शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

नीतीश ने कहा था, अफसर देर करे तो वह पैसा देख रहा होगा

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर से साभार)


(11 दिसंबर, 2011 को प्रकाशित)
हमारी व्यवस्था कितनी संवेदनहीन और गैरजवाबदेह है, इसका उदाहरण है कोलकाता के अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस एमआऱआई अस्पताल का अग्निकांड। जिंदगी की उम्मीद में आने वाले लोगों को मौत मिली। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर पर लिखा है कि हम वाकई तीसरी दुनिया के देश हैं लेकिन वहम पाले हुए हैं विकसित देशों की कतार में खड़े होने का। लेकिन सवाल यह है कि इस सबके लिए जिम्मेदार कौन है। पहले पढ़िए, जिम्मेदार अफसरों ने क्या कहा... कोलकाता अग्निशमन विभाग के एक अधिकारी का कहना है कि अस्पताल में फायर कंट्रोल सिस्टम ठीक हालत में नहीं था। अस्पताल का स्टाफ आग जैसी आपात स्थितियों से निबटने में सक्षम नहीं था और न उनको इसकी कोई ट्रेनिंग दी गई। अस्पताल के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि अस्पताल में फायर सेफ्टी नियमों का पूरा अनुपालन किया जा रहा था, इमारत में स्मोक डिटेक्टर और अग्निशामक यंत्र लगे हुए थे। न्यूयार्क टाइम्स को शुक्रवार को दिये गये इंटरव्यू में कहा कि फायर सेफ्टी राज्यों का विषय है, केंद्र के तहत यह नहीं आता। अलबत्ता, भारतीय राष्ट्रीय विल्डिंग संहिता 2005 नाम से एक कानून है जिसमें इमारतों में सुरक्षा के नियमन दिये गए हैं लेकिन यह कानून राज्यों पर तब तक लागू नहीं होता जब तक राज्यों की विधानसभाएं इसे लागू करने का कानून न बनायें। 2005 में ही आपदा नियंत्रण कानून बना लेकिन इसमें आग को शामिल नहीं किया गया। यानी कहीं कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं।
इस कांड के बाद जो बातें सामने आईं, उनमें कुछ नया नहीं हैं। मसलन बीते अप्रैल में फायर ब्रिगेड ने अस्पताल को नोटिस जारी किया था कि अस्पताल बेसमेंट का इस्तेमाल पार्किंग के लिये न कर के गैस सिलिंडर, कबाड़ और लकड़ी के बाक्स रखने को स्टोर के लिए कर रहा है। इस नोटिस में अस्पताल को तीन माह के भीतर बेसमेंट से स्टोर हटाने को कहा गया था। इसके बाद क्या हुआ, कोई कुछ नहीं बता रहा। लेकिन फायर ब्रिगेड ने यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से हाथ झाड़ लिया क्योंकि उसने तो नोटिस जारी कर दी थी। लेकिन सवाल जो हम सबको पूछना चाहिए कि क्या अस्पताल प्रबंधन के साथ-साथ सरकारी महकमें भी बराबर को दोषी नहीं हैं? हम जानते हैं कि आगे क्या होगा। जांच बैठेगी। बहुत त्वरित जांच हुई तो कुछ माह में रिपोर्ट आएगी। उस रिपोर्ट के आधार पर दोषियों पर मुकदमा चलेगा। लेकिन शायद ही कोई सरकारी अधिकारी इस जांच में फंसेगा। जिन अधिकारियों ने नोटिस जारी की लेकिन फिर कोई कार्रवाई नहीं की, क्या इसके कारणों का पता लगाया जाएगा, क्या यह पता लगाया जाएगा कि इतनी गंभीर लापरवाही को ठीक करने के लिए तीन माह क्यों दिये, तुरंत क्यों नहीं अस्पताल को बंद कर बेसमेंट को पार्किंग के लिए खाली करने को कहा गया? मुझे तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बात याद आ रही है कि यदि कोई अफसर ऐसे मामलों में ढीलमढाल करता है तो जरूर उसे पैसा दिखाई दे रहा होगा। यह बात हर जगह लागू है।

सिब्बल और सोशल साइट्स
कपिल सिब्बल मुझे बहुत समझदार व्यक्ति लगते थे। लेकिन जबसे मैंने टीवी पर बाबा रामदेव की अगवानी में दिल्ली एयरपोर्ट पर कपिल सिब्बल को हैरान-परेशान मुद्रा में देखा, तबसे कुछ और तस्वीर बन गई उनकी मेरे जेहन में। अगर आपने वह दृश्य टीवी पर देखा हो तो याद करिये। हाल में उन्होंने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर प्रतिबंध की बात कही और फंसने पर कहा कि धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले कमेंट्स उन पर आते हैं, उनका इरादा इन्हीं कमेंट्स को रोकने का है। कपिल सिब्बल जैसे नेता शायद हमें-आपको ढोर-ढंगर से ज्यादा कुछ नहीं समझते कि जो वे कहेंगे, उसके आगे कोई कुछ सोच ही नहीं पाएगा। वैसे कांग्रेस शायद सोची-समझी रणनीति के तहत यह बात फैलाने का षडयंत्र कर रही है कि भारत की सबसे बड़ी समस्या यहां ज्यादा लोकतंत्र का होना है। बाबा रामदेव प्रकरण, अन्ना हजारे प्रकरण और अब सोशल साइट्स पर सेंसरशिप के प्रस्ताव से क्या इस षडयंत्र की बू नहीं आती? 70 के दशक में कांग्रेस ने यह फैलाना शुरू किया था कि मेधावी छात्रों और अच्छे लोगों को राजनीति से दूर रहना चाहिए। उनकी यह रणनीति सफल भी रही। उसके बाद नक्सलबाड़ी या जेपी आंदोलन जैसा कोई युवा आंदोलन नहीं खड़ा हो पाया। आज भी मां-बाप अपने बच्चों को राजनीति से दूर रहने की सलाह देते हैं।
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 और अंत में...

फरीद खां पटना के रहने वाले हैं। फेसबुक पर मैंने पढ़ीं इस टिप्पणी के साथ कि उनकी कविताएँ वाकई में जिंदगी का अहसास दिलाती रहती हैं। आपके होने का याद दिलाती हैं। आप मर तो नहीं रहें, यह सवाल भी आपसे करती हैं। पढें और पढाएँ। मैंने पढ़ा और आपको पढ़ा रहा हूं...

वह अपना हिसाब मांगेगा

जिसे पता ही नहीं कि उसे बेच दिया गया है,
और एक दिन राह चलते अचानक ही उसे किसी ग़ैर से पता चले
कि उसे बेच दिया गया है.
तो आज नहीं तो कल,
वह अपना हिसाब मांगेगा ही.

पानी अपना हिसाब मांगेगा एक दिन.
लौट कर आयेगा पूरे वेग से,
वापस मांगने अपनी ज़मीन.

पहले लगता था
पहले लगता था कि जो सरकार बनाते हैं,
वे ही चलाते हैं देश.
पहले लगता था कि संसद में जाते हैं
हमारे ही प्रतिनिधि.

पहले लगता था कि सबको एक जैसा अधिकार है.

पहले लगता था कि अदालतों में होता है इंसाफ़.
पहले लगता था कि अख़बारों में छपता है सच.
पहले लगता था कि कलाकार होता है स्वच्छ.

पहले लगता था कि ईश्वर ने बनाई है दुनिया,
पाप पुण्य का होगा एक दिन हिसाब.
पहले लगता था कि मज़हबी इंसान ईमानदार तो होता ही है.
पहले लगता था कि सच की होगी जीत एक दिन,
केवल आवाज़ उठाने से ही सुलझ जाता है सब.

अभी केवल इतना ही लगता है,
कि सूरज जिधर से निकलता है,
वह पूरब ही है,
और डूबता है वह पच्छिम में. बस.

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