रविवार, 25 मार्च 2012

तीन प्रेम कहानियां और मरलिन मुनरो की कविताएं!


 यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी 
(प्रभात खबर 25 मार्च, 2012 से साभार) 

मुझे लगता है कि आप पिछले हफ्ते की राजनीतिक उठापटक, रेल बजट, आम बजट आदि से बोर हो चुके होंगे। लिहाजा मुझे लगता है कि मैं इस बार कुछ ऐसा लिखूं कि इस बोरियत से आप उबर सकें। लेकिन न्यूजरूम में मैं भी तो इसी सब में व्यस्त था, इसलिए दिमाग में नया कुछ आ नहीं रहा। हां, एक आइडिया आया है। मैंने पहले एक ब्लांग पर कुछ बहुत अच्छी प्रेम कहानियां पढ़ीं थीं। इस ब्लाग की एक-दो कहानियां ही क्यों न आप लोगों को पढ़वा दूं। आपको भी मजा आ सकता है और मैं अगले हफ्ते के लिए आइडिया पर लग सकूंगा। तो लीजिए पढ़िये इस ब्लाग पर पोस्ट की गईं तीन छोटी-छोटी प्रेम कहानियां, जो मैंने कापी करके रखी थीं- 

कुंदेरा की किताब
तब वह 16 की थी. आज वह 31 की है. क्लास में एक किताब पर प्रोजेक्ट लिखने का काम मिला था. उसने लाइब्रेरी में देखा तो अचानक उसके हाथ लगी- अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बींग. उसने वही किताब इशू करवा ली. इसलिए नहीं कि वह मिलान कुंदेरा का नाम जानती थी. बल्कि इसलिए कि उससे पहले जिस लड़के ने वह किताब इशू करवाई थी, वह उस पर मरती थी. वह किताब उसने दो बार पढ़ी. किताब उसे पसंद आई. फिर वह लड़का और भी ज्यादा. दोनों की शादी हो गई. बाद में एक दिन उसने उस लड़के से पूछा तुम्हें कैसी लगी कुंदेरा की वह किताब. कौन सी किताब, लड़के ने पूछा. अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ बींग, तुमने इशू करवाई थी न बुक प्रोजेक्ट के दौरान स्कूल में.
आह! वह ! हां इशू करवाई थी. पर पढ़ी नहीं.

हाथ पकड़ लिया, कहीं गुम जातीं तो कहां ढूंढते कैसे पहचानते


वे पूर्वज थे. चार पीढ़ी पहले के. तब मेरठ ही ज़िला था. उनकी शादी हुई तो उन्होंने एक दूसरे को पहले कभी नहीं देखा था. दिन में जब रौशनी होती, तो उनके मुंह पर घूंघट होता, घर के भीतर चहलपहल और सामूहिक परिवार का लिहाज. वह ज्यादातर खेत,आहते या बैठक में जहां औरतें झांक सकती थी, पर आ नहीं. शाम को जब वे साथ होते तो लैम्प की स्याह रौशनी होती. उनकी पहचान अंधेरे की ज्यादा थी रोशनी की कम. एक बार किसी काम से दोनों दिल्ली गये.चांदनी चौक में. वहां भीड़ थी. अजनबियत थी. उन्होंने कहा यहां घूंघट मत करो. वह धीरे से मान गईं. इक्के से उतरते हुए उन्होंने धीरे से उनका हाथ पकड़ लिया. कहीं गुम जातीं तो कैसे खोजते उन्हें, पहचानते कैसे. उनके अंधेरे की पहचान वहां कैसे काम आती. उनकी छोटी सी उंगलियों पर शर्म का पसीना था, उनके हाथों में जिम्मेदारी की पकड़. उन्होंने एक दूसरे की आंखों में देखा. लगभग पहली बार. वह मुस्कुराई. पहली बार इन आंखों में उनका मुस्कुराना दर्ज हुआ. चांदनी चौक से खरीदी चूड़ियों और माटी के इत्र की तरह ये निशानियां नई पहचान थी एक दूसरे से. एक लम्बी उम्र तक. परछाइयों की तरह हम तक


न हाथों में हाथ लिया, न नज़रें चुराईं


वह दोपहर की शिफ्ट में अख़बार में बैठा काम कर रहा था. यकायक उसे लगा उसकी कुर्सी को किसी ने धक्का दिया है. पर कोई नहीं था.मुड़कर देखा तो किसी ने कहा अर्थक्वेक.उनका दफ्तर पहली मंजिल पर था. सभी बाहर भागे. वह अंदर की तरफ. जहां वह बैठती थी. फिर वे दोनों बाहर निकले. बिना हाथ में हाथ लिए. पर बिना नजरें चुराए.सिर्फ एक झेंप के साथ कि कहीं कोई देख लेता तो लोग क्या कहते. जान बचाने की सभी को फिक्र थी. किसी ने नोटिस नहीं किया. उसके बाद वह उस पर थोड़ा ज्यादा मरने लगी. और उसके लिए वह थोड़ा और कीमती हो गई.








और अंत में

मरलिन मुनरो को कौन नहीं जानता। लेकिन उसकी जिंदगी में सबकुछ था, धन-दौलत, शोहरत, जान एफ, मिलर, दुख, निराशा, हताशा। बस कुछ नहीं था तो प्यार। इंटरनेट पर मैने उनकी कुछ कविताएं पढ़ी थीं। ये कविताएं मरलिन ने खुद लिखीं या किसी ने मरलिन की जिंदगी में उतर कर, यह तो नहीं पता। साहित्य के मानकों पर इनकी कोई जगह होगी या नहीं, यह भी नहीं कह सकता। फिलहाल, आप पढ़िये इन कविताओं को...

1.
कभी मैं तुम्हें प्यार कर सकती थी
और कह भी देती
पर तुम चले गये
और फिर देर हो गई
फिर मुहब्बत एक भुला दिया गया लफ्ज़ हो गया
तुम्हें याद तो है न
2.
ऐ वक़्त दया करो
इस थके हुए इंसान को वह सब
भुला देने में मदद करो
जो तकलीफदेह है
मेरा मांस खाते हुए
थोड़ा कम कर दो मेरे अकेलेपन को
थोड़ा ढीला छोड़ दो मेरे मन को

3.
है कोई मदद करने वाला
मदद चाहिए कि मैं महसूस करती हूं
उस वक़्त जिंदगी को अपने करीब़ आते
जब मैं चाहती हूं
बस मर जाना






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