यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
(प्रभात खबर 18 मार्च, 2012 से साभार)
(प्रभात खबर 18 मार्च, 2012 से साभार)
हर तरफ
तमाशा है, क्या आपको अब भी कोई आशा है
मार्च का महीना अब तक बहुत न्यूजी रहा है। शुरुआत
हुई थी विधानसभा चुनाव परिणामों से जिनमें कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी और उत्तर
प्रदेश में अखिलेश एक नई राजनीति के चेहरे के तौर पर उभरे। इन नतीजों से शुरू हुई
चर्चाएं थम भी नहीं पाईं थीं कि दिनेश त्रिवेदी के रेल बजट से राजनीति की रेल चलनी
शुरू हो गई। टीवी चैनलों पर सरकार गिरने और बननी लगी। कोलकाता और पीएमओ से तमाम तरह की बातें बाहर
आने लगीं और अंदर जाने लगीं। न्यूज चैनलों ने इनकी गति टीआरपी की तर्ज पर बढ़ायी
और गिरायी। 14 मार्च दोपहर 1.00 से शुरू हुआ खेल अब तक चल रहा है। इस खेल के
खिलाड़ी पता नहीं समझेंगे कि नहीं, आम आदमी ऐसी ब्लैकमेलिंग वाली राजनीति से खुश
नहीं हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो लोग 200-300 रुपये की किराया बढ़ोत्तरी के बाद भी
यह कह रहे हैं कि इसमें गलत क्या? अगर ममता
का सियासी तमाशा न शुरू होता तो शायद लोग इस वृद्धि को जायज नहीं ठहराते। क्योंकि
लोग ममता ब्रांड राजनीति से खिन्न हैं जो उनके नाम पर ही हो रही है। और इसीलिए
ममता के तमाशे की जगह वह किराया वृद्धि का पक्ष ले रहे हैं। शायद कहीं हम सबके मन
में यह बात है कि जो राजनीति हो रही है, वह हमारे लिये हितकारी नहीं है। हो सकता
है कि ममता या इसके दूसरे खिलाड़ियों को अपने लिये फायदेमंद लग रही हो। बाकी
राजनीतिक दलों को भी देखिये, वे किराया वृद्धि के खिलाफ खड़े होने की जगह यूपीए की
राजनीति को मुद्दा बनाए हुए हैं।
हमारे देश की राजनीति ऐसी ही है। पिछले एक साल से
खुलकर यह बात सामने आ रही है। जनलोकपाल का मसला हो, भ्रष्टाचार का मसला हो, काले
धन का मसला हो, राजनीति में राजा की जय-जय है, राजा के सुख की चिंता है, राजा के
सफल होने का संघर्ष है, राजा के विफल होने पर दुख है, राजा के लिए लूट का प्रावधान
है, राजा की सुविधा का इंतजाम है और जनता, जनता तो लोकतंत्र में ताकतसंपन्न है ही,
उसके लिए किसी को सोचने की क्या जरूरत? यही चल रहा है अपने लोकतंत्र में। उत्तर प्रदेश में
देखिये। इसी बीच उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने शपथ ली। नई राजनीति का नारा देकर
सीएम बने अखिलेश य़ादव ने अपने मंत्रिमंडल में जिन चेहरों को लिया, उसके क्या तर्क
हैं। क्या राजा भैय्या बहुत विद्वान, जानकार, दूरदृष्टा, ईमानदार, कर्मठ हैं,
इसलिए उन्हें मंत्री बनाया गया? क्या दूसरे मंत्री भी इन्हीं गुणों की वजह से नई राजनीति
के कैबिनेट में पहुंचे हैं। क्या मंत्री बनाने में जनहित को देखा गया है या फिर इन
मनसबदारों की जरूरतों का ध्यान रखा गया है। देश में, राज्य में, नगर निगम में, हर
जगह यही होता आ रहा है। लेकिन अखिलेश की बात मैं इसलिए कर रहा हूं कि उन्होंने
लोकतंत्र में रह रहे लोगों में थोड़ी उम्मीद जगाई है कि उत्तम राजनीति की ओर उत्तर
प्रदेश जाएगा।
और फिर आया बजट। बजट में न कोई हिम्मत, न कोई
अभिनवशीलता, न कोई राह, न कोई चाह। बस बजट पेश करना था सो प्रणब दा ने कर दिया। यह
बजट एक्सेल शीट पर बना हुआ बजट लग रहा है जैसे किसी सीए ने बना दिया हो। इधर कम
करो, उधर बढ़ाओ। नेट रिजल्ट पर फर्क देख लो कि अपने अनुरूप है कि नहीं है। बस।
अपने देश में जो दूसरी पंचवर्षीय योजना पीसी महालनोबीस ने बनाई थी, उसी तरह का यह
बजट है। पीसी अपने समय के बहुत बड़े सांख्यिकीविद थे। उस समय एक्सेल शीट तो होती
नहीं थीं लेकिन उन्होंने मैनुअली ही भारी-भरकम मैट्रिक्स बना दी थी जिसमें
बड़े-बड़े पीएसयू में उत्पादन, रोजगार आदि के आंकड़े फिट किये गए थे। लेकिन दादा
के पास पीसी वाली महारत तो है नहीं।
पाकिस्तान की ‘लेडी मंटो’
लखनऊ में इन दिनों सार्क देशों के साहित्यकारों का
एक बड़ा कार्यक्रम चल रहा है। इस आयोजन को कवर कर रहे अपने एक मित्र ने बताया कि
उनकी मुलाकात पाकिस्तान की एक युवा लेखिका से हुई। फरहीन नाम की ये मोहतरमा
पाकिस्तान में टीवी धारावाहिकों का निर्देशन भी करती हैं। बातचीत में मोहतरमा ने
अपनी कहानियों के विषय के बारे में चर्चा की। कहानियों और धारावाहिकों के बोल्ड
किरदारों के बारे में सुनकर मेरे मित्र ने कहा कि मंटो को यहां बहुत पढ़ा जाता है,
इस पर फरहीन बोलीं कि मुझे तो पाकिस्तान में ‘लेडी मंटो’ कहा जाता
है। मैं तो सुनकर चौंक गया कि जिस पाकिस्तान में इसलामी नैतिकता को लेकर कट्टरपंथी
इतने आक्रामक रहते हैं, वहां टीवी पर लेडी मंटों के धारावाहिक भी प्रसारित हो सकते
हैं। वाकई पाकिस्तान बदल रहा है।
और अंत में
इस बार पढ़िये सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता...
कितना अच्छा होता
एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।
शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना ।
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।
शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना ।
विश्लेषण सटीक जानकारी दे रहा है।
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