रविवार, 9 अक्तूबर 2011

सौ में निन्यानबे अमेरिकी फिलहाल जब नाशाद हैं....


यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार


दुनिया के विकसित देशों में इस समय उथल-पुथल का दौर है और यह उथल-पुथल पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों के सतह पर आने से शुरू हुई है। जिन तथाकथित खुली आर्थिक नीतियों की रामबाण घुट्टी 20-22 साल पहले भारत जैसे विकासशील देशों को आर्थिक संकट से निकालने के नाम पर दी गई थी, आज उसी घुट्टी के खिलाफ विकसित देशों में जनउभार आकार लेता नजर आ रहा है। पूंजी के ग्लोबलाइजेशन के नाम पर कारपोरेट लूट और इसमें सरकार की मिलीभगत का आरोप अमेरिका-यूरोप में भी लगने लगा है। 2008 से मंदी से निपटने के नाम पर सरकारें जो पैकेज दे रही हैं, उनसे इन देशों के आम आदमी को कोई फायदा नहीं हो रहा है।
ब्रिटेन के अखबार गार्डियन की कालमनिस्ट नाओमी क्लेन ने शुक्रवार को लिखा कि एक फीसदी लोग हैं जो मौजूदा संकट से खुश हैं...जब आमजन हताश और डरा हुआ हो, वही सबसे मुफीद वक्त है कारपोरेट को फायदा पहुंचाने वाली नीतियों को लागू करने का। शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी को मुनाफे के खेल में बदलने के लिए निजीकरण, सार्वजनिक सेवाओं में कटौती और कारपोरेट्स को खुले हाथ से मदद....आर्थिक मंदी के दौर में आज यही सब हो रहा है। (पिछली सदी में सोवियत क्रांति के बाद स्थापित समाजवादी व्यवस्था के दबाव में सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक क्षेत्रों को अमेरिकी खेमे को सरकारी जिम्मेदारी में लेना पड़ा था। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद यह दबाव खत्म हो गया)  क्लेन लिखती हैं कि सरकारों के इस खेल पर सिर्फ एक ही ताकत विराम लगा सकती है और सौभाग्य से यह ताकत बहुत बड़ी है। मतलब बाकी 99 फीसदी लोगों की ताकत। और ये 99 फीसदी लोग सड़क पर उतरने लगे हैं। अमेरिका शहर मैडिसन से स्पेन की राजधानी मैड्रिड तक ये लोग कह रहे हैं कि एक फीसदी लोगों को संकट से उबारने (फायदा पहुंचाने) के लिए हम सरकारों को अपनी जेब पर डाका नहीं डालने देंगे..नो, वी विल नाट पे फार योर क्राइसिस। दरअसल, यदि अमेरिका को देखें तो 2008 की मंदी के बाद से जहां सबसे ज्यादा आय वाले एक फीसदी लोगों की आय में करीब 46 फीसदी का इजाफा हुआ है, वहीं बाकी 99 फीसदी की आय कम हुई है। बर्कले विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री एमैनुएल साएज (elsa.berkeley.edu/~saez/saez-UStopincome-2007.pdf) के मुताबिक 1993 से 2008 के बीच जहा एक फीसदी अमेरिकियों (टाप इनकम ग्रुप) की आय 79 फीसदी बढ़ी वहीं बाकी 99 फीसदी अमेरिकियों की आय सिर्फ 12 फीसदी। इसका मतलब यह हुआ कि इन 15 सालों के दौरान अमेरिकी अर्थव्यवस्था के कुल विकास का 65 फीसदी इस एक फीसदी की झोली में गया और 99 फीसदी को 35 फीसदी ही मिला। ये एक फीसदी कौन लोग हैं...जाहिर है कि कारपोरेट। अमेरिका में यह धारणा आम लोगों के मन में घर कर चुकी है कि राजनीतिक लोगों और कारपोरेट्स के बीच गठजोड़ में आम अमेरिकी के हितों को अनदेखा किया जा रहा है। लोगों को लग रहा है कि उनके प्रतिनिधि और राजनीतिक दल कारपोरेट्स के हाथों बिक चुके हैं। इसी की परिणिति हुई अकुपाई वालस्ट्रीट आंदोलन के रूप में। यह आंदोलन 17 सितंबर से काहिरा के तहरीर चौक और भारत के अन्नाग्रह की तर्ज पर शुरू हुआ। इसके पीछे कोई संगठन नहीं है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए यह आंदोलन पूरे अमेरिका में फैल चुका है। लोग अपने-अपने शहर में अपनी-अपनी तरह से इसे समर्थन दे रहे हैं। न्यूयार्क, शिकागो, मैडिसन, वाशिंगटन, बोस्टन, टाम्पा, अलबर्क, डेनवर, लासएंजेल्स, सैनफ्रांसिस्को आदि शहरों में लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं। कई जगह झड़पें भी हुई हैं और सैकड़ों लोग गिरफ्तार किए गए। न्यूयार्क में तो सैकड़ों प्रदर्शनकारी स्लीपिंग बैग लेकर जमे हुए हैं। यूरोप में पहले से ही अर्थनीतियों के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे हैं। यूरोपीय देशों की अर्थनीतियों की वजह से यहां लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं। मजबूत मानी जाने वाली आयरिश अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी में जबरदस्त इजाफा हुआ। इन सबके चलते डबलिन, एथेंस, मैड्रिड, पेरिस, लंदन, रेक्वाजिक आदि शहरों में हड़ताल व प्रदर्शनों का दौर चल रहा है। ब्रसेल्स में तो एक लाख लोगों ने सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया। लोगों का कहना है कि उनकी सरकारें उन्हीं लोगों (कारपोरेट्स व बैंक) के लिए वित्तीय पैकेज दे रही हैं जिनकी वजह से आर्थिक संकट आया है। यह सिलसिला रुकना चाहिए। द यूनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका में जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों के प्रति बने अविश्वास और आर्थिक मंदी से भय के माहौल पर टाम एंजेलहार्ट की एक किताब भी आने वाली है – द यूनाइटेड स्टेट्स आफ फीयर। इस किताब की बड़ी संख्या में अग्रिम बुकिंग हो चुकी है।


और अंत में...

पिछले दिनों भारत भूषण अग्रवाल की कविताओं की किताब ओ अप्रस्तुत मन हाथ लगी। 1958 में छपी इस किताब की भूमिका में कवि ने खुद लिखा था...यदि इन्हें पढ़कर आपको निराशा हो तो आप मध्यवर्गीय मन को आशान्वित करने की ओर प्रवृत्त हों, यदि उसके अधूरे, अपर्याप्त जीवन पर आपके मन में सहानुभूति उत्पन्न हो, तो आप उसके विकास के पथ को प्रशस्त करने की ओर प्रवृत्त हों, और यदि उसके क्षुद्र, ओछे जीवन से आपके मन में वितृष्णा का उदय हो, तो आप व्यक्ति की सही प्रतिष्ठा की ओर प्रवृत्त हों, यही निवेदन है। इस कविता संग्रह से दो कविताएं...

1.      समाधि लेख

रस तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया
जी में बसंत था, एक फूल ही दिया
मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है :
कैसे बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया !

2.      गीत नहीं मिले

मिट्टी का परस कभी जाना नहीं
मिट्टी का सम्मोहन?
माना नहीं .
अपने हाथों उगाया कभी एक दाना नहीं
इसीलिए-
आया तुझे गाना नहीं !

1 टिप्पणी:

  1. जो परिस्थितियाँ अमेरिकी जन-असंतोष की आपने बताई हैं वैसी ही हमारे देश मे भी हैं लेकिन बड़ी चालाकी से अमेरिकी और भारतीय कारपोरेट जगत ने हमारे यहाँ अन्ना के माध्यम से जनता को बेवकूफ बना कर कारपोरेट की स्थिति सुदृढ़ कर दी है।

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