यदृच्छया/राजेंद्र तिवारी
प्रभात खबर से साभार
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हिंदी का सरकारी महीना सितंबर खत्म होने को है। सरकारी
विभागों, बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों आदि में हिंदी को बढ़ावा देने के पोस्टर लगे,
हिंदी पखवाड़ा आयोजित करने की घोषणाएं और कहीं-कहीं अफसरों के
रिश्तेदारों-यार-दोस्तों को उपकृत करते हुए कवि सम्मेलन या संगोष्ठी का आयोजन। कुछ
लोग विज्ञापन देकर बता रहे हैं कि वे हिंदी की कितनी सेवा कर रहे हैं और कुछ लोग
विशेष सामग्री देकर और उसके दाम वसूलकर यही बताने का उपक्रम कर रहे हैं। यह सब बदस्तूर
बरसों से हो रहा है लेकिन हिंदी की हालत कमबख्त सुधर ही नहीं रही। आखिर ऐसा है क्यों? और इससे भी बड़ा सवाल यह है कि हमको और हमारे बच्चों को
हिंदी क्यों आनी चाहिए?
1991 से, जब से देश में आर्थिक
उदारीकरण की बयार शुरू हुई। उससे पहले तक देश के लगभग हर जिले में सबसे अच्छे
स्कूल सरकारी स्कूल हुआ करते थे। जिलों में सबसे अच्छे शिक्षक भी अमूमन सरकारी
स्कूलों के ही होते थे। इन सरकारी स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई वैसे ही कराई जाती
थी जैसे गणित या विज्ञान की। लेकिन 90 के दशक से बदलाव आने शुरू हुए। पब्लिक
स्कूलों की संख्या बढ़ी और साथ ही नकली पब्लिक स्कूलों की भी। इनमें हिंदी सबसे
हेय विषय के तौर पर देखा जाता है। आश्चर्य की बात यह हुई कि अर्धसरकारी या ट्रस्ट
आदि के स्कूल जो पहले से अच्छे माने जाते थे, उन्होंने भी हिंदी को पीछे ढकेल
दिया। हम जब बच्चे थे (30-35 साल पहले), गलत वर्तनी लिखना शर्मनाक माना जाता था और
शिक्षक कान पकड़वाकर उठक-बैठक लगवाते थे, लेकिन अब...पिछले दिनों मैंने अपने बच्चे
की हिंदी की कापी देखी। हर पन्ने पर वर्तनी की गलतियां थीं और शिक्षक ने उसे चेक
कर रखा था। शिक्षक के दस्तखत इसका गवाह थे। यह बच्चा एक बहुत अच्छे स्कूल में
पढ़ता है। कापी में गलती की यह पहली घटना नहीं है। भोपाल के मशहूर कैंपियन स्कूल
में भी यही हालत थी, सेंट मेरीज कान्वेंट की भी यही हालत थी और दिल्ली के एक अच्छे
स्कूल में भी यही हालत। हिंदी को कितना हेय समझा जाता है, यह मैंने साक्षात देखा है
इन स्कूलों में। दो साल पहले जब मैं दिल्ली में था, टीचर-पेरेंट मीटिंग के लिए
बच्चे के स्कूल गया। समय कम था सो सोचा कि उस टीचर से शुरुआत करूं जिसके पास भीड़
कम हो। गणित की टीचर की टेबल पर भीड़ थी, अंगरेजी की टीचर को सिर उठाने की फुरसत
नहीं थी, साइंस वाले रूम में करीब 20 पेरेंट बैठे थे। फिर मैंने अपने बच्चे से कहा
कि चलो पहले हिंदी की टीचर से मिल लेते हैं। यकीन मानिये, हिंदी की टीचर बिलकुल
खाली बैठी थीं। देखने में वह बिलकुल 30-35 साल पहले वाली मास्टरनी की तरह ही थीं।
बच्चों की चाल-ढाल बदल गई, बाकी सबजेक्ट के टीचरों की चाल-ढाल बदल गई, बातचीत की
भाषा हिंदी जगह अंगरेजी हो गई लेकिन हिंदी की टीचर नहीं बदलीं। उनसे मिला,
उन्होंने बहुत विस्तार से बच्चे की प्रगति से अवगत कराया लेकिन जब मैने उनसे पूछा
कापी में गलतियां रहते हुए वे कैसे दस्तखत कर देती हैं, वे बेझिझक बोलीं, अरे
इसमें क्या है। उनका सारा जोर इस
बात पर था कि मैं क्या करता हूं और वे किस-किस को जानती हैं। उन्होंने यह भी बताया
कि अधिकतर पेरेंट्स तो उनसे मिलने भी नहीं आते हैं और फिर टेबल पर रखा हुआ सलाइयों
में बिंधा स्वेटर उठाया और सलाइयां चलाने लगीं। सीधी रेखा में सोचा जाए तो सारी
गलती हिंदी टीचर की नजर आएगी लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। गलती उस माहौल की, उस
सिस्टम की है जिसमें उनकी उपयोगिता ही खत्म कर दी गई है।
आइए अब देखें इसका असर क्या पड़ रहा
है। एक शाम मैंने अमिताभ बच्चन का शो कौन बनेगा करोड़पति देखा। उसमें 25-26 साल की
एक पढ़ी-लिखी युवती हाटसीट पर थी। 10000 रुपए के लिए दूसरा सवाल स्क्रीन पर था- 15
अगस्त को लालकिले के सामने फौज की सलामी कौन लेता है। विकल्प थे- राष्ट्रपति,
लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश। श्रीमती टिकटिक आन हो
गईं थीं। समय समाप्त हो गया लेकिन यह युवती जवाब नहीं दे पाई। क्या यह सवाल इतना
कठिन है कि जिसने भी पढ़ाई-लिखाई की हो, वह इसका जवाब न दे पाए? दरअसल ऐसी जाने कितनी बातें आज के
बच्चों और युवाओं को पता नहीं हैं और उसकी एक बड़ी वजह यह है कि हम अपनी भाषा को
गंभीरता से नहीं लेते। हमें अपनी विरासत, परंपरा, संघर्ष आदि की जानकारी तो
अंगरेजी भाषा के जरिए भी हो सकती है लेकिन इनका बोध अपनी भाषा में ही होता है। हर
जगह आज लोगों को कहते सुना जा सकता है कि 15 अगस्त, 26 जनवरी और 2 अक्टूबर पर अब
वह उत्साह नहीं दिखाई देता जो पहले हुआ करता था। जरा सोचिए, पहले क्या हुआ करता
था...यही न कि बच्चे झंडा ऊंचा रहे हमारा, विजयी विश्व तिरंगा प्यारा गाते हुए
प्रभातफेरी निकालते थे, दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, हम लाए हैं तूफान से
किश्ती निकाल के, चेतक बन गया निराला था, चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा
जाऊं, खूब लड़ी मरदानी वो तो झांसी वाली रानी थी, इस मिट्टी से तिलक करो यह मिट्टी
है बलिदान की जैसे न जाने कितने गीत बच्चे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गाते थे। अब
यही सब नहीं दिखाई देता। अब ये दिन उत्साह और गौरव के नहीं, बल्कि स्कूल व काम से छुट्टी
के दिन में बदल गए हैं। आखिर स्कूलों में ऐसा क्यों हो गया? अच्छे स्कूलों में हिंदी खत्म हो गई
और अंगरेजी के चलते सरकारी स्कूलों से माहौल तो खत्म हुआ ही, शिक्षक प्रजाति भी
लुप्तप्राय: हो गई और उसकी जगह
ले ली शिक्षाकर्मियों और गुरुजियों ने (जी हां, मध्यप्रदेश में सर्वशिक्षा अभियान
के तहत ठेके पर रखे जाने वाले शिक्षकों को गुरुजी कहा जाता है और इसका बहुवचन है
गुरुजियों। इसी से स्पष्ट है कि समाज में इन शिक्षकों को किस तरह से देखा जाता
है)। अब कविताओं के नाम पर हम्प्टी-डम्प्टी है न कि यदि होता किन्नर नरेश मैं। अब
चूंकि हिंदी में कुछ होना नहीं है और हमारी विरासत-परंपरा, हमारे समाज, हमारे
संघर्ष और हमारे गौरव की गाथा तो अंगरेजी में है नहीं तो फिर इन मौकों पर गाया
क्या जाए? सिर्फ ‘वी शैल ओवरकम...’ से तो काम चलेगा नहीं, लिहाजा इन
अवसरों को संडे की तर्ज पर छुट्टी में बदलना ही था। मैं यहां यह कतई नहीं कहना
चाहता कि अंगरेजी न पढ़ी जाए लेकिन मैं इतना जरूर कहना चाहता हूं कि अंगरेजी पढ़ें
लेकिन हम अपनी भाषा को न भूलें। यदि हम अपनी भाषा भूल जाएंगे तो हम अपने भारत वर्ष
के बोध से ही कट जाएंगे।
और अंत में...
पिछले हफ्ते अनशन राष्ट्रीय बहस का
विषय बने। मुझे उर्दू के शायर शकेब जलाली की दो लाइनें फेसबुक पर पढ़ने को मिलीं
जो मुझे बहुत मौजूं लगीं। तो शकेब जलाली के बारे में जानने की कोशिश की – शकेब
जलाली 1934 में अलीगढ़ के पास जलाली कस्बे में पैदा हुए थे। जिए सिर्फ 32 साल
लेकिन अपने दौर की उर्दू शायरी को नया लबो-लहजा देने में इन महाशय की भी ऐसी
भूमिका रही कि उर्दू अदब का इतिहास इनके जिक्र के बिना पूरा नहीं माना जा सकता।
बंटवारे के समय पाकिस्तान चले गए लेकिन वहां वे खुश न रह सके और 1966 में ट्रेन से
कटकर अपनी जान दे दी। ये लाइनें पढ़ें-
इक तुर्फा* तमाशा है अहले सियासत का
घरों में कातिलों के अब अजादारी* भी होती है
तुर्फा – अनोखा, अजादारी – मरने
वालों के लिए शोक मनाने की परंपरा।