तो
इसकी कमर झुक गई है
साँस फूल गई है
कुछ समस्याएं थीं जिन्हें हल कर लेना था
मसलन भूख और लड़ाइयां
हमें बेबसों के आंसुओं के लिए
दिल में सम्मान जगाना था
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ
आज ये हालात है कि
सुख एक मारीचिका बनकर रह गया है
कोई नहीं हंसता है बेवकूफियों पर
और न ही फख्र करता है
अक्लमंदी पर
अब तो यह उम्मीद भी
सोलह साला हसीना नहीं रही
हमने सोचा था कि
आखिरकार खुदा को भी
एक अच्छे और ताकतवर इंसान पर भरोसा करना होगा
लेकिन अफसोस
इंसान अच्छा और ताकतवर
एक साथ नहीं बन सका
आखिर हम जियें तो कैसे जियें
किसी ने ख़त में पूछा था
मैं भी तो यही पूछना चाहती थी
जैसा कि आप देख चुके हैं
हर बार वही होता है
सबसे अहम सवाल
सबसे बचकाने
ठहरा दिये जाते हैं
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