यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार
प्रभात खबर से साभार
पिछले दो रविवार आपने कश्मीर को लेकर दो सच्ची कहानियां पढ़ीं और आज जो वाकया
मैं आपसे साझा करने जा रहा हूं, वह और ज्यादा संवेदनशील है। हो सकता है कुछ लोगों
को यह वाकया अच्छा न लगे। लेकिन सिर्फ अच्छी लगनी वाली चीजों से कश्मीर समझना संभव
नहीं है, कड़वी चीजों को भी समझना पड़ेगा और उनसे निबटना पड़ेगा। इनको दबाकर
रखेंगे तो नासूर बढ़ता ही जाएगा।
2002 की बात है। दीवाली निकल चुकी थी। नवंबर के आखिरी दिन चल रहे थे। हम लोग
(मैं और मेरे दो साथी गुप्ता व शर्मा और ड्राइवर सोनू) सुबह करीब 10 बजे श्रीनगर
से कंगन नाम के कस्बे को जाने के लिए निकले। कंगन पहुंचने के बाद हमने सोचा कि
क्यों न सोनमर्ग तक हो आया जाए। लिहाजा आगे चल पड़े। आसमान पर धुंध थी, बादल थे।
हम लोगों को भूख लग रही थी। सड़क किनारे तीन-चार दुकानें और नीचे की तरफ एक गांव
दिखाई दिया। हम रुक गए कि शायद यहां खाने को कुछ मिल जाए। शाम के 3 बज रहे थे। उन
दुकानों पर तो कुछ मिला नहीं लेकिन एक दुकानवाले ने बताया कि नीचे गांव में आपको
पकौड़े और आमलेट मिल जाएगा। गांव से खाने का सामान लाने शर्माजी ड्राइवर को लेकर
सड़क से नीचे उतर गए। मौसम थोड़ा खराब हो चला था। बादल धीरे-धीरे बर्फ के फाहे
गिराने लगा था। थोड़ी दूर पर सड़क किनारे एक शेड था जिसमें बनीं दुकानें बंद थीं।
वहां दो फौजी मुस्तैदी से खड़े थे। चलो इन फौजियों से बात की जाए, यह सोचकर हम शेड
के नीचे पहुंच गए। फौजी हमसे मिलकर खुश हुए। उनमें से एक हरियाणा का रहने वाला था
और दूसरा उत्तर प्रदेश का। हम लोग भी मूल रूप से उत्तर प्रदेश के जो थे। हरियाणवी
जवान हमारे परिवारों के बारे में बात करने लगा तो गुप्ता जी बताया कि उनकी शादी
अभी नहीं हुई है। हम कश्मीर के बारे में उसकी समझ जानने के लिए सवाल करने लगे। तभी
शाम की चाय बांटता फौजी ट्रक शक्तिमान वहां से गुजरा। उन जवानों ने अपने गिलास
निकाले और चाय लेकर हमें दे दी कि पीजिए साहब, इस बर्फबारी में आगे दूर तक चाय न
मिलेगी न इस तरफ न उस तरफ। शक्तिमान चला गया। तभी दूर से 12-13 साल की एक बच्ची
सिर पर लकड़ियों का गट्ठर उठाए हुए आती दिखाई दी। उसके साथ 8-9 साल का एक बच्चा भी
था। फौजियों ने भी उनको देखा फिर गुप्ताजी से पूछा आपने शादी क्यों नहीं की अब तक? गुप्ताजी कोई जवाब देते, उससे पहले ही हरियाणवी जवान ने कहा
कि लड़की पसंद कर लीजिए और ठीक लगे तो शादी कर लीजिए। इस पर गुप्ताजी ने चुहुल की
कि लड़की मिलती ही कहां है जो पसंद करूं और शादी करूं। गुप्ताजी का यह कहना था और
जवान का जवाब आया कि अभी लड़की दिला देते हैं। तब तक लकड़ी का गट्ठर लिए वह बच्ची
और पास आ चुकी थी। बच्ची का चेहरा भावविहीन था। वह बहुत तेजी से चल रही थी दूसरी
तरफ देखते हुए। जैसे वह जल्दी से उस जगह को पार कर लेना चाह रही हो। जवान आगे बढ़ा
और बच्ची का हाथ पकड़ लिया। फिर कहा, सर इसे ले जाइए उधर और पसंद कर लीजिए। बच्ची
कांप रही थी और उसके साथ का बालक डरी नजरों से कभी हमें देखता, कभी उस बच्ची को जो
शायद उसकी बड़ी बहन थी। हमने जवान को डांटा कि ये क्या बदतमीजी है और बच्ची का हाथ
छोड़ने को कहा। जवान ने हाथ तो छोड़ दिया लेकिन हमें समझाने लगा कि डरते क्यों हैं
सर, यहां कोई कुछ बोल नहीं सकता।...बर्फबारी तेज हो चुकी थी और आसपास के पेड़ों व
सड़क पर बर्फ की सफेद चादर मोटी होती जा रही थी।
वापस श्रीनगर आते हुए मैं सोचता रहा कि उस बच्ची और नन्हें बालक के दिल-दिमाग
में क्या चल रहा होगा। आप भी सोचिए उन बच्चियों और बालकों के दिल बनकर। इसकी भी
जरूरत है कश्मीर को क्योंकि कश्मीर सिर्फ धरती का टुकड़ा नहीं, बल्कि हमारे-आप
जैसे चलते-फिरते लोगों से है जिनके पास हमारी-आपकी तरह दिल भी है और दिमाग भी।
और अंत में....
कश्मीर में 16वीं सदी में छोटे से गांव चंद्रहार के एक साधारण परिवार
में एक बच्ची पैदा हुई जो चांद की तरह खूबसूरत थी, लिहाजा उसके अब्बा ने उसका नाम
रखा जून। जून का अर्थ होता है चांद। जून को गीत अच्छे लगते थे और उसने बहुत कम
उम्र में गीत बनाने शुरू कर दिए। वह उन्हें लिखना भी चाहती थी लिहाजा गांव के
मौलवी से कश्मीरी लिखना सीखा। जब वह बड़ी हुई तो उसके अब्बा ने अपने जैसे ही एक
परिवार में उसका विवाह कर दिया। शौहर अनपढ़ था, उसे जून की शायरी समझ में न आती। जून
उदास रहती और उदासी के प्रेमगीत रचती। एक दिन वह उदासी का ही कोई गीत गुनगुना रही
थी कि उधर से एक घुड़सवार नौजवान गुजरा। उसके कानों में जून की आवाज पड़ी। उसने
जून को अपने पास बुलाया। एक ही नजर में मोहब्बत हो गई। उसने जून की दास्तां सुनने
के बाद सबकी रजांमंदी से जून का तलाक करवाया और खुद जून से निकाह कर लिया। यह
नौजवान युसुफ शाह चक बाद में कश्मीर का राजा बना और हब्बा खातून की शायरी के चर्चे
दूर-दूर तक फैलने लगे, पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। सन् 1579 में मुगल बादशाह अकबर ने युसुफ शाह को दिल्ली बुलवाया। युसुफ दोबारा
हब्बा के पास वापस कभी नहीं लौटा। उसे बादशाह ने जबरदस्ती बिहार में एकांतवास में
डाल दिया। हब्बा विरह की शायरी में डूब गई। वह झेलम के किनारे विरह के गीत गाते
हुए भटकती। कुछ दिन बाद उसकी मौत हो गई। आज भी श्रीनगर के पास अथावजान में हब्बा
खातून की मजार है। कश्मीर में आज भी हब्बा खातून के गीत आपको सुनने को मिल जाएंगे।
फिलहाल तो पढ़िए मूल कश्मीरी भाषा से अनूदित हब्बा खातून का एक उदास गीत-
मैं पिघल रही हूं ऐसे
कि जैसे बर्फ पिघलती है सूरज की तपिश पर
पूरे शबाब पर है मेरा यौवन
फिर तुम दूर क्यों हो मुझसे...
मैंने तुम्हें पहाड़ों पर ढूंढ़ा
और ढूंढ़ा पहाड़ की चोटियों पर
मैंने तुम्हें झरनों में ढूंढ़ा
और ढूंढ़ा नदियों की लहरों में
सजाए दस्तरख्वान भी तुम्हारे लिए
फिर तुम दूर क्यों हो मुझसे..
मैं आधी रात तक दरवाजे खुले रखती हूं
आओ बस एक बार आओ मेरे सरताज
क्या भूल गए हो राह मेरे दर की
तुम दूर क्यों हो मुझसे..