मंगलवार, 4 जनवरी 2011

स्मृति शेष : जाना अतुल भाईसाहब का

राजेंद्र तिवारी
यह विश्वास ही नहीं हो पा रहा कि अतुल भाईसाहब नहीं रहे। करीब पांच माह पहले नोएडा में उनसे मिलना हुआ था। वह चिंतित थे। उन्होंने कहा कि हिंदी के अखबार भेड़चाल की माफिक चलते हैं। कभी सब लोकल कवरेज के पीछे पड़े थे तो अब लोकल कवरेज में अपमार्केट कंटेंट का रट्टा चल रहा है। कोई अखबार मालिक या संपादक इससे इतर कुछ करने को ही तैयार नहीं होता। जो लोग अपमार्केट का विरोध करते हैं, उनको समझ ही नहीं है कि अखबार में कैसे पूरे समाज को संबोधित किया जाए। लेकिन यह बात करते हुए वह 1996 वाले अतुल माहेश्वरी जितना उर्जावान और उत्साह से भरे नहीं बल्कि हताश और टूटे हुए नजर आ रहे थे।


अमर उजाला पिछले दो दशकों से अतुल भाईसाहब के ही नेतृत्व में था और उनकी वजह से ही हिंदी पत्रकारों के लिए अमर उजाला में काम करना गौरव की बात हुआ करती थी। पत्रकारों के लिए अतुल भाईसाहब ने निजी स्तर पर सामाजिक सुरक्षा कवच विकसित कर रखा था। किसी भी परेशानी में वह किसी भी पत्रकार की मदद के लिए तत्पर रहते थे। यह उनका ही विजन था कि यह अखबार पश्चिमी उत्तरप्रदेश से निकलकर पहले कानपुर और फिर देहरादून-चंडीगढ़-जालंधर होते हुए जम्मू-कश्मीर व हिमाचल तक पहुंचा। लेकिन कई बार ऐसा देखा गया है कि व्यक्ति जिन अच्छाइयों के लिए जाना जाता है, आसपास के लोग उनका ही बेजा फायदा उठाते रहते हैं और वह व्यक्ति संकोच में, अपने बड़प्पन में कुछ बोल नहीं पाता। एक दिन वह अपने को फंसा पाता है। शायद अति संवेदनशील अतुल भाईसाहब के साथ ऐसा ही हुआ। पहले परिवार के झगड़े और इन झगड़ों से निबटने में जिनपर भरोसा किया, उनके स्वार्थ। अग्रवाल-माहेश्वरी बंट गए। तमाम बुलंद इरादों से शुरू किया गया जालंधर संस्करण बंद करना पड़ा। उनपर वे सब आरोप तक लग गए जिनके बारे में उनके धुर विरोधी भी शायद ही कभी सोच पाते। जिनसे वह अपनी मुश्किलें शेयर करते थे, उनसे इस दौरान दूरी बन गई।
इन सबके बीच शायद अतुल भाईसाहब बहुत अकेले हो गए थे। और यह अकेलापन और अकेले होने की विवशता उनके चेहरे पर झलकने लगी थी। शायद वह अंदर ही अंदर छटपटा रहे थे। यह छटपटाहट सतह पर आकर ठोस रूप ले पाती तो शायद एक बार फिर अमर उजाला ही नहीं बल्कि पूरी हिंदी पत्रकारिता को एक नया संवेग मिल सकता। वह कुछ गिने-चुने मालिक-संपादकों में से थे, जिनसे पेड न्यूज और विश्वसनीयता की चुनौती से गुजर रही मौजूदा हिंदी पत्रकारिता उम्मीदें लगा सकती थी। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था।
(प्रभात खबर से साभार)

5 टिप्‍पणियां:

  1. यह भारतीय मीडिया की बड़ी हानि है

    जवाब देंहटाएं
  2. Atulji ke bare me mai pahle se kuch nahi janta tha. Aap ko padhne ke bad yah bharosa badh gaya hai ki achcha sochne vale log har jagah hai. Is bat se fark nahi padta ki ve kanha aur kis position par hai. Ummid jagi hai ki jin logo ne atulji ke sath kam kiya hoga unme unke sanskar aaye honge aur kanhi na kanhi ve unhe aage badhayenge. Patrakarita ke aise hiteshi ko mera bhi naman.

    जवाब देंहटाएं
  3. अतुल जी के बारे में जाना और उनके असामयिक निधन से पत्रकारिता को हुयी क्षति के बारे में भी.
    परमात्मा दिवंगत की आत्मा को शांति प्रदान करें.

    जवाब देंहटाएं
  4. सर आपके इस लेख के जिरये इतनी बड़ी हस्ती के बारे में जानकारी मिली लेकिन वे अब इस दुनिया में नहिं हैं यह एक बड़े दुख की बात है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।

    जवाब देंहटाएं
  5. अतुल जी का जाना वाकई हिंदी पत्रकारिता के लिए एक अपूरणीय क्षति है।

    जवाब देंहटाएं