यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
(प्रभात खबर से साभार)
रविवार, 5 फरवरी 2012 को प्रकाशित
(प्रभात खबर से साभार)
रविवार, 5 फरवरी 2012 को प्रकाशित
नोबल से सम्मानित कवि वीस्वावा शिम्बोर्स्का का बुधवार को देहांत हो गया। कविता
की मोजार्ट मानी जाने वाली वीस्वावा शिम्बोर्स्का का नाम मैंने पहली 1996 में सुना
था, जब उन्हें साहित्य के नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। तब अपने देश में
इंटरनेट इतना प्रचलित नहीं था कि कीबोर्ड से उनकी कविताएं तलाशी जा सकें और वे
इतनी प्रसिद्ध नहीं थीं कि किताबों की बाजार में सहजता से उपलब्ध हों। उस समय मैं
दिल्ली में रहता था। उनकी कविताएं तलाशने हम मंडी हाउस गए, दरियागंज के संडे बुक
मार्केट का चक्कर लगाया लेकिन विफलता ही हाथ लगी। बाद में तो उनकी कविताओं के
हिंदी अनुवाद आने लगे। 2004 में न्यूयार्कर में उनकी एक कविता ‘एबीसी’ छपी थी। यह पत्रिका
मैंने दरियागंज के संडे बुक मार्केट से ली थी 2005 की किसी तारीख को। इसी में पढ़ी
थी यह कविता। तबसे यह कविता मेरी नोटबुक में लिखी हुई है। उसी समय जीमेल पर मेरा
खाता शुरू हुआ था और मैंने इसे जीमेल के मेलबाक्स में डाल दिया था। तब से अब तक
इसे मैं कई बार पढ़ चुका हूं। अमेरिकी मैगजीन स्लेट में मशहूर अमेरिकी फिल्म आलोचक
डाना स्टीवेंस का शिम्बोर्स्का पर औबिचुअरी पीस है जिसकी शुरुआत ही इस कविता से की
गई और उन्होंने लिखा कि तब से इस कविता को अपनी डेस्क पर लगा रखा है। मैने तभी
इसका हिंदी अनुवाद किया था। मैं कोई अनुवादक तो हूं नहीं, इसलिए नहीं कह सकता कि
अनुवाद मूल कविता के करीब तक ले जा पाएगा या नहीं लेकिन फिर भी पढ़िये सबसे पहले
यही कविता –
मुझे कभी पता नहीं चल सकेगा
ए ने मेरे बारे में क्या सोचा
क्या बी ने अंत में मुझे कभी माफ किया होगा
क्यों सी यह दिखाने की कोशिश करता रहा
कि उसकी जिंदगी में सबकुछ ठीक है
डी की क्या भूमिका है ई की चुप्पी में
एफ क्या उम्मीद लगाए हुए था, क्या कोई उम्मीद थी भी
जी को सबकुछ सही-सही याद था, फिर वह भूल क्यों गई
एच कुछ छिपाने की कोशिश में था लेकिन क्या
आई उसमें क्या जोड़ने देना चाहता थी
क्या वहां मेरे होने का कोई अर्थ था जे, के और बाकी के अक्षरों के लिए।
विस्वावा शिम्बोर्स्का 2 जुलाई 1923 को पश्चिमी पोलैंड में पैदा हुई थीं।
उन्होंने क्राकोव में ही साहित्य और समाजशास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त की। एडम
वोदेक से उनका विवाह हुआ और जल्द ही तलाक हो गया लेकिन 1986 में अपनी मृत्यु तक
वोदेक शिम्बोर्स्का के अच्छे मित्र बने रहे। उनके लेखक सहचर कोरनेल फिलिपोविच का
भी 1990 में देहांत हो गया, उसके बाद से वे अकेली थीं। वे निजत्व में जीती थीं और
उनकी कविताएं उनके निज की ही अभिव्यक्ति हैं। हालांकि 1952 में जब उनका पहला
संग्रह ‘दैट्स व्हाट वी लिव फार’ प्रकाशित हुआ, उन्हें स्तालिनवादी करार दिया जाने लगा और दो
साल बाद ‘क्वेश्चंस पुट टू माईसेल्फ’ शीर्षक से आए उनके दूसरे संग्रह ने तो प्रतिबद्ध
कवि का ठप्पा ही उन पर लगा दिया। लेकिन 1957 में उन्होंने कम्युनिज्म के साथ-साथ
पहले की अपनी सभी कविताओं को नकार दिया। उन्होंने कहा था कि जब मैं बच्ची थी, मैं
कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थी। मैं कम्युनिज्म के जरिये दुनिया को बचाने का
सपना देखती थी लेकिन जल्द ही मेरी मान्यता बदल गई कि इससे काम नहीं होने वाला। मैं
अपनी रचनात्मक जिंदगी की शुरुआत से ही मानवता को मानती रही हूं। मानव जाति के भले
के लिए कुछ करना चाहती थी लेकिन फिर मेरी समझ में आया कि मानवजाति को बचा पाना
संभव नहीं है। बाद में वह पोलैंड के कम्युनिस्ट शासन के विरोध में सोलिडैरिटी
मूवमेंट में सक्रिय रहीं। 1981 में मार्शल ला लगने पर उन्होंने दूसरे नाम से
कविताएं लिखीं। वह हमेशा यह कहती रहीं कि उनकी कविता वैयक्तिक है राजनीतिक नहीं
लेकिन यह एक सच्चाई है कि जिंदगी बार-बार राजनीति से गुजरती है। नोबल सम्मान लेने
के बाद उन्होंने फिर कहा कि मेरी कविताएं लोगों और जिंदगी के बारे में हैं।
1945 में उन्होंने पहली कविता लिखी थी और 2008 में उनका आखिरी संग्रह आया।
लेकिन इस दौरान कुल मिलाकर 400 से भी कम कविताएं ही छपीं और इसमें से लगभग 200 ही
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। लेकिन उनको कविता का मोजार्ट माना जाता है। जब
उनसे पूछा गया कि वे इतना कम क्यों लिखती हैं तो उनका जवाब था कि मेरे कमरे में एक
रद्दी की टोकरी भी है और शाम को लिखी गई कविताएं जब मैं सुबह पढ़ती हूं तो उनमें
अधिकतर उसी टोकरी में पहुंच जाती हैं। रद्दी की टोकरी में जाने से बच गईं कुछ
कविताएं यहां प्रस्तुत हैं-
बायोडाटा लिखना
क्या किया जाना है?
आवेदनपत्र भरो
और नत्थी करो बायोडाटा
जीवन कितना भी बड़ा हो
बायोडाटा छोटे ही अच्छे माने जाते हैं।
स्पष्ट, बढ़िया और चुनिंदा तथ्यों को लिखने का रिवाज है
लैंडस्केपों की जगह ले लेते हैं पते
लड़खड़ाती स्मृति को रास्ता बनाना होता है ठोस तारीखों के लिए।
अपने सारे प्रेमों में सिर्फ विवाह का जिक्र करो
और अपने बच्चों में से सिर्फ उनका जो पैदा हुए
तुम्हे कौन जानता है
यह अधिक महत्वपूर्ण है बजाए इसके कि तुम किसे जानते हो।
यात्राएं बस वो जो विदेशों में की गई हों
सदस्यताएं कौन सी, मगर किस लिए – यह नहीं
प्राप्त सम्मानों की सूची, पर ये नहीं कि वे कैसे अर्जित किये गए।
लिखो, इस तरह जैसे तुमने अपने आप से कभी बातें नहीं कीं
और अपने आप को खुद से रखा हाथ भर दूर।
अपने कुत्तों, बिल्लियों, चिड़ियों,
धूल भरी निशानियों, दोस्तों और सपनों को अनदेखा करो।
कीमत, वह फालतू है
और शीर्षक भी
अब देखा जाए भीतर है क्या
उसके जूते का साइज
यह नहीं कि वह किस तरफ जा रहा है-
वह जिसे तुम मैं कह देते हो
और साथ में एक तस्वीर जिसमें दिख रहा हो कान
-उसका आकार महत्वपूर्ण है, वह नहीं जो उसे सुनाई देता है
और सुनने को है भी क्या ?
-फकत
कागज चिंदी करने वाली मशीनों की खटर-पटर।
(अनुवाद – अशोक पांडेय)
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नींद की गोली हूं
घर में असरदार,
दफ्तर में उपयोगी।
मैं इम्तहान दे सकती हूं
और गवाही भी।
मैं टूटे प्याले जोड़ सकती हूं।
आपको सिर्फ मुझे ले लेना है,
पिघलने देना है अपनी जीभ के नीचे
और फिर निगल जाना है
एक गिलास पानी के साथ।
..........
आप अभी नौजवान हैं
वक्त है कि सीख लें अपने आपको ढीला ठोड़ देना
कोई जरूरी नहीं कि मुट्ठियां हमेशा भिंची और चेहरा तना रहे।
अपने खालीपन को मुझे दे दो
मैं उसे नींद से भर दूंगी
एक दिन आप शुक्रगुजार होंगे कि
मैंने आपको चार पैरों पर चलना सिखाया।
बेच दो मुझे अपनी आत्माएं भी
उसका खरीदार कहां है
कि अब उसे भरमाने के लिए कोई और शैतान नहीं रहा।
(अनुवाद – प्रतिभा कटियार के ब्लाग से)
तीन मुश्किल शब्द
जब मैं बोलती हूं एक शब्द – भविष्य
तो पहले अक्षर जुड़ते हैं बीते हुए समय से
जब मैं बोलती हूं खामोशी
मैं इसे नष्ट करती हूं
जब मैं कहती हूं कुछ नहीं
मैं कुछ ऐसा बनाती हूं
जिसे कोई अपने हाथों में नहीं रख सकता।
(अनुवाद-विशाल श्रीवास्तव)
हम बेहद भाग्यशाली हैं
हम बेहद भाग्यशाली हैं
कि हम ठीक-ठीक नहीं जानते
हम किस तरह के संसार में रह रहे हैं
आपको यह जानने के लिए
बहुत, बहुत लंबे समय तक जीना होगा
निसंदेह इस संसार के
जीवन से भी ज्यादा लंबे समय तक
चाहें तुलना करने के लिए ही सही
हमें दूसरे संसारों को जानना होगा
हमें देह से ऊपर उठना होगा
जो बस
बाधा पैदा करना
और तकलीफें खड़ी करना जानती है
शोध के वास्ते
पूरी तस्वीर के वास्ते
और सुनिश्चित निष्कर्षों के वास्ते
हमें समय से परे जाना होगा
जिसके भीतर हर चीज हड़बड़ी में भागती और चक्कर काटती है
उस आयाम से
शायद हमें त्याग देना होगा
घटनाओं और विवरणों को
सप्ताहों के दिनों की गिनती
तब अपरिहार्य रूप से अर्थहीन लगने लगेगी
पोस्टबाक्स में चिट्ठी डालना लगेगा
मूर्खतापूर्ण जवानी की सनक
“घास पर न चलें” का बोर्ड लगेगा
पागलपन का लक्षण
(अनुवाद-अशोक पांडेय)
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