यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
(प्रभात खबर से साभार)
देश के पढे-लिखे लोग देश को लेकर क्या सोचते हैं, भारतीय गणतंत्र को लेकर क्या सोचते हैं, इस गणतंत्र को चला रहे नेताओं के बारे में क्या सोचते हैं और अपने बारे में क्या सोचते हैं, यह समझना रोचक होगा। हालांकि मैं यहाँ जो सैंपल ले रहा हूं, वह बहुत छोटा है और संकीर्ण भी फिर भी उम्मीद है कि इससे भारतीय मानस को समझने में कुछ मदद ज़रूर मिलेगी। जी हाँ, मैं यहाँ ज़िक्र करने जा रहा हूं फेसबुक व ट्विटर पर गणतंत्र दिवस के मौके पर पोस्ट किये गए संदेशों का। ये संदेश एक वर्ग विशेष के ही हैं लेकिन यही वह वर्ग विशेष है जिसे विकास के फल खाने को मिले हैं। आइए जाने कि हमारे मुल्क के साधन-संपन्न आम आदमी का नज़रिया किस तरह इंटरनेट पर व्य्क्त हुआ। भोपाल से एक पत्रकार का फेसबुक पर मेसेज - मुट्ठी भर लोगों का, मुट्ठी भर लोगों के लिए, मुट्ठी भर लोगों के द्वारा...गणतंत्र मुबारक। एक वेबसाइट ने पोस्ट किया - किसी भी समाज के लिए ६२ वर्ष कम नहीं होते। लेकिन क़ानून के राज की बात करने वाले ही क़ानून को अपनी खूंटी पर टांगे हुए हैं। एक बड़े मीडिया हाउस के ब्रांड कम्युनिकेशन हेड ने फेसबुक पर लिखा कि कम से कम एक बार परेड के साथ, दोस्तों के साथ या परिवार के साथ राष्ट्रीय गान गंभीर होकर गाइये। यह सुनिश्चित कर लें कि राष्ट्रीय गान की लाइनें आपको सही-सही याद हैं। और बेहतर राष्ट्र बनाने के लिए हर चुनाव में वोट देने का फैसला करें। बालीवुड की एक सिंगर ने ट्विट किया कि जिस भावना से संविधान बनाया गया था, हमें कम से कम उसी भावना के साथ जीने की कोशिश करनी चाहिए। दिल्ली की परेड टीवी पर देखने के बाद एक बड़े टीवी पत्रकार ने लिखा कि दूरदर्शन की कमेंट्री में कोई बदलाव नहीं आया है, सुनकर लगता है कि देश नहीं बदला है...कोई तो है जो निरंतरता का प्रतीक है। कश्मीर से एक पोस्ट - मोबाइल जाम कर दिये गये हैं...गणतंत्र दिवस मुबारक। कश्मीर से ही एक और पोस्ट कि गणतंत्र दिवस मनाने में कोई हर्ज नहीं लेकिन भारतीय गणतंत्र तब तक अधूरा है जब तक आम कश्मीरियों के मौलिक अधिकारों का सम्मान नहीं है।
शायर राहत इंदौरी ने ये लाइनें पोस्ट कीं - बन के एक हादसा बाज़ार में आ जाएगा / जो नहीं होगा वो अखबार में आ जाएगा / चोर उचक्कों की करो कद्र कि मालूम नहीं / कौन, कब, कौन सी सरकार में आ जाएगा।
एक और पोस्ट है - गौण हैं गण यहां, तंत्र की तकरार है / ऐ मेरे गणतंत्र तेरी फिर भी जय जयकार है। एक और कवित्त मिला कि रहिमन जूता राखिये कांखन बगल दबाय / न जाने किस मोड़ पर भ्रष्ट नेता मिल जाय। एक पोस्ट में नागार्जुन की कविता है - पटना है, दिल्ली है / वहीं सब जुगाड़ है / फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है / पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है / मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है / सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है (मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है) / उसी की जनवरी, उसी का अगस्त है।
फेसबुक और ट्विटर पर इस तरह की लाखों पोस्ट गणतंत्र दिवस पर आईं होंगी। यह एक दिन का कमाल नहीं है, बरसों से पैदा हो रहा दर्द है जो पहले तमाम आंदोलनों में व्यक्त होता था। तब सत्तावर्ग इसे विरोधियों का हथकंडा बताकर खारिज करता रहता था और आज भी कर रहा है। लेकिन सोशल नेटवर्किंग साइट्स तो किसी राजनीतिक संगठन की नहीं हैं और आज उनपर भी दर्द व्यक्त किया जा रहा है। लेकिन सत्तावर्ग इस दर्द को समझने की जगह इनको बैन करने की बात कर रहा है। पारंपरिक मीडिया पर अंकुश के भी बड़े प्रभावी और लोकतांत्रिक तरीके यह वर्ग पहले ही ईजाद कर चुका है। हमारी राजनीति कहाँ आ गई है - मुझे याद है कि हम बचपन में गाँव में २६ जनवरी, १५ अगस्त को प्रभातफेरी निकालते थे और नारे लगाते थे कि तिलक जी अमर रहें, महात्मा गांधी अमर रहें, सरदार भगत सिंह अमर रहें, डा राजेंद्र प्रसाद अमर रहें, पंडित जवाहरलाल नेहरू अमर रहें, लालबहादुर शास्त्री अमर रहें, मौलाना आजाद अमर रहें, डा राधाकृष्णन अमर रहें और साथ में जीवित पूर्व राष्ट्रपतियों व प्रधानमंत्रियों व मौजूदा के नाम पर जिंदाबाद कहा जाता था। यह बात १९७९ के जनता शासन तक थी। दो साल पहले मैंने उत्तराखंड के एक गाँव में १५ अगस्त की प्रभातफेरी देखी। मैंने देखा, नारों से पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों व राष्ट्रपतियों का नाम तो छोड़िये मौजूदा के नाम पर भी जिंदाबाद नहीं था। चिंता की बात यह नहीं है कि वे नारे गायब हो गए, चिंता की बात वे कारण हैं जो शायद इन नारों के गायब होने के पीछे हैं। सोचिए क्या पिछले २०-२५ सालों में कोई ऐसा प्रधानमंत्री रहा जिसके लिए हम सब एक राष्ट्र के तौर पर अमर रहें या जिंदाबाद कह सकें। यही दर्द है जो सब जगह व्यक्त हो रहा है अलग-अलग तरीके से।
और अंत में...
इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू नेशनल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी के एक प्राध्यापक की पोस्ट अंत में-
एक शायर ने कहा है कि आदमी अगर जिंदा है तो जिंदा दीखना भी चाहिए। आप सबके लिए २६ जनवरी, १९५० को रचित राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कालजयी कृति जनतंत्र का जन्म के अंश....
सदियों की ठंडी-बुझी आग सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ?
वह जिधर चाहती काल उधर ही मुड़ता है
आरती लिये तू किसे ढूढ़ता है मूरख
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में
फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं
धूसरता सोने से श्रंगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
(प्रभात खबर से साभार)
देश के पढे-लिखे लोग देश को लेकर क्या सोचते हैं, भारतीय गणतंत्र को लेकर क्या सोचते हैं, इस गणतंत्र को चला रहे नेताओं के बारे में क्या सोचते हैं और अपने बारे में क्या सोचते हैं, यह समझना रोचक होगा। हालांकि मैं यहाँ जो सैंपल ले रहा हूं, वह बहुत छोटा है और संकीर्ण भी फिर भी उम्मीद है कि इससे भारतीय मानस को समझने में कुछ मदद ज़रूर मिलेगी। जी हाँ, मैं यहाँ ज़िक्र करने जा रहा हूं फेसबुक व ट्विटर पर गणतंत्र दिवस के मौके पर पोस्ट किये गए संदेशों का। ये संदेश एक वर्ग विशेष के ही हैं लेकिन यही वह वर्ग विशेष है जिसे विकास के फल खाने को मिले हैं। आइए जाने कि हमारे मुल्क के साधन-संपन्न आम आदमी का नज़रिया किस तरह इंटरनेट पर व्य्क्त हुआ। भोपाल से एक पत्रकार का फेसबुक पर मेसेज - मुट्ठी भर लोगों का, मुट्ठी भर लोगों के लिए, मुट्ठी भर लोगों के द्वारा...गणतंत्र मुबारक। एक वेबसाइट ने पोस्ट किया - किसी भी समाज के लिए ६२ वर्ष कम नहीं होते। लेकिन क़ानून के राज की बात करने वाले ही क़ानून को अपनी खूंटी पर टांगे हुए हैं। एक बड़े मीडिया हाउस के ब्रांड कम्युनिकेशन हेड ने फेसबुक पर लिखा कि कम से कम एक बार परेड के साथ, दोस्तों के साथ या परिवार के साथ राष्ट्रीय गान गंभीर होकर गाइये। यह सुनिश्चित कर लें कि राष्ट्रीय गान की लाइनें आपको सही-सही याद हैं। और बेहतर राष्ट्र बनाने के लिए हर चुनाव में वोट देने का फैसला करें। बालीवुड की एक सिंगर ने ट्विट किया कि जिस भावना से संविधान बनाया गया था, हमें कम से कम उसी भावना के साथ जीने की कोशिश करनी चाहिए। दिल्ली की परेड टीवी पर देखने के बाद एक बड़े टीवी पत्रकार ने लिखा कि दूरदर्शन की कमेंट्री में कोई बदलाव नहीं आया है, सुनकर लगता है कि देश नहीं बदला है...कोई तो है जो निरंतरता का प्रतीक है। कश्मीर से एक पोस्ट - मोबाइल जाम कर दिये गये हैं...गणतंत्र दिवस मुबारक। कश्मीर से ही एक और पोस्ट कि गणतंत्र दिवस मनाने में कोई हर्ज नहीं लेकिन भारतीय गणतंत्र तब तक अधूरा है जब तक आम कश्मीरियों के मौलिक अधिकारों का सम्मान नहीं है।
शायर राहत इंदौरी ने ये लाइनें पोस्ट कीं - बन के एक हादसा बाज़ार में आ जाएगा / जो नहीं होगा वो अखबार में आ जाएगा / चोर उचक्कों की करो कद्र कि मालूम नहीं / कौन, कब, कौन सी सरकार में आ जाएगा।
एक और पोस्ट है - गौण हैं गण यहां, तंत्र की तकरार है / ऐ मेरे गणतंत्र तेरी फिर भी जय जयकार है। एक और कवित्त मिला कि रहिमन जूता राखिये कांखन बगल दबाय / न जाने किस मोड़ पर भ्रष्ट नेता मिल जाय। एक पोस्ट में नागार्जुन की कविता है - पटना है, दिल्ली है / वहीं सब जुगाड़ है / फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है / पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है / मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है / सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है (मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है) / उसी की जनवरी, उसी का अगस्त है।
फेसबुक और ट्विटर पर इस तरह की लाखों पोस्ट गणतंत्र दिवस पर आईं होंगी। यह एक दिन का कमाल नहीं है, बरसों से पैदा हो रहा दर्द है जो पहले तमाम आंदोलनों में व्यक्त होता था। तब सत्तावर्ग इसे विरोधियों का हथकंडा बताकर खारिज करता रहता था और आज भी कर रहा है। लेकिन सोशल नेटवर्किंग साइट्स तो किसी राजनीतिक संगठन की नहीं हैं और आज उनपर भी दर्द व्यक्त किया जा रहा है। लेकिन सत्तावर्ग इस दर्द को समझने की जगह इनको बैन करने की बात कर रहा है। पारंपरिक मीडिया पर अंकुश के भी बड़े प्रभावी और लोकतांत्रिक तरीके यह वर्ग पहले ही ईजाद कर चुका है। हमारी राजनीति कहाँ आ गई है - मुझे याद है कि हम बचपन में गाँव में २६ जनवरी, १५ अगस्त को प्रभातफेरी निकालते थे और नारे लगाते थे कि तिलक जी अमर रहें, महात्मा गांधी अमर रहें, सरदार भगत सिंह अमर रहें, डा राजेंद्र प्रसाद अमर रहें, पंडित जवाहरलाल नेहरू अमर रहें, लालबहादुर शास्त्री अमर रहें, मौलाना आजाद अमर रहें, डा राधाकृष्णन अमर रहें और साथ में जीवित पूर्व राष्ट्रपतियों व प्रधानमंत्रियों व मौजूदा के नाम पर जिंदाबाद कहा जाता था। यह बात १९७९ के जनता शासन तक थी। दो साल पहले मैंने उत्तराखंड के एक गाँव में १५ अगस्त की प्रभातफेरी देखी। मैंने देखा, नारों से पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों व राष्ट्रपतियों का नाम तो छोड़िये मौजूदा के नाम पर भी जिंदाबाद नहीं था। चिंता की बात यह नहीं है कि वे नारे गायब हो गए, चिंता की बात वे कारण हैं जो शायद इन नारों के गायब होने के पीछे हैं। सोचिए क्या पिछले २०-२५ सालों में कोई ऐसा प्रधानमंत्री रहा जिसके लिए हम सब एक राष्ट्र के तौर पर अमर रहें या जिंदाबाद कह सकें। यही दर्द है जो सब जगह व्यक्त हो रहा है अलग-अलग तरीके से।
और अंत में...
इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू नेशनल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी के एक प्राध्यापक की पोस्ट अंत में-
एक शायर ने कहा है कि आदमी अगर जिंदा है तो जिंदा दीखना भी चाहिए। आप सबके लिए २६ जनवरी, १९५० को रचित राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कालजयी कृति जनतंत्र का जन्म के अंश....
सदियों की ठंडी-बुझी आग सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ?
वह जिधर चाहती काल उधर ही मुड़ता है
आरती लिये तू किसे ढूढ़ता है मूरख
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में
फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं
धूसरता सोने से श्रंगार सजाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें