रविवार, 9 अक्टूबर 2011

सौ में निन्यानबे अमेरिकी फिलहाल जब नाशाद हैं....


यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार


दुनिया के विकसित देशों में इस समय उथल-पुथल का दौर है और यह उथल-पुथल पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों के सतह पर आने से शुरू हुई है। जिन तथाकथित खुली आर्थिक नीतियों की रामबाण घुट्टी 20-22 साल पहले भारत जैसे विकासशील देशों को आर्थिक संकट से निकालने के नाम पर दी गई थी, आज उसी घुट्टी के खिलाफ विकसित देशों में जनउभार आकार लेता नजर आ रहा है। पूंजी के ग्लोबलाइजेशन के नाम पर कारपोरेट लूट और इसमें सरकार की मिलीभगत का आरोप अमेरिका-यूरोप में भी लगने लगा है। 2008 से मंदी से निपटने के नाम पर सरकारें जो पैकेज दे रही हैं, उनसे इन देशों के आम आदमी को कोई फायदा नहीं हो रहा है।
ब्रिटेन के अखबार गार्डियन की कालमनिस्ट नाओमी क्लेन ने शुक्रवार को लिखा कि एक फीसदी लोग हैं जो मौजूदा संकट से खुश हैं...जब आमजन हताश और डरा हुआ हो, वही सबसे मुफीद वक्त है कारपोरेट को फायदा पहुंचाने वाली नीतियों को लागू करने का। शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी को मुनाफे के खेल में बदलने के लिए निजीकरण, सार्वजनिक सेवाओं में कटौती और कारपोरेट्स को खुले हाथ से मदद....आर्थिक मंदी के दौर में आज यही सब हो रहा है। (पिछली सदी में सोवियत क्रांति के बाद स्थापित समाजवादी व्यवस्था के दबाव में सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक क्षेत्रों को अमेरिकी खेमे को सरकारी जिम्मेदारी में लेना पड़ा था। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद यह दबाव खत्म हो गया)  क्लेन लिखती हैं कि सरकारों के इस खेल पर सिर्फ एक ही ताकत विराम लगा सकती है और सौभाग्य से यह ताकत बहुत बड़ी है। मतलब बाकी 99 फीसदी लोगों की ताकत। और ये 99 फीसदी लोग सड़क पर उतरने लगे हैं। अमेरिका शहर मैडिसन से स्पेन की राजधानी मैड्रिड तक ये लोग कह रहे हैं कि एक फीसदी लोगों को संकट से उबारने (फायदा पहुंचाने) के लिए हम सरकारों को अपनी जेब पर डाका नहीं डालने देंगे..नो, वी विल नाट पे फार योर क्राइसिस। दरअसल, यदि अमेरिका को देखें तो 2008 की मंदी के बाद से जहां सबसे ज्यादा आय वाले एक फीसदी लोगों की आय में करीब 46 फीसदी का इजाफा हुआ है, वहीं बाकी 99 फीसदी की आय कम हुई है। बर्कले विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री एमैनुएल साएज (elsa.berkeley.edu/~saez/saez-UStopincome-2007.pdf) के मुताबिक 1993 से 2008 के बीच जहा एक फीसदी अमेरिकियों (टाप इनकम ग्रुप) की आय 79 फीसदी बढ़ी वहीं बाकी 99 फीसदी अमेरिकियों की आय सिर्फ 12 फीसदी। इसका मतलब यह हुआ कि इन 15 सालों के दौरान अमेरिकी अर्थव्यवस्था के कुल विकास का 65 फीसदी इस एक फीसदी की झोली में गया और 99 फीसदी को 35 फीसदी ही मिला। ये एक फीसदी कौन लोग हैं...जाहिर है कि कारपोरेट। अमेरिका में यह धारणा आम लोगों के मन में घर कर चुकी है कि राजनीतिक लोगों और कारपोरेट्स के बीच गठजोड़ में आम अमेरिकी के हितों को अनदेखा किया जा रहा है। लोगों को लग रहा है कि उनके प्रतिनिधि और राजनीतिक दल कारपोरेट्स के हाथों बिक चुके हैं। इसी की परिणिति हुई अकुपाई वालस्ट्रीट आंदोलन के रूप में। यह आंदोलन 17 सितंबर से काहिरा के तहरीर चौक और भारत के अन्नाग्रह की तर्ज पर शुरू हुआ। इसके पीछे कोई संगठन नहीं है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के जरिए यह आंदोलन पूरे अमेरिका में फैल चुका है। लोग अपने-अपने शहर में अपनी-अपनी तरह से इसे समर्थन दे रहे हैं। न्यूयार्क, शिकागो, मैडिसन, वाशिंगटन, बोस्टन, टाम्पा, अलबर्क, डेनवर, लासएंजेल्स, सैनफ्रांसिस्को आदि शहरों में लगातार प्रदर्शन हो रहे हैं। कई जगह झड़पें भी हुई हैं और सैकड़ों लोग गिरफ्तार किए गए। न्यूयार्क में तो सैकड़ों प्रदर्शनकारी स्लीपिंग बैग लेकर जमे हुए हैं। यूरोप में पहले से ही अर्थनीतियों के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे हैं। यूरोपीय देशों की अर्थनीतियों की वजह से यहां लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं। मजबूत मानी जाने वाली आयरिश अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी में जबरदस्त इजाफा हुआ। इन सबके चलते डबलिन, एथेंस, मैड्रिड, पेरिस, लंदन, रेक्वाजिक आदि शहरों में हड़ताल व प्रदर्शनों का दौर चल रहा है। ब्रसेल्स में तो एक लाख लोगों ने सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया। लोगों का कहना है कि उनकी सरकारें उन्हीं लोगों (कारपोरेट्स व बैंक) के लिए वित्तीय पैकेज दे रही हैं जिनकी वजह से आर्थिक संकट आया है। यह सिलसिला रुकना चाहिए। द यूनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका में जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों के प्रति बने अविश्वास और आर्थिक मंदी से भय के माहौल पर टाम एंजेलहार्ट की एक किताब भी आने वाली है – द यूनाइटेड स्टेट्स आफ फीयर। इस किताब की बड़ी संख्या में अग्रिम बुकिंग हो चुकी है।


और अंत में...

पिछले दिनों भारत भूषण अग्रवाल की कविताओं की किताब ओ अप्रस्तुत मन हाथ लगी। 1958 में छपी इस किताब की भूमिका में कवि ने खुद लिखा था...यदि इन्हें पढ़कर आपको निराशा हो तो आप मध्यवर्गीय मन को आशान्वित करने की ओर प्रवृत्त हों, यदि उसके अधूरे, अपर्याप्त जीवन पर आपके मन में सहानुभूति उत्पन्न हो, तो आप उसके विकास के पथ को प्रशस्त करने की ओर प्रवृत्त हों, और यदि उसके क्षुद्र, ओछे जीवन से आपके मन में वितृष्णा का उदय हो, तो आप व्यक्ति की सही प्रतिष्ठा की ओर प्रवृत्त हों, यही निवेदन है। इस कविता संग्रह से दो कविताएं...

1.      समाधि लेख

रस तो अनंत था, अंजुरी भर ही पिया
जी में बसंत था, एक फूल ही दिया
मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है :
कैसे बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया !

2.      गीत नहीं मिले

मिट्टी का परस कभी जाना नहीं
मिट्टी का सम्मोहन?
माना नहीं .
अपने हाथों उगाया कभी एक दाना नहीं
इसीलिए-
आया तुझे गाना नहीं !

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

अन्‍नाग्रह के एक माह बाद


यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार


अन्ना हजारे का अनशन समाप्त हुए एक माह से ज्यादा बीत गया है. जो माहौल उन दो हफ्तों के दौरान पूरे देश में दिखाई दे रहा था, उससे यह लगने लगा था कि आमजन अब छोटे-छोटे कामों के लिए घूस मांगे जाने पर ठेंगा दिखाने लगेंगे.
भ्रष्ट्राचार करनेवाले नियम-कानून से चलनेवालों पर खुले आम फ़ब्तियां कसने में डरने लगेंगे. शायद देश का पॉलिटिकल क्लास इस आंदोलन से सबक लेकर थोड़ा नैतिक और जवाबदेह दिखाई देने लगे. लेकिन एक माह के बाद फ़िर वही ढाक के तीन पात. अगस्त माह में अन्ना के अनशन के दौरान मेरे एक सहकर्मी ने बताया था कि इस बार उसे नगर निगम का टैक्स जमा करने में कोई दिक्कत नहीं आयी और 50 रुपये भी नहीं देने पड़े, लेकिन आज के गांधी के अनशन से गांधी जयंती आने तक यह माहौल धीरे-धीरे खत्म हो गया.
संसद हो या सड़क, सब जगह जीवन वैसे ही चलने लगा है, जैसे कुछ हआ ही नहीं था. दूसरी तरफ़, अमेरिका में अन्ना की तर्ज पर मौजूदा गवर्नेस के खिलाफ़ माहौल बन रहा है. आर्थिक कुप्रबंधन से गुजर रहे अमेरिका में मंदी की आहट है और लोगों को लग रहा है कि राजनीतिक दल देशहित को नहीं, बल्कि पार्टीहित को साध रहे हैं और इससे देश (अमेरिका) का बंटाधार हो रहा है.
अमेरिकी कारपोरेट जगत के एक खेमे ने अमेरिकियों की इस भावनाओं को स्वर देना शुरू किया है. पिछले दिनों अमेरिकी काफ़ी चेन स्टारबक्स के सीइओ होवार्ड शुल्ज ने न्यूयार्क टाइम्स में विज्ञापन देकर कारपोरेट जगत का आह्वान किया कि जब तक देश की दोनों पालिटिकल पार्टियां (डेमोक्रैट्स व रिपब्लिकन) अपना रवैया ठीक करने का भरोसा नहीं दिलातीं, राष्ट्रपति चुनाव के लिए कोई भी उनको राजनीतिक चंदा न दे. यहां हम, आपको बताते चलें कि 2012 के राष्ट्रपति चुनाव के लिए संसाधन जुटाने की प्रक्रिया वहां शुरू हो चुकी है और राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा को कई जगह विरोध का सामना करना पड़ रहा है.
शुल्ज ने न्यूयार्क टाइम्स में दिये गये विज्ञापन में कहा है कि दोनों पार्टियों के निर्वाचित प्रतिनिधि अमेरिका को सही नेतृत्व दे पाने में विफ़ल दिखाई दे रहे हैं. ये लोग पार्टीलाइन और पार्टीहित के सामने जनहित (अमेरिकी हितों) की अनदेखी कर रहे हैं. भविष्य में सामूहिक भरोसा और अपनी दिक्कतों को सफ़लतापूर्वक हल करने की क्षमता हम अमेरिकियों की डॉलर से ज्यादा बहमूल्य पूंजी है. लेकिन इन राजनीतिक प्रतिनिधियों ने इस पूंजी को ही नष्ट करना शुरू कर दिया है.
शुल्ज ने अपने कारपोरेट साथियों का आह्वान किया है कि इस पूंजी को बचाने के लिए आइए हम राष्ट्रपति ओबामा और इन पार्टियों को तब तक चुनावी चंदा न जारी करने का संकल्प लें जब तक कि ये व्यापक अमेरिकी हित में काम करने का भरोसा नहीं दिलाते. शुल्ज का अभियान शुरुआत में तो धीमा चला, लेकिन धीरे-धीरे जोर पकड़ गया. अब 150 कारपोरेट सीइओ उनके इस अभियान से जुड़ चुके हैं.अन्ना का अभियान जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ़ था और उसकी ताकत भारतीय मध्य व निम्न मध्य वर्ग था वहीं शुल्ज का अभियान रोजगार और बेहतर बिजनेस माहौल के लिए है और उसकी ताकत अमेरिकी कारपोरेट जगत है. मीडिया भी शुल्ज को समर्थन दे रहा है.
यदि किसी का समर्थन शुल्ज को नहीं मिल पा रहा है, तो वे हैं भारतीय या भारतीय मूल के सीइओ. खैर जो भी हो, अमेरिकियों को लगने लगा है कि ये राजनीतिक अपनी और अपनी पार्टी की नाक रखने के लिए देश का कबाड़ा कर रहे हैं. देखना यह है कि क्या शुल्ज अपने इस अभियान से अमेरिकी चुनावों पर कोई प्रभाव डाल पायेंगे या नहीं.
और अंत में
अवधी के एक कवि थे रफ़ीक शादानी. फ़ैजाबाद में सब्जी का ठेला लगाते थे. दो साल पहले उनका इंतकाल हआ. अभी यू-ट्यूब पर उनके कविता पाठ के दो वीडियो देखने को मिले. आप भी लीजिए, उनकी कविता का आनंद. दो कविताओं की चार-चार लाइनें यहां प्रस्तुत हैं-
गुस्सा आवा, बुद्धि गै
आंधी आयी, बत्ती गै
जबसे आवा ईलू-ईलूतुलसी की चौपाई गै
------
तुम चाहत हौ भाई-चारा, उल्लू हौ
देखै लागेव दिन हिमतारा, उल्लू हौ
समय का समझौ यार इशारा, उल्लू हौ
तुमह मारौ हाथ करारा, उल्लू हौ

रविवार, 25 सितंबर 2011

अपनी भाषा भूले तो जड़ों से ही कट जाएंगे हम

यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार


हिंदी का सरकारी महीना सितंबर खत्म होने को है। सरकारी विभागों, बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों आदि में हिंदी को बढ़ावा देने के पोस्टर लगे, हिंदी पखवाड़ा आयोजित करने की घोषणाएं और कहीं-कहीं अफसरों के रिश्तेदारों-यार-दोस्तों को उपकृत करते हुए कवि सम्मेलन या संगोष्ठी का आयोजन। कुछ लोग विज्ञापन देकर बता रहे हैं कि वे हिंदी की कितनी सेवा कर रहे हैं और कुछ लोग विशेष सामग्री देकर और उसके दाम वसूलकर यही बताने का उपक्रम कर रहे हैं। यह सब बदस्तूर बरसों से हो रहा है लेकिन हिंदी की हालत कमबख्त सुधर ही नहीं रही। आखिर ऐसा है क्यों? और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि हमको और हमारे बच्चों को हिंदी क्यों आनी चाहिए?

1991 से, जब से देश में आर्थिक उदारीकरण की बयार शुरू हुई। उससे पहले तक देश के लगभग हर जिले में सबसे अच्छे स्कूल सरकारी स्कूल हुआ करते थे। जिलों में सबसे अच्छे शिक्षक भी अमूमन सरकारी स्कूलों के ही होते थे। इन सरकारी स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई वैसे ही कराई जाती थी जैसे गणित या विज्ञान की। लेकिन 90 के दशक से बदलाव आने शुरू हुए। पब्लिक स्कूलों की संख्या बढ़ी और साथ ही नकली पब्लिक स्कूलों की भी। इनमें हिंदी सबसे हेय विषय के तौर पर देखा जाता है। आश्चर्य की बात यह हुई कि अर्धसरकारी या ट्रस्ट आदि के स्कूल जो पहले से अच्छे माने जाते थे, उन्होंने भी हिंदी को पीछे ढकेल दिया। हम जब बच्चे थे (30-35 साल पहले), गलत वर्तनी लिखना शर्मनाक माना जाता था और शिक्षक कान पकड़वाकर उठक-बैठक लगवाते थे, लेकिन अब...पिछले दिनों मैंने अपने बच्चे की हिंदी की कापी देखी। हर पन्ने पर वर्तनी की गलतियां थीं और शिक्षक ने उसे चेक कर रखा था। शिक्षक के दस्तखत इसका गवाह थे। यह बच्चा एक बहुत अच्छे स्कूल में पढ़ता है। कापी में गलती की यह पहली घटना नहीं है। भोपाल के मशहूर कैंपियन स्कूल में भी यही हालत थी, सेंट मेरीज कान्वेंट की भी यही हालत थी और दिल्ली के एक अच्छे स्कूल में भी यही हालत। हिंदी को कितना हेय समझा जाता है, यह मैंने साक्षात देखा है इन स्कूलों में। दो साल पहले जब मैं दिल्ली में था, टीचर-पेरेंट मीटिंग के लिए बच्चे के स्कूल गया। समय कम था सो सोचा कि उस टीचर से शुरुआत करूं जिसके पास भीड़ कम हो। गणित की टीचर की टेबल पर भीड़ थी, अंगरेजी की टीचर को सिर उठाने की फुरसत नहीं थी, साइंस वाले रूम में करीब 20 पेरेंट बैठे थे। फिर मैंने अपने बच्चे से कहा कि चलो पहले हिंदी की टीचर से मिल लेते हैं। यकीन मानिये, हिंदी की टीचर बिलकुल खाली बैठी थीं। देखने में वह बिलकुल 30-35 साल पहले वाली मास्टरनी की तरह ही थीं। बच्चों की चाल-ढाल बदल गई, बाकी सबजेक्ट के टीचरों की चाल-ढाल बदल गई, बातचीत की भाषा हिंदी जगह अंगरेजी हो गई लेकिन हिंदी की टीचर नहीं बदलीं। उनसे मिला, उन्होंने बहुत विस्तार से बच्चे की प्रगति से अवगत कराया लेकिन जब मैने उनसे पूछा कापी में गलतियां रहते हुए वे कैसे दस्तखत कर देती हैं, वे बेझिझक बोलीं, अरे इसमें क्या है। उनका सारा जोर इस बात पर था कि मैं क्या करता हूं और वे किस-किस को जानती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि अधिकतर पेरेंट्स तो उनसे मिलने भी नहीं आते हैं और फिर टेबल पर रखा हुआ सलाइयों में बिंधा स्वेटर उठाया और सलाइयां चलाने लगीं। सीधी रेखा में सोचा जाए तो सारी गलती हिंदी टीचर की नजर आएगी लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। गलती उस माहौल की, उस सिस्टम की है जिसमें उनकी उपयोगिता ही खत्म कर दी गई है।
आइए अब देखें इसका असर क्या पड़ रहा है। एक शाम मैंने अमिताभ बच्चन का शो कौन बनेगा करोड़पति देखा। उसमें 25-26 साल की एक पढ़ी-लिखी युवती हाटसीट पर थी। 10000 रुपए के लिए दूसरा सवाल स्क्रीन पर था- 15 अगस्त को लालकिले के सामने फौज की सलामी कौन लेता है। विकल्प थे- राष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश। श्रीमती टिकटिक आन हो गईं थीं। समय समाप्त हो गया लेकिन यह युवती जवाब नहीं दे पाई। क्या यह सवाल इतना कठिन है कि जिसने भी पढ़ाई-लिखाई की हो, वह इसका जवाब न दे पाए? दरअसल ऐसी जाने कितनी बातें आज के बच्चों और युवाओं को पता नहीं हैं और उसकी एक बड़ी वजह यह है कि हम अपनी भाषा को गंभीरता से नहीं लेते। हमें अपनी विरासत, परंपरा, संघर्ष आदि की जानकारी तो अंगरेजी भाषा के जरिए भी हो सकती है लेकिन इनका बोध अपनी भाषा में ही होता है। हर जगह आज लोगों को कहते सुना जा सकता है कि 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्टूबर पर अब वह उत्साह नहीं दिखाई देता जो पहले हुआ करता था। जरा सोचिए, पहले क्या हुआ करता था...यही न कि बच्चे झंडा ऊंचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा गाते हुए प्रभातफेरी निकालते थे, दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के, चेतक बन गया निराला था, चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं, खूब लड़ी मरदानी वो तो झांसी वाली रानी थी, इस मिट्टी से तिलक करो यह मिट्टी है बलिदान की जैसे न जाने कितने गीत बच्चे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गाते थे। अब यही सब नहीं दिखाई देता। अब ये दिन उत्साह और गौरव के नहीं, बल्कि स्कूल व काम से छुट्टी के दिन में बदल गए हैं। आखिर स्कूलों में ऐसा क्यों हो गया? अच्छे स्कूलों में हिंदी खत्म हो गई और अंगरेजी के चलते सरकारी स्कूलों से माहौल तो खत्म हुआ ही, शिक्षक प्रजाति भी लुप्तप्राय: हो गई और उसकी जगह ले ली शिक्षाकर्मियों और गुरुजियों ने (जी हां, मध्यप्रदेश में सर्वशिक्षा अभियान के तहत ठेके पर रखे जाने वाले शिक्षकों को गुरुजी कहा जाता है और इसका बहुवचन है गुरुजियों। इसी से स्पष्ट है कि समाज में इन शिक्षकों को किस तरह से देखा जाता है)। अब कविताओं के नाम पर हम्प्टी-डम्प्टी है न कि यदि होता किन्नर नरेश मैं। अब चूंकि हिंदी में कुछ होना नहीं है और हमारी विरासत-परंपरा, हमारे समाज, हमारे संघर्ष और हमारे गौरव की गाथा तो अंगरेजी में है नहीं तो फिर इन मौकों पर गाया क्या जाए? सिर्फ वी शैल ओवरकम... से तो काम चलेगा नहीं, लिहाजा इन अवसरों को संडे की तर्ज पर छुट्टी में बदलना ही था। मैं यहां यह कतई नहीं कहना चाहता कि अंगरेजी न पढ़ी जाए लेकिन मैं इतना जरूर कहना चाहता हूं कि अंगरेजी पढ़ें लेकिन हम अपनी भाषा को न भूलें। यदि हम अपनी भाषा भूल जाएंगे तो हम अपने भारत वर्ष के बोध से ही कट जाएंगे।

और अंत में...

पिछले हफ्ते अनशन राष्ट्रीय बहस का विषय बने। मुझे उर्दू के शायर शकेब जलाली की दो लाइनें फेसबुक पर पढ़ने को मिलीं जो मुझे बहुत मौजूं लगीं। तो शकेब जलाली के बारे में जानने की कोशिश की – शकेब जलाली 1934 में अलीगढ़ के पास जलाली कस्बे में पैदा हुए थे। जिए सिर्फ 32 साल लेकिन अपने दौर की उर्दू शायरी को नया लबो-लहजा देने में इन महाशय की भी ऐसी भूमिका रही कि उर्दू अदब का इतिहास इनके जिक्र के बिना पूरा नहीं माना जा सकता। बंटवारे के समय पाकिस्तान चले गए लेकिन वहां वे खुश न रह सके और 1966 में ट्रेन से कटकर अपनी जान दे दी। ये लाइनें पढ़ें-

इक तुर्फा* तमाशा है अहले सियासत का
घरों में कातिलों के अब अजादारी* भी होती है

तुर्फा – अनोखा, अजादारी – मरने वालों के लिए शोक मनाने की परंपरा।

रविवार, 11 सितंबर 2011

ये पालिटिकल क्लास तो रोज देश की अवमानना करता है


इस रविवार से प्रभात खबर में यदृच्छया स्तंभ शुरू किया है. यह आलेख आज के अंक से हैं...

हमारे नये कालम यदृच्छया (रैंडम) के तहत प्रभात खबर के कारपोरेट संपादक राजेंद्र तिवारी की कलम से देश-दुनिया-समाज-जीवन से जुड़ी घटनाओं, मुद्दों और प्रवत्तियों आदि पर मिलेगी विचारोत्तेजक सामग्री हर रविवार...


पिछले दिनों दो घटनाएं हुईं जो हमसे जवाब मांगती हैं और इस सवाल का जवाब भी देती हैं कि हम भारत के लोग आजादी के 64 साल बाद भी उस भारत का निर्माण नहीं कर पाए जिसका सपना हमने अपने संविधान में देखा। हमारे संविधान की उद्देशिका में कहा गया है-
हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की
एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता
बढ़ाने के लिए
दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26-11-1950 ई. (मिति मार्गशीष शुक्ल सप्तमी, संवत 2006 विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं

जिन दो घटनाओं का जिक्र मैं कर रहा हूं, उसमें से दूसरी है अन्ना के सहयोगियों प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल और किरन बेदी के खिलाफ संसद के सदनों से विशेषाधिकार हनन के नोटिस जारी होना होना। और पहली घटना है, राजीव गांधी की हत्या को दोषी की फांसी की सजा माफ करने के लिए तमिलनाडु विधानसभा में प्रस्ताव पारित होना और जम्मू-कश्मीर विधानसभा में संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरू की फांसी की सजा माफ करने के लिए एक विधायक द्वारा प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाना। संविधान की उद्देशिका की दिशा में हम भारत के लोगों को आगे ले जाने का काम करने की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा विधायिका यानी संसद व राज्य विधानमंडलों की है। संसद ने अन्ना सत्याग्रह के जिन लोगों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन की नोटिस जारी की है, उन्होंने क्या बयान दिए थे? क्या यह सही नहीं है कि 150 से ज्यादा लोकसभा सदस्य आपराधिक मामलों के आरोपी हैं? क्या यह सही नहीं है कि इनमें भी 72 पर लगे आरोप बहुत ही गंभीर किस्म के हैं? क्या यह सही नहीं है कि विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाने वालों में से प्रवीण कुमार एरन, कौशलकिशोर और जगदंबिका पाल पर तो गंभीर मामले चल ही रहे हैं, इनमें से एक डा. विनय कुमार पांडेय पर हत्या का प्रयास, दंगा करने, सरकारी कर्मी को उसके कर्तब्य पालन से रोकने के मामले चल रहे हैं। इस समय आधा दर्जन सांसद और कई विधायक जेल में हैं। झारखंड में देखें तो कई विधायक और मंत्री अफसरों को पीटते और भद्दी-भद्दी गालियां देते नजर आते रहते हैं। अभी कुछ दिन पहले ही झारखंड के एक मंत्री की गाड़ी को साइड न देने पर बस ड्राइवर का हाथ तोड़ दिया गया। बिहार में स्थिति सुधरी है लेकिन पहले वहां तो यह सब आम था। जूता-चप्पल-कुर्सियां-माइक चलाते और आपस में भद्दी गालियां देने का नजारा अकसर किसी न किसी विधानसभा में देखने को मिल जाता है। क्या यह स्थिति विधायिका और हम भारत के लोगों का अपमान-अवमानना नहीं है?
अब पहली घटना पर गौर करते हैं, जो आतंकवाद की जड़ की ओर इशारा करती है – राजीव गांधी की हत्या के दोषियों की फांसी की सजा माफ करने का प्रस्ताव देश की एक विधानसभा में पारित होता है। किसी को यह असाधारण बात नहीं लगती। कहीं कोई चिंता की बात नजर नहीं आती लेकिन जैसे ही जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का ट्वीट आता है कि यदि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में ऐसा प्रस्ताव आए तो क्या देश इसी सहजता से उसे लेगा, सब असहज हो उठते हैं। और जब उत्तरी कश्मीर के लंगेट क्षेत्र के विधायक इंजीनियर राशिद विधानसभा में प्रस्ताव रखने का नोटिस देते हैं, तब दिल्ली में पालिटिकल क्लास धरने-प्रदर्शन तक शुरू करा देता है। लेकिन तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता जब कहती हैं कि सदन सभी राजनीतिक दलों और तमिलनाडु के लोगों की भावना ध्यान रखते हुए सर्वसम्मति से राजीव गांधी की हत्या के दोषियों मुरुगन, संथन व पेरारिवलन की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने के आग्रह का प्रस्ताव पारित करे, तब हमारे देश के पालिटिकल क्लास में कोई असहजता नहीं दिखाई देती। जब पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल आतंकवादी देविंदर पाल सिंह भुल्लर की फांसी को माफ करने के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखते हैं कि इससे सिख समुदाय के बीच भारतीय गणराज्य को लेकर अच्छे संकेत जाएंगे, तब धरने-प्रदर्शन करने वाले राजनीतिक दल चुप्पी साध लेते हैं।
ऐसा क्यों है, हम सभी को वस्तुनिष्ठ होकर सोचना चाहिए। एक घटना अगर वोट की राजनीति है तो दूसरी घटना नोट की। दोनों में हम भारत के लोगों को हमारा पालिटिकल क्लास दरकिनार करता नजर आ रहा है। हमारे संविधान में जनता के विशेषाधिकार हनन के नोटिस की व्यवस्था होती तो शायद 120 करोड़ हम भारत के लोगों में से कोई तो पालिटिकल क्लास को नोटिस देकर पूछता कि क्या लोकसभा में आन रिकार्ड यह बयान देना कि हम सब (लोकसभा के लिए चुने प्रतिनिधि) टोपियां उछालने का ही काम करते हैं, विधायका की अवमानना नहीं है? क्या हम भारत के लोग उनसे जान सकते हैं कि वे अपना संविधान निर्धारित काम छोड़ कर टोपियां उछालने का काम क्यों कर रहे हैं? क्या यह काम संविधान की भावना और उद्देश्यों की अवमानना नहीं है? क्या आपका पालिटिकल (रूलिंग) क्लास केवल वोट और नोट गिनने के लिए है या फिर समानता, समरसता और न्याय आधारित उस भारत को उस समाज को बनाने के लिए है जिसका सपना आजादी की लड़ाई के दौरान देखा गया था और जो हमारे संविधान का उद्देश्य है?

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

विधायिका को वंशबेल की जकड़न से निकालना होगा




राजेंद्र तिवारी
अन्ना हजारे का अनशन खत्म हो गया है। अन्ना का कहना है कि इस सत्याग्रह से आयी जागृति को बनाए रखना, नींद नहीं आने देना। 26 जनवरी 1950 को जब संविधान लागू हुआ तो लोगों को देश का हुकूमत का मालिकाना हक मिला। हमने अपने देश की तिजोरी की रक्षा और उसके बेहतर इस्तेमाल के लिए जनप्रतिनिधियों को अपना ट्रस्टी बनाकर संसद और विधानसभाओं में भेजा। फिर हम निश्चिंत हो गए, हम सो गए। इन ट्रस्टियों ने, हमारे सेवकों ने लोकहित-देशहित को छोड़कर पहले पार्टीहित, फिर निजहित और फिर परिवार हित को तवज्जो देना शुरू कर दिया। मालिक (हमलोग) फिर भी सोया रहा तो हमारी तिजोरी की भी बंदरबांट शुरू हो गई। इसीलिए अन्ना कह रहे हैं कि जागृति को बनाए रखना है। आंदोलन खत्म नहीं, शुरू हुआ है। हम में से कई के दिमाग में सवाल उठ रहा होगा कि 12 दिन के अन्ना के अनशन से क्या होने वाला? क्या अन्ना के तीन बिंदुओं के लोकपाल बिल में शामिल होने से भ्रष्टाचार मिट जाएगा? कई के दिमाग में यह बात भी होगी कि लोगों ने सबक सिखा दिया नेताओं को, सब कुछ सुधरने लगेगा। बड़ा सवाल है यह कि इस आंदोलन से, इस अनशन से क्या सबक हमने व हमारे जनप्रतिनिधियों ने लिये और कैसे ये सबक जनतंत्र को मजबूत करने, जनप्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाने और लोकसभा-विधानसभाओं को आमजन की आकांक्षाओं का आइना बनाने में सहायक होंगे? लेकिन इससे पहले एक बात और...इस आंदोलन ने यह तो स्पष्ट ही कर दिया है कि भारत के लोग दुनिया के फलक पर छा जाने को तैयार हैं, भारत के लोग दुनिया को नेतृत्व देने की क्षमता रखते हैं। इन 12-13 दिनों ने दिखा दिया है कि लोकतंत्र के जिम्मेदार नागरिक कैसे होते हैं, यह दिखा दिया है कि हमारा लोकतंत्र संसद और विधानमंडलों में बैठे नेताओं के तंत्र की बदौलत नहीं बल्कि लोक (हम भारत के लोग) की बदौलत मजबूत और परिपक्व हो रहा है।
तो इस अनशन से क्या सबक हमें लेने चाहिए?
भ्रष्टाचार रोकने के लिए कड़ा कानून बनाने के लिए अन्ना का अनशन हमारे देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण का नतीजा है। इनमें जवाबदेही के खत्म हो जाने का नतीजा है। हमारे देश की लोकतांत्रिक संस्थाएं कितना जनोन्मुखी हैं, इसका अंदाजा पिछले दिनों संसद के भीतर और बाहर चल रही सियासी गतिविधियों से लगाया जा सकता है। आम आदमी जानना चाहता है कि संविधान की रक्षा में लगी राजनीतिक पार्टियों व जनप्रतिनिधियों को नियम 193, 168 और 178 याद हैं लेकिन जनभावनाओं की चिंता क्यों नहीं? इनकी स्वार्थी-संकुचित दृष्टि। कांग्रेस और केंद्र ने कहा कि अन्ना का आंदोलन भाजपा और संघ प्रायोजित है तो भाजपा को लगा कि इसको हवा दो तो कांग्रेस कमजोर होगी और उनकी मुद्दाविहीन राजनीति को मुद्दा मिल जाएगा। किसी को कांग्रेस का सपोर्ट करने का मौका नजर आया तो किसी को विरोध का। क्या इनमें से किसी को यह भी लगा कि देश का आमजन हर सरकारी दफ्तर में चढ़ावे से परेशान है? आखिर हम इस मुकाम पर कैसे पहुंच गए? क्योंकि आमजन और शीर्ष राजनीतिकों व ब्यूरोक्रैसी के बीच संवादहीनता की स्थिति बन गई। लेकिन देश का पालिटिकल क्लास की चिंता शायद इन सवालों को लेकर नहीं हैं। इसे समझने के लिए संसद में शनिवार की बहस पर गौर करने की जरूरत है। सदनों में किसके भाषणों पर बोल-बोल कर सभी दलों के सांसद सहमति जताते नजर आए? जो पालिश्ड नेता हैं, वे बहुत संजीदगी दिखाते नजर आए लेकिन उनकी बातों में भी विवशता का भाव था न कि देश के जनमानस को स्वीकार करने का। उनके चेहरों पर इस बात की खुशी नहीं दिखायी दे रही थी कि वे जिनके प्रतिनिधि हैं, जिन जनों के तंत्र के कस्टोडिटन हैं, जिस भारत के लोगों के सेवक हैं, उनकी इच्छा को सदन में लाकर लोकतंत्र को और गौरवशाली बना रहे हैं। अलबत्ता, वे भाषण में जरूर कह रहे थे कि भारत की संप्रभु संसद के इतिहास में नया अध्याय जुड़ रहा है। मीडिया में कई जगह यह कहा गया कि इस आंदोलन ने संसद में गंभीर बहस की शुरुआत की लेकिन जरा इस बहस में हिस्सा लेने वाले उन भाषणों पर गौर करें जिन्हें बहुत चाव से सुना गया। जिनमें सांसद वक्ता के वाक्य को उल्लास-उत्साह पूर्वक अपनी तरफ से पूरा कर दे रहे थे। जी हां, मैं बात कर रहा हूं उन दो भाषणों की जिसमें कहा गया कि यहां बैठे लोग टोपी उछालना जानते हैं...यदि संसद इसी तरह झुकती रही तो हम सबके (जनप्रतिनिधियों) लिए बहुत मुश्किलें आएंगी। मतलब यह है कि हमारे देश का पालिटिकल क्लास (सत्ता वर्ग) अपनी सत्ता को बचाने के लिए संसद में एकजुट था कि पहले इस बवाल (भ्रष्टाचार) से निपट लिया जाए। और सबने बखूबी एकजुट होकर अपनी सत्ता बचा ली। इतना ही नहीं, सदन में सदस्यों ने धमकियां तक दी और आगाह किया कि यदि सरकार इस तरह झुकती रही तो जनप्रतिनिधियों को सदन के बाहर बहुत दिक्कत होगी।
पिछले कुछ दशकों के दौरान संसद में सिर्फ अपने भत्ते और वेतन बढ़ाने के प्रस्तावों पर ही इस तरह की एकजुटता नजर आती थी और जब अस्तित्व का संकट गहराने लगा तो शनिवार को फिर पूरा पालिटिकल क्लास एकजुट हो गया। सबने दुहाई दी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनप्रतिनिधि न खड़े होते तो 12 सांसदों की सदस्यता न जाती, इतने नेता भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में न बंद हुए होते। झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और चाईंबासा के मौजूदा सांसद मधु कोड़ा का नाम भी लिया गया। यह भी गिनाया गया कि कैसे लालकृष्ण आडवाणी और शरद यादव ने हवाला कांड में नाम आने के बाद तब तक संसद सत्र में हिस्सा नहीं लिया जब तक वे आरोपमुक्त नहीं हो गए। एक ने कहा कि भ्रष्टाचार के जो मामले चल रहे हैं वे अन्ना टीम की वजह से नहीं बल्कि हम जनप्रतिनिधियों की वजह से चल रहे हैं। लेकिन यह कहने वाले क्या भूल गए कि मौजूदा लोकसभा में 162 सदस्य ऐसे हैं जिनपर हत्या, बलात्कार, लूट आदि जैसे आपराधिक मामले चल रहे हैं। क्या उनको सदन में वे लोग भी सीना तानकर बैठे हुए हैं जिनपर निजी हितों के लिए मंत्रिपद के दुरुपयोग का आरोप है। इस तरह अगर देखा जाए तो पालिटिकल क्लास ने यह सबक लिया कि अन्ना का आंदोलन उसके अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी है और आगे से ऐसे किसी आंदोलन को शुरु ही न होने दिया जाए। यह निष्कर्ष मेरा नहीं है बल्कि संसद में तमाम वक्ताओं ने अलग-अलग तरह से यह बात खुद कही है। मुझे बहुत खुशी होगी यदि यह निष्कर्ष गलत साबित हो जाए। पूरे देश के लिए इससे बड़ा सौभाग्य क्या होगा यदि इस आंदोलन से सबक लेकर पालिटिकल क्लास अपनी जिम्मेदारियों को समझने, भ्रष्ट आचरण से परहेज करने, जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व करने, जवाबदेह बनने और लोकसेवक के तौर पर काम करने की दिशा में आगे बढ़ने का संकल्प ले रहा हो। लेकिन शनिवार को संसद में सांसदों की भाव-भंगिमा व व्यवहार से ऐसा लगा नहीं। ये कैसे जनप्रतिनिधि हैं जो आमजन की इच्छाओं का आइना बनने में फक्र नहीं महसूस करते बल्कि उनको लगता है कि यह उनकी संप्रभुता को चुनौती है। इन लोगों को जानना चाहिए और नहीं जानते हैं तो संविधान सभा का कार्यवाही को पढ़ना चाहिए कि संप्रभुता कहां से आई है और कहां निहित है। सिर्फ बाबा अंबेदकर और संविधान की दुहाई देने का नाम संप्रभुता नहीं है। इनको पता होना चाहिए कि संविधान में इंडिया दैट इज भारत क्यों लिखा गया और वहां से सीख लेनी चाहिए कि समावेशी लोकतंत्र क्या होता है।
अब बात करते हैं कि हम भारत के लोगों को क्या मिला। इस आंदोलन की सबसे बड़ी देन हम सबके अंदर यह आत्मविश्वास जगना कि संसद को अपनी बात सुनने पर मजबूर किया जा सकता है और वह भी बिना किसी हिंसा के। दरअसल, तमाम लोगों को जो भ्रष्टाचार के मुद्दे को तो अहम मानते हैं लेकिन इस बात को व्यवहारिक नहीं मानते थे कि अनशन या इस तरह के आंदोलन से पालिटिकल क्लास को जनता यानी आम आदमी की बात सुनने पर मजबूर किया जा सकता है। बहुत सारे लोग दिल से तो अन्ना के अनशन के साथ थे लेकिन उनका दिमाग तमाम तर्कों में उलझा हुआ था। लेकिन इस आंदोलन ने यह साफ कर दिया कि अपनी-अपनी जगह से भी आंदोलन किए जा सकते हैं। इसका असर आम जनजीवन पर भी है। सरकारी दफ्तरों में घूंस लेने में लोगों को थोड़ा संकोच का अनुभव हो रहा है और अब शायद ईमानदार कर्मचारियों की खिल्ली बनना भी बंद हो जाए। आमजन भी अपने को थोड़ा तकतवर पा रहा है रोजमर्रा के भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़े होने को लेकर। लेकिन जैसा टीम अन्ना ने कहा, यह एक शुरुआत भर ही है। समावेशी लोकतंत्र की दिशा में भारत के लोगों की ओर से छोटा लेकिन दूरगामी परिणाम देने वाला कदम। अन्ना ने ठीक ही कहा है कि हम सो गए थे अपने लोकतंत्र की जिम्मेदारी कस्टोडियनों यानी पालिटिकल क्लास को देकर और उन्होंने धोखेबाजी की। जिस फेसबुक जमात यानी मौजूदा शहरी युवा की खिल्ली उड़ाई जा रही थी, उस जमात के बूते जब इतना हासिल हो गया तो यदि गांव-गांव तक यह जागरूकता फैल जाए तो अनुमान लगाइए कि क्या नहीं किया जा सकता। अलबत्ता, यह जरूर सुनिश्चित करना होगा कि यह जागृति अब मरने न पाए बल्कि व्यापकता लेती जाए।
इस घटनाक्रम को अनशन को सिर्फ जनलोकपाल विधेयक और उसके आयामों से जोड़कर ही नहीं बल्कि लोकभागीदारी की प्रक्रिया की शुरुआत के तौर पर देखा जाना चाहिए। अन्ना ने कहा भी है कि यह आंदोलन जारी रहेगा और अब अगला कदम होगा चुनाव सुधार। गवर्नेंस में लोकभागीदारी की यह प्रक्रिया वैसे तो हमारी संसद-विधानसभाओं और उसमें बैठे जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी और जवाबदेही है लेकिन वे इसमें विफल रहे हैं। संविधान के तहत बनाई गईं लोकतांत्रिक संस्थाएं लोक नहीं पालिटिकल क्लास की संस्थाएं बन गई हैं और हमारे समाज की सभी समस्याओं की जड़ यहीं पर है। सजग समाज इन स्थितियों में असहाय नहीं बल्कि उन लोगों को बदलने का काम करता है जो इन संस्थाओं को पंगु करने में लगे होते हैं। चुनाव सुधार की दिशा में जनांदोलन को ले जाने से इसकी शुरुआत होगी। जब आम लोगों के चुनाव में जीतने की संभावना बनेगी और बेटा-बेटियों, पत्नी-साला-साढ़ुओं, भाई-भतीजा से सदन मुक्त होंगे तो अपने आप बहुत कुछ सुधर जाएगा। पैट्रिक फ्रेंच की हाल में आई किताब इंडिया (एन इंटीमेट बायोग्राफी आफ 1.2 बिलियन पीपुल) में आंख खोलने वाले आकड़े हैं कि कैसे हमारा लोकतंत्र वंशबेलों में जकड़ गया है। इसके मुताबिक 156 लोकसभा सदस्य ऐसे हैं जो किसी न किसी नेता के बेटा-बेटी-भाई-बहन-पत्नी व परिजन है और सात राजे-महाराजे वाली पृष्ठभूमि के हैं। हम देश में युवा आबादी की बात करते हैं लेकिन लोकसभा में 30 वर्ष से कम उम्र के सभी सदस्य, 31 से 40 वर्ष के बीच के 65 फीसदी सदस्य किसी न किसी नेता की वंशबेल हैं। राज्यसभा की तो बात ही छोड़ दीजिए, वह तो है ही उपकृत करने के लिए। इस वंशबेल को बढ़ने से न सिर्फ रोकना होगा बल्कि इसको कतरना भी होगा। 

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

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Page One: "Page One - Andrew Rossi’s riveting documentary Page One: Inside The New York Times had its World Premiere at the Sundance Film Festival, and was acquired by Magnolia Pictures and Participant Media for theatrical release June 24. In the tradition of great fly-on-the-wall documentaries, the film deftly gains unprecedented access to the New York Times newsroom and the inner workings of the Media Desk."