यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
(प्रभात खबर से साभार)
और अंत में...
अशोक वाजपेयी आधुनिक हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हालांकि हिंदी साहित्य में खेमेबंदी के चलते उनको उतना सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार हैं। इस बार अंत में उनकी ही एक कविता -
तुम चले जाओगे
पर थोड़ा-सा यहाँ भी रह जाओगे
जैसे रह जाती है
पहली बारिश के बाद
हवा में धरती की सोंधी-सी गंध
भोर के उजास में
थोड़ा-सा चंद्रमा
खंडहर हो रहे मंदिर में
अनसुनी प्राचीन नूपुरों की झंकार
तुम चले जाओगे
पर थोड़ी-सी हँसी
आँखों की थोड़ी-सी चमक
हाथ की बनी थोड़ी-सी कॉफी
यहीं रह जाएँगे
प्रेम के इस सुनसान में
तुम चले जाओगे
पर मेरे पास
रह जाएगी
प्रार्थना की तरह पवित्र
और अदम्य
तुम्हारी उपस्थिति
छंद की तरह गूँजता
तुम्हारे पास होने का अहसास
तुम चले जाओगे
और थोड़ा-सा यहीं रह जाओगे
(प्रभात खबर से साभार)
पाकिस्तान एक बार
फिर राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। बिसात बिछ चुकी है। शतरंज के खेल के विपरीत
इसमें दो नहीं बल्कि तीन खिलाड़ी हैं। एक खेमा है पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल
अशफाक कयानी और आईएसआई चीफ ले. जनरल शुजा पाशा का। इनकी पूरी तैयारी एक ही चाल में
शह-मात की है। पाकिस्तान का तो पूरा इतिहास ही रहा है कि जनरलों ने जब चाहा, पलक
झपकते सत्ता हथिया ली। सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा उनकी मदद की। इस समय भी पाकिस्तान
के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी सेना के खेमे में ही दिखाई दे रहे हैं। लेकिन
कोई आयाम ऐसा है जो इनको रोक रहा है। दूसरा खेमा है राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी और
यूसुफ रजा गिलानी का। यह खेमा इस जुगत में है किसी तरह सेना से सुलह-सुलफा हो जाए।
ये खेमा भी बहुत डरा हुआ या मजबूर नजर नहीं आ रहा है। यह बात दीगर है कि सुप्रीम
कोर्ट इनकी सरकार को दबाव में लिए हुए है। तीसरा खेमा है विपक्षी दलों का। जिसमें
नवाज शरीफ और इमरान खान हैं। ये उत्साहित हैं। ये पूरा माहौल बना रहे हैं कि सरकार
ने लोगों का विश्वास खो दिया है और चुनाव की जरूरत है। लगातार रैलियों के जरिए
दबाव बढ़ा रहे हैं कि मध्यावधि चुनाव हो जाएं। जनरल परवेज मुशर्ऱफ भी इस बिसात पर नजर लगाए
हैं। लेकिन यह ताज्जुब की बात है कि जिस पाकिस्तान में सेना ने जब चाहा और जैसे
चाहा, सत्ता हथिया ली, उसी पाकिस्तान में ऐसा कौन सा आयाम पिछले चार साल में जुड़
गया कि जनरल कयानी उतनी आसानी से तख्तापलट का फैसला नहीं ले पा रहे हैं जितनी
आसानी से उनके पूर्ववर्ती जनरलों ने ऐसा कर लिया था। इसलामी उग्रवाद, अमेरिका,
चीन, भारत और कश्मीर जैसे एंगल आज की तरह पहले भी थे। पाकिस्तानी अवाम के बारे में
पहले भी कहा जाता रहा है और आज भी कहा जा रहा है कि उसे हर किसी ने छला है। पहले
उसे मुंह बंद रखना पड़ता था। लेकिन अब सोशल नेटवर्किंग साइट्स का ऐसा हथियार मिला
हुआ जिस पर पूरी तरह तब तक अंकुश नहीं लग सकता जबतक कि पूरा मुल्क उसके लिए तैयार
न हो। पाकिस्तान में लगभग दो करोड़ इंटरनेट यूजर्स हैं और इसमें से 60 लाख फेसबुक
का इस्तेमाल करते हैं। सोशल बेकर्स डाट काम नाम की साइट के मुताबिक, इस क्राइसिस
के दौरान फेसबुक पर कमेंट करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। इसमें से 76
फीसदी लोग 18-34 वर्ष के आयुवर्ग के हैं। पिछले साल कराची में हुए इंटरनेशनल सोशल
मीडिया समिट के मुताबिक, पाकिस्तान में करीब 62 लाख लोग ट्विटर का इस्तेमाल करते
हैं और इसमें से करीब 30 लाख सोशल जर्नलिस्ट के तौर पर सक्रिय हैं। पिछले छह माह
में पाकिस्तान में फेसबुक यूजर्स की संख्या 12 लाख और ट्विटर यूजर्स की संख्या
करीब 20 लाख बढ़ी है। 2008 के मुकाबले तो यह वृद्धि पांच गुने से ज्यादा है। पिछले
एक साल में पाकिस्तान के लोग इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर राजनीतिक रूप से ज्यादा
मुखर हुए हैं। इन लोगों के जरिए पाकिस्तान में इतिहास को लेकर सवाल किये जा रहे
हैं, आजादी की लड़ाई के प्रस्तुतीकरण को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं, बाग्लादेश
के अलग होने को लेकर पहली बार भारत और रा की जगह वहां के हुक्मरानों को जिम्मेदार
ठहराने का सिलसिला शुरू हुआ। इन सबका असर वहां के मीडिया पर भी पड़ता दिखाई दे रहा
है। कट्टर भारत विरोधी नवा-ए-वक्त जैसे अखबार समूह के अंग्रेजी दैनिक में छप रहे
कालमों में
इस तरह के सवालों का उठना किस ओर इशारा करता है?
ऐसा नहीं हो सकता कि जनरल कयानी और पाशा पाकिस्तानी मिडिल क्लास के इस इंपावरमेंट
को समझते न हों। इमरान खान की पार्टी के फेसबुक पेज पर 2.37 लाख लोग लाइक करते
हैं. करीब 93 हजार लोग उस पेज पर चर्चाओं में हिस्सा लेते हैं और ट्विटर पर 20
हजार से ज्यादा लोग इमरान की पार्टी को फालो करते हैं। यही नहीं, पिछले कुछ दिनों
में करीब सात लाख लोगों ने एसएमएस के जरिए इमरान की पार्टी की सदस्यता के लिए
आवेदन किया। इस सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि बंटवारे के बाद पहली बार
पाकिस्तान के लोगों का दबाव सत्ता वर्ग पर दिखाई दे रहा है और शायद एक वजह यह भी
है कि तुरत-फुरत रेडियो-टीवी पर कब्जा करके और प्रधानमंत्री को गिरफ्तार कर
तख्तापलट की गुंजाइश इस बार कम दिखाई दे रही है। पहले खेमे की हिचकिचाहट,
जरदारी-गिलानी के भयाक्रांत न दिखने और नवाज शरीफ व इमरान खान के उत्साह में कहीं
न कहीं कुछ भूमिका इस इंपावरमेंट की भी हो सकती है।
और अंत में...
अशोक वाजपेयी आधुनिक हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हालांकि हिंदी साहित्य में खेमेबंदी के चलते उनको उतना सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार हैं। इस बार अंत में उनकी ही एक कविता -
तुम चले जाओगे
पर थोड़ा-सा यहाँ भी रह जाओगे
जैसे रह जाती है
पहली बारिश के बाद
हवा में धरती की सोंधी-सी गंध
भोर के उजास में
थोड़ा-सा चंद्रमा
खंडहर हो रहे मंदिर में
अनसुनी प्राचीन नूपुरों की झंकार
तुम चले जाओगे
पर थोड़ी-सी हँसी
आँखों की थोड़ी-सी चमक
हाथ की बनी थोड़ी-सी कॉफी
यहीं रह जाएँगे
प्रेम के इस सुनसान में
तुम चले जाओगे
पर मेरे पास
रह जाएगी
प्रार्थना की तरह पवित्र
और अदम्य
तुम्हारी उपस्थिति
छंद की तरह गूँजता
तुम्हारे पास होने का अहसास
तुम चले जाओगे
और थोड़ा-सा यहीं रह जाओगे
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