सोमवार, 27 सितंबर 2010

शायद तुम भी

बिखरा नहीं
कुछ बंधा नहीं
समय ठहरा था
लेकिन पृथ्वी नहीं
और मैं गुजर रहा था तुम्हारे साथ शाम के बसेरे से
और शायद तुम भी

ठहराव के पल
जिंदगी जितने खूबसूरत
उमस का मौसम
बारिशों सा हसीन
और मैं गुजर रहा था तुम्हारे साथ शाम के बसेरे से
और शायद तुम भी

स्पर्श का रोमांच
ध्वनि जैसा स्पंदित
स्पर्श का रोमांच
आकाश जितना अंतहीन
और मैं गुजर रहा था तुम्हारे साथ शाम के बसेरे से
और शायद तुम भी

8 टिप्‍पणियां:

  1. आप कविता भी लिखते हैं, जानकर खुशी हुई। मैं इस मामले में ज़ीरो हूँ। अब से आपका यह ब्लॉग भी देखेंगे।

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  2. गुज़रना....इस कविता को कविता बनाता है, अगर ठहर जाना होता तो कहानी हो जाती। सुंदर।

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  3. स्पर्श का रोमांच
    ध्वनि जैसा स्पंदित
    स्पर्श का रोमांच
    आकाश जितना अंतहीन
    और मैं गुजर रहा था तुम्हारे साथ शाम के बसेरे से
    और शायद तुम भी

    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...बहुत खूब

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  4. jab kisi khas ka sath hota hai to sach me wakt tham gaya sa lagta hai. very beautiful poem. dil ko chhu gaye.

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  5. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  6. बहुत अच्छी लीगी कविता| दिल को छू गई | धन्यवाद|

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  7. पुनः अद्भुत...
    अकसर जब तुम मेरे पास नहीं होती हो/
    तब अकसर तुम और करीब हो जाया करती हो
    एक अरसा गुजर गया/
    साथ होने को और पास होने को/
    न जाने क्यों ऐसा लगता है जैसे वे दिन फिर लौट आएं...
    ...जब मैं परेशां होऊं तो तुम्हारे कांधे पर मेरा सिर हो
    और ये दुनिया फिर रंगीं हो जाए...
    काश ऐसा हो...

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  8. बिखरा नहीं
    कुछ बंधा नहीं
    समय ठहरा था
    लेकिन पृथ्वी नहीं

    फिलहाल ‌‌‌अपना भी हाल ​कुछ ऐसा ही है] आपके शब्दों में 'था' की जगह 'है' लगाने की जरूरत है, बस। ​दिल को छू लेने वाली पं​क्तियां। धन्यवाद

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