शनिवार, 25 सितंबर 2010

तुम चलोगे तो ये सब खुश हो जाएंगे

आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं
वह गांव जो मेरे अंदर धड़कता रहता है
वह गांव जो हर जगह मेरे साथ रहता है

गांव के पश्चिम परभू वाला खेत
गांव के दक्षिण हमारा बड़हर वाला खेत
गांव के पूरब बरमबाबा
गांव के उत्तर हमारा गांवतरे वाला खेत
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

देशराज जिसके साथ मैं बारह से सोलह साल का हुआ
रेखिया जो हमारे घर के सामने रहती थी
पुष्पा ब्याह कर कहीं और चली गई
रम्मी मियां, जीवनलाल, मिसरा
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

सुकई धोबी की दुलहिन और बहुतों की भौजाई
घसीटे उपपरधान और कढ़िले
सुंदर आरट बनाने वाले रोशन दादा
और बालकराम
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

जंगल के किनारे बहती सुहेली
सैकड़ों साल पुराना किला
और किले पर होली के बाद लगने वाला मेला
कालीदेवी और वहां भौंरिया लगाना
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

मीठी जमुनी का बिरवा
हमारे घर में लगे शहतूत
नीम के नीचे की मठिया
और मठिया के लिए लड़ने वाली मझिलो दाई
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

तुम चलोगे तो ये सब खुश हो जाएंगे
आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

13 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन सर। कहीं ये शब्दचित्रण लखीमपुर का तो नहीं है।

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  2. tiwari ji, apki ye bhawuk kavita padhkar sach me apke gao jane ka man karne laga. aap gao ki kis shiddat se yaad karte ho. ye is me saaf jahir hota hai. har baat ko gahraye se dekha or mehsus kiya hai apne. jo koi bhawuk insan hi kar sakta hai.

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  3. क्या बात है सर। मजा़ आ गया। कविता पढ़कर ऐसा लग रहा है जैसे मैं अपने गांव जाकर लौट आया। अदभुत। अकसर व्यस्तता के बीच जब समय निकालकर पीछे देखते हैं तो लगता है जो आज हमारे पास है उससे कहीं ज़्यादा हम पीछे छोड़ आए हैं और पल प्रतिपल वह हमें बुला रहा है....

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  4. बहुत खूबसूरत ढंग से आपने अपनी धुंधलाती यादों में ताजगी के नए रंग भर दिए हैं.
    रचना का भाव इतना स्वाभाविक है कि पाठक कुछ ही पलों में अपने को उस गाँव में पाता है.
    और देशराज,रेखिया,पुष्पा,रम्मी मियाँ,सुकई धोबी आदि से अपने तार जोड़ने लगता है.
    जामुन,शेहतूत और नीम के पेड़ो का उल्लेख शारीर में एक बालसुलभ चंचलता को हवा दे जाता है.
    'किला' जहाँ होली/त्योहारों पर सामुदायिक सौहार्द्र का प्रतीक बना है तो मझिलो दाई से लड़ाई के आधार में भी प्रेम ही छुपा है.
    यादों के साथ कल्पना के उत्तम संयोजन ने पंक्तियों को अत्यंत प्रासंगिक कर दिया है.
    कुल मिलकर उत्तम लेखन!
    मैं दो लाइन लिखना चाहूँगा,आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे ...
    "कोई मजबूरी ही होगी,जो हम इतने मजबूर हुए.
    शहरों के सैलाब में डूबे,पगडण्डी से दूर हुए.
    याद हमें आते हैं वो दिन,जो पगडण्डी पर छूटे है.
    बहर से जुड़ने में हम सब भीतर कितना टूटे हैं........"

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  5. अहा! बेहद खुबसूरत सर। हर शब्द मानों चित्रित हो रहा हो।

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  6. मेरा जनम गाँव में तो नहीं हुआ पर इस कविता को पढ़कर लगा में भी गाँव की और चलूँ

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  7. मीठी जमुनी का बिरवा
    हमारे घर में लगे शहतूत
    नीम के नीचे की मठिया
    और मठिया के लिए लड़ने वाली मझिलो दाई
    आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

    बहुत ही सुंदर पंक्तिया...भावपूर्ण और गांव का सजीव चित्रण करती कविता
    लेकिन गांव को वो स्वच्छंद प्राकृतिक वातावरण शहरी बच्चों के नसीब में कहां....?

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  8. Bilkul gavn jaisi sundar kavita hai sir
    shahar to office hai lekin gavn to apna ghar sir
    to aao chale apke ghar likhimpur sir
    kyonki humse jyada aap khush ho jayenge sir

    Rajesh jarwal, dainik bhaskar, sub editor indore

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  9. ‌‌‌क​विता लाजवाब है। बधाई स्वीकार करें।
    सर, आपके ब्लॉग को पढ़ने के ​लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। डार्क बैकग्राउंड है और शब्द भी डार्क ही हैं। रंगों का समायोजन सुधारा जा सकता है, पढ़ने शब्द साफ और आसानी से पढ़े जा सकें।
    धन्यवाद

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  10. क​विता लाजवाब है। बधाई स्वीकार करें।

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  11. मीठी जमुनी का बिरवा
    हमारे घर में लगे शहतूत
    नीम के नीचे की मठिया
    और मठिया के लिए लड़ने वाली मझिलो दाई
    आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं

    तुम चलोगे तो ये सब खुश हो जाएंगे
    आओ तुम्हे अपने गांव ले चलूं
    Adaraneey Rajendra ji,
    bahut hee behatareen dhang se apne ganv ko apnee is rachna men prastut kiya hai.Khubsurat aur bhavpoorna.
    hardik shubhkamnayen.
    Poonam

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  12. इस सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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