यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
(प्रभात खबर से साभार)
रविवार, 19 फरवरी 2012 को प्रकाशित
(प्रभात खबर से साभार)
रविवार, 19 फरवरी 2012 को प्रकाशित
पिछले दिनों केंद्रीय
ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने रांची में एक अति महत्वपूर्ण बात कही कि
झारखंड में मुख्य धारा की राजनीति कहां खत्म होती है और नक्सलवाद कहां से शुरू
होता है, यह स्पष्ट नहीं है। उनका कहना था कि इसलिए यहां नक्सलवाद पर काबू का
फार्मूला बनाना बहुत ही कठिन है। दूसरी बात उन्होंने कही कि ग्रासरूट स्तर पर
राजनीतिक गतिविधियां चलाने की जरूरत है। उनकी पहली बात के आधे हिस्से से और दूसरी
बात से अधिकतर लोग सहमत होंगे लेकिन इस बात से सहमत होना थोड़ा मुश्किल है कि
चूंकि यहां नक्सलवाद और मुख्यधारा की राजनीति एक-दूसरे से मिले हुए हैं, इसलिए
नक्सलवाद पर काबू करने का कोई तरीका निकाल पाना मुश्किल है। मुझे लगता है कि यह
स्थिति रास्ता निकालने के लिए बहुत आसानी पेश करती है। जम्मू-कश्मीर इसका उदाहरण
है। जम्मू-कश्मीर में आज जो बेहतर हालात हैं, उनका बीज तब ही पड़ गया था जब सारे
खतरे मोल लेते हुए वहां के एक छोटे से राजनीतिक दल ने गांव-गांव जाकर राजनीतिक
गतिविधियां शुरू कीं। जम्मू-कश्मीर में वर्ष 2000 का समय अलगाववाद आंदोलन का
चरमोत्कर्ष था। उस समय वहां मुख्यरूप से फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस,
भाजपा और कांग्रेस ही मुख्य दल थे। मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रैटिक
पार्टी (पीडीपी) को मुख्यधारा के राजनीतिकों और मीडिया ने अलगाववादियों से जुड़ी
मान रखा था। क्योंकि सिर्फ यही पार्टी ऐसी थी जो आतंकवादियों के गढ़ों में जाकर
सभाएं करती थी, राजनीतिक कार्यक्रम करती थी और आतंकवाद की आंच में झुलस और जल रहे
लोगों की बात करती थी। जम्मू-कश्मीर में वहां की पार्टियों की राजनीति कहां खत्म
होती थी और कहां से अलगाववादी राजनीति शुरू हो जाती थी, यह समझ पाना बहुत मुश्किल
था। पीडीपी को तो पूरे देश में आतंकवादियों को समर्थन देने वाली पार्टी करार दे
दिया गया था क्योंकि मुफ्ती और उनकी बेटी महबूबा कहती थीं कि जिस घर से आतंकवादी
आते हैं, उस घर की जिम्मेदारी भी तो राज्य की है। यदि कोई आतंकी मारा गया तो उसके
घरवालों को मुआवजा दिया जाना चाहिए, बिलकुल उसी तरह जिस तरह पुलिसवाले के मारे
जाने पर उसके घर वालों को मिलता है। 2002 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में
अनंतनाग के उन गांवों में पीडीपी ने चुनावी सभाएं की जिन गांवों में नेशनल
कांफ्रेंस के कार्यकर्ता व नेता जाने की कल्पना भी नहीं कर पाते थे। भाजपा व
कांग्रेस का भी यही आलम था। तब ये पार्टियां और मीडिया यह प्रचारित करने में लग गई
कि पीडीपी को आतंकी संगठनों का समर्थन है और इसीलिए महबूबा दूर-दराज के इलाकों में
भी सभाएं कर पा रही है। खैर, एक तरफ यह प्रचार चलता रहा तो दूसरी तरफ ग्रासरूट स्तर
पर पीडीपी की गतिविधियां। नतीजा सबके सामने है। 2002 के चुनाव में जम्मू-कश्मीर के
लोगों का लोकतंत्र में विश्वास में विश्वास बढ़ा। वे लोग चुनाव हार गए जो सामने
कुछ कहते थे और पीछे से कुछ करते थे। अलगाववादी धारा कमजोर हुई। आतंकी घटनाएं कम
हुईं। एक किस्सा मैं यहां सुनाना चाहूंगा – मैं जम्मू से श्रीनगर जा रहा था। रास्ते में
अनंतनाग के पास सड़क जाम थी। सैंकड़ों की संख्या में लोग पानी की मांग को लेकर
प्रदर्शन कर रहे थे और मुफ्ती के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे। मुफ्ती की सरकार बने
मुश्किल से छह माह ही बीते थे। श्रीनगर में जब मुफ्ती से मुलाकात हुई तो मैने उनसे
पूछा कि उनके खिलाफ तो प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। आप कुछ कर भी नहीं रहें, इनसे
कैसे निबटेंगे? इस पर मुफ्ती ने कहा कि ये प्रदर्शन हमारी कामयाबी
की कहानी कहते हैं। कम से कम लोगों का सरकार में भरोसा तो लौट रहा है। ये प्रदर्शन
तो तभी हो रहे हैं जब उनको लग रहा है कि सरकार उनकी है और तमाम सुविधाएं मुहैया
कराना सरकार की जिम्मेदारी है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भरोसा लौटने का सुबूत
है। मैं तो चाहता हूं कि कश्मीर के लोग इस तरह के मुद्दों पर सड़क पर उतरें। जितने
ज्यादा प्रदर्शन होंगे, अलगाववादियों का स्पेस कम होता जाएगा।
क्या झारखंड में कोई
राजनीतिक दल या नेता ईमानदारी से इस तरह का जोखिम लेने को तैयार है? यदि है तो
नक्सलवादियों का स्पेस बहुत आसानी से सीमित किया जा सकता है। मुख्य धारा की
राजनीति और नक्सलवाद में घालमेल के बीच यह काम शायद कठिन नहीं है।
और अंत में...
पाकिस्तानी शायर अहमद
फराज की ये लाइनें तो हर-एक ने न सिर्फ सुनी बल्कि कभी न कभी गुनगुनाई भी होंगी – रंजिश ही सही दिल भी
दुखाने के लिए आ/ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ / पहले से मरासिम न सही
फिर भी कभी तो /रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया ही निभाने के लिए आ...। उनकी
शायरी हमारी संवेदनाओं को जिस संजीदगी से मायने देती नजर आती है, वैसा बहुत कम
देखने को मिलता है। आप सोच रहे होंगे कि मैं फराज का जिक्र क्यों कर रहा हूं, कहीं
उनका जन्मदिन या बरसी तो नहीं। तो आपको बताना चाहूंगा कि फराज जन्मदिन या बरसी पर
ही याद की जाने वाली शख्सीयत नहीं थे, वे तो हर मौसम और इमोशन को शब्द दे सकने
वालों में से थे। पढ़िये उनकी ये लाइनें-
तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बेरहम
हैं दोस्तो
अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो
किसिको हमारे हाल से निस्बत है क्या करें
आँखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तो
अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तो
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो
इस शहर-ए-आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
अब दिल की रौनक़ें भी कोई दम हैं दोस्तो
सब कुछ सही 'फ़राज़' पर इतना ज़रूर है
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तो
अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो
किसिको हमारे हाल से निस्बत है क्या करें
आँखें तो दुश्मनों की भी पुरनम हैं दोस्तो
अपने सिवा हमारे न होने का ग़म किसे
अपनी तलाश में तो हम ही हम हैं दोस्तो
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो
इस शहर-ए-आरज़ू से भी बाहर निकल चलो
अब दिल की रौनक़ें भी कोई दम हैं दोस्तो
सब कुछ सही 'फ़राज़' पर इतना ज़रूर है
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं दोस्तो
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