रविवार, 22 जनवरी 2012

बंद दिमागों से चल रहा है हमारा समाज

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर से साभार) 




सलमान रुश्दी को लेकर हाय-तौबा मचा हुआ है। कई वर्ग हैं। एक वर्ग है जो कह रहा है कि सलमान रुश्दी को आने देना एक समुदाय की भावनाओं को आहत करना है। दूसरी तरफ एक वर्ग ऐसा है जो सलमान की जान की कीमत लगा रहा है। एक वर्ग है जो इस विवाद के साये में वोटों की गिनती कर रहा है। एक और वर्ग है और जो सबसे बड़ा वर्ग है पर चुप्पी साधे है। लेकिन यह चुप्पी खुद इस सबसे बड़े वर्ग के लिए खतरनाक है। एक तमाशा हो रहा है जयपुर लिटरेरी फेस्ट में। ध्यान रहे यह लिटरेरी फेस्ट है। इसमें पहले तो कुछ मझोले कद के अंग्रेजी लेखकों ने रुश्दी की प्रतिबंधित किताब का पाठ शुरू कर दिया जैसे यह किताब न होकर कोई मंत्र है जिसको जपे बिना ये लेखक धर्मच्युत हो जाएंगे। ऊपर से गजब किया आयोजकों ने यह बयान देकर कि तय कार्यक्रम में इस किताब का पाठ शामिल नहीं है और इसलिए पाठ रुकवा दिया। यह नाटकबाजी क्यों? जिन लेखकों को लग रहा है कि रुश्दी के बिना यह फेस्ट नहीं होना चाहिए, उन्हें पब्लिसिटी का लालच छोड़कर इस फेस्ट में नहीं आना चाहिए था। और जो फेस्ट करा रहे हैं, उनको भी साहित्य का मतलब समझना चाहिए। वे ऐसा बयान देकर इस फेस्ट की गरिमा ही नहीं गिरा रहे बल्कि भाट-चारण की भूमिका में आ गए हैं।

 ये सवाल तो अपनी जगह हैं ही लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ये प्रवृत्तियां हमारे समाज को किस तरफ ले जा रही हैं। हम अमेरिका से आगे निकलने के सपने पाले हुए हैं और समाज के स्तर पर हमारी प्रवृत्तियां ठीक उलटा है। ताज्जुब तो इस बात से है कि इन प्रवृत्तियों का वाहक वर्ग बहुत छोटा है फिर भी उस बड़े वर्ग पर हावी है जो उदारमना है। यह सब पिछले 20-25 सालों में ज्यादा हुआ है। पता नहीं यह संयोगमात्र है या फलस्वरूप लेकिन जबसे हम मुक्त बाजार की अवधारणा पर चलने लगे हैं, हमारा समाज स्वार्थ बंद दिमागों से चलना शुरू हो गया है।





मुझे याद है जब 1988 में सलमान रुश्दी की सैटेनिक वर्सेस पर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने प्रतिबंध लगाया था, तब किस तरह पूरे देश में इसका विरोध शुरू हुआ था। विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन हुए थे। हर जगह परचे बांटे गए इस प्रतिबंध के खिलाफ। अयातुल्लाह खोमैनी की घोषणा पर हमारे यहां का नौजवान बौखलाया हुआ दिखाई दे रहा था कि खुद को खुदा समझने वाला एक अयातुल्लाह खोमैनी इतिहास चक्र को उल्टा मोड़ना चाहता है। मुझे याद है लखनऊ में किस तरह अमृतलाल नागर जैसे साहित्यकार खड़े हो गए थे। ये सब सैटेनिक वर्सेस के समर्थन में नहीं थे बल्कि इतिहास चक्र को उल्टा मोड़ने वाली प्रवृत्ति के खिलाफ थे। लेकिन आज क्या हो रहा है? देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय में एके रामानुजन के निबंध थ्री हंड्रेड रामायन्स : फाइव एक्जाम्पल्स एंड थ्री थाट्स आन ट्रांसलेशंस को अपने पाठ्यक्रम से इसलिए निकाल दिया कि कुछ लोग इसका विरोध कर रहे थे और कह रहे थे कि इसमें राम और सीता के बारे में आपत्तिजनक बाते हैं। हम आपको बताते चलें कि इसमें दुनिया भर में फैली हुईं रामायण कथाओं का जिक्र है जिसमें अपने यहां की संताल वाचिक परंपरा से ली गई सीता से संबंधित एक कहानी भी है। और इससे पहले देखें, अपने देश के सबसे बड़े कलाकार एमएफ हुसैन को देश बदर कर दिया था इन ताकतों ने। आप खुद सोचिये कि क्या यह सब सिर्फ वोट के लिए नहीं हो रहा? यानी जिनको हम सब जिम्मेदारी दिए हुए हैं राजनीति के जरिए समाज को आगे ले जाने की, वे सत्ता के लिए हम सब को गर्त में ढकेलते जा रहे हैं।

जरा इतिहास में झांक कर देखें पंद्रहवी सदी में यूरोप में प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत हुई। उस समय पूरा यूरोप टर्की के ओट्टोमन साम्राज्य से डरा हुआ रहता था। जर्मनी में लोगों ने टर्की विरोधी परचे छापने में प्रिंटिंग प्रेस का इस्तेमाल शुरू किया। कुछ वर्ष बाद बासेल में कुरान का अनुवाद लैटिन में किया गया और छापा गया। इस पर यूरोप में मांग उठी कि इस पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। यह बात 1542 की है। लेकिन मार्टिन लूथर किंग (सीनियर) ने इसका विरोध किया और कुरान के प्रकाशन पर रोक नहीं लगने दी। 1543 में कुरान के तीन संस्करण छपे और फिर सात साल बाद एक और संस्करण छपा। इससे बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता जो यूरोपीय समाज में खुलेपन की शुरुआत को दर्शाए। यह शुरुआत यूरोप को कहां ले गई और बाकी को कहां।
कश्मीर के पत्रकार बशीर मंजर ने  फेसबुक पर लिखा मुझे ताज्जुब हो रहा है कि मुसलिम संस्थाएं सलमान रुश्दी की यात्रा का विरोध कर रही हैं। क्या हम लोग उस आदमी से इतना डरे हुए हैं कि  उसकी उपस्थिति मात्र से हमें डरावने सपने आने लगते हैं। क्या हममें से कोई रुश्दी का सामना विद्वता के धरातल पर पूर्व आयरिश नन कारेन आर्मस्ट्रांग की तरह नहीं कर सकता। क्या हम अपने को कमजोर, झक्की, प्रतिक्रियावादी और तर्करहित नहीं सिद्ध कर रहे?

और अंत में...

बिना किसी भूमिका के फैज अहमद फैज की यह नज्म पढ़िए...


हम देखेंगे...
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
हम देखेंगे।
जो लाहे अजल में लिखा है
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे .
जब जुल्मो-सितम के कोहे गरां
रूई की तरह उड़ जायेंगे
हम महरूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले हकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़केगी
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे
जब अरजे खुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहले सफा मरदूदे हरम
मसनद पे बिठाये जायेंगे
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे .
बस नाम रहेगा अल्ला का
जो गायब भी हाजिर भी
जो नाजिर भी है मंजर भी
उठेगा अनलहक का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्के खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
हम देखेंगे.




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